जगतगुरु शंकराचार्य और कुमारिल भट्ट का मिलन का प्रसंग भाग ४.१


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कुमारिल और धर्मकीर्ति 

कुमारिल भट्ट की जीवन की घटनाओं का विशेष रूप से परिचय नहीं मिलता । तारानाथ के उल्लेख से केवल इतना ही पता चलता है कि गृहस्थ थे - साधारण गृहस्थ नहीं बल्कि धान्य से सम्पन्न समृद्ध गृहस्थ । इनके पास धान के अनेक खेत थे। ५०० दास और ५०० दासियां थी । चूड़ामणि देश के राजा के यहां इनकी मान मर्यादा अत्यधिक थी । इनके जीवन की अन्य बातों का तो पता नहीं चलता परन्तु बौद्धदर्शन के विख्यात आचार्य धर्मकीर्ति के साथ इनके शास्त्रार्थ करने तथा उनके हाथ पराजित होकर बौद्ध धर्म स्वीकार करने की घटना का वर्णन तारानाथ ने बड़े विस्तार के साथ किया है। धर्मकीर्ति त्रिमलय के निवासी ब्रह्माण थे । इनके पिता का नाम कोरूनन्द बतलाया जाता है । ये थे तो ब्राह्मण परन्तु स्वाभाव से बड़े ही उद्धत थे । और वैदिक धर्म के प्रति श्रद्धा जाग उठी थी । घर छोड़कर ये मध्यप्रदेश से चले आए और नालंदा विश्वविद्यालय के पीठस्थविर ( प्रिन्सपल) धर्मपाल के पास रहकर समस्त बौद्ध शास्त्रो का विशेषतः न्याय शास्त्र का - विधिवत अध्ययन किया अब ब्रह्माण दर्शन के रहस्यों को जानने के लिए इनकी इच्छा प्रबल और उस समय से बढ़कर वैदिक दर्शन का ज्ञाता कोई दूसरा व्यक्ति नहीं था जिससे इन शास्त्रों का अध्ययन करते । अत: इन्होंने निश्चय किया कि इन्ही से ब्रह्माण दर्शन का अध्ययन करूंगा परन्तु कुमारिल किसी बौद्ध को क्यों दर्शन पढ़ाते ? अपनी इस उत्कट इच्छा की पूर्ति के लिए ये कुमारिल के पास जाकर परिचारक का वेश धारणकर उनके पास घर में रहने लगे । ये सेवा का कार्य बड़े प्रेम से करते थे तथा इतना अधिक काम करते थे जितना पचास आदमी भी करने में असमर्थ थे इनकी इन सेवाओं से कुमारिल भट्ट अत्यंत प्रसन्न हुए और उन्होंने अपनी स्त्री के कहने पर इन्हें ब्रह्माण विद्यार्थियों के पास बैठकर दर्शनशास्र का पाठ सुनने की आज्ञा दे दी। तीव्र बुद्धि धर्मकीर्ति ने बहुत शीघ्र वैदिक दर्शन के रहस्यों में प्रवीणता प्राप्त कर ली 

भट्टाचार्योद्विजवर कश्वित उदग समागत दुष्टमतावल म्बिनो बौद्वान जैनान् असंख्यातान निर्भयो वर्तते । शंकर विजय पृ ० १८० 
dr.vidyabhushan- History of India logic.303.306. 

तब उन्होंने अपनी असली स्वरूप का परिचय दिया और वहां के ब्रह्माणो को शास्त्रार्थ के लिए ललकारा। कणाद गुप्त नामक वैशेषिक आचार्य तथा अन्य ब्राह्मण दार्शनिको को शास्त्रार्थ में परास्त किया। अन्त में भट्ट कुमारिल की बारी आयी । इनका धर्मकीर्ति के साथ गहरा शास्त्रार्थ हुआ और इस विवाद में गुरु कुमारिल परास्त हो गये इसके पश्चात अपने ५०० शिष्यो के साथ इन्होंने बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया । 

तिब्बतीय जनश्रुति के आधार पर इस उपयुक्त घटना का वर्णन किया गया है , परन्तु इसकी पुष्टि भारतीय ग्रंथों से नहीं होती है । इतना ज्ञान तो अवश्य जान पड़ता है कि कुमारिल ने बौद्ध दर्शन के यथार्थ ज्ञान प्राप्त करने के लिए बौद्ध भिक्षु बनाकर किसी बौद्ध आचार्य के पास कुछ दिनों तक बौद्ध शास्त्र का अध्ययन किया था । शंकराचार्य से अपनी आत्मकथा कहते समय कुमारिल ने स्वयं इस घटना को स्वीकार किया है । उस समय कुमारिल ने कहा कि किसी भी शास्त्र का तब खण्डन नहीं हो सकता जब तक उसके रहस्यों का पूर्ण परिचय नहीं होता है मुझे बौद्ध धर्म की धज्जियां उड़ानी थी अत: बौद्ध धर्म के खण्डन करने के पूर्व उसके अनुशीलन करने उद्योग किया । नम्र होकर बौद्धो की शरण में आया और उसमें सिद्धांतो को पढ़ने लगा। 

धर्मपाल और कुमारिल - कुमारिल ने बौद्ध धर्म का अध्ययन किस आचार्य के पास किया, यह कहना कठिन है। माधव ने अपने शंकर दिग्विजय (७/१४ ) में उस बौद्धचार्य के नाम का उल्लेख नहीं किया है। परन्तु बौद्ध दर्शन के इतिहास के अध्ययन करने से प्रतीत होता है कि उस समय धर्मपाल (६००-६३५ ई० ) नामक बौद्ध आचार्य की कीर्ति चारो ओर फैली हुई थी। ये बौद्ध धर्म की प्रधान पीठ नालन्दा विश्वविद्यालय के अध्यक्ष थे । वे स्वयं विज्ञान -वादी थे परन्तु उन्होंने योगचार और शून्यवाद उभय मतो के विख्यात सिद्धांत ग्रंथों पर पाण्डित्यपूर्ण टीकाएं लिखी। इनकी विज्ञप्तिमात्रतासिद्व। व्याख्या नामक रचना वसुबन्धु की विज्ञाप्तिमात्रतासिद्वि की टीका है तथा इनका शतशास्त्रवैपुल्यभाष्य आर्यदेव के प्रसिद्ध शून्यवादी ग्रंथ शतशास्त्र का पाण्डित्यपूर्ण भाष्य है । अत: यह अनुमान निराधार नहीं माना जा सकता कि भट्ट कुमारिल ने इन्हीं बौद्धाचार्य आचार्य धर्मपाल से बौद्ध दर्शन का अध्ययन किया।  

एक घटना 

एक दिन की बात थी कि धर्मपाल नालन्दा महाविहार के विशाल प्रांगण में बैठकर अपने शिष्यों के सामने बौद्ध धर्म की व्याख्या बड़े अभिनिवेश से कर रहे थे । प्रसंगवश उन्होंने वेदों की बड़ी निंदा की । इस निन्दा से सुनकर वैदिक धर्म के पक्षपाती कुमारिल की आंखों में अश्रुपात होने लगा। पास बैठनेवाले एक भिक्षु ने इस घटना को देखा 

 अवादिषं वेदाविघातदक्षै: तान्नाशंक जेतुबुध्यमान :। 
तदीयसिद्वान्तरहस्यावार्धीन निषेष्यबोद्वानिषेध्यबाध: ।। शं०दि०/१३ 

और धर्मपाल का ध्यान इधर आकृष्ट किया। आचार्य धर्मपाल इदस को देखकर अवाक रह गए - बौद्ध भिक्षु के नेत्रों से वेदों की निन्दा सुनकर आंसुओं की झड़ी । आचार्य भरे शब्दों में उन्होंने पूछा, तुम्हारे नेत्रों से अश्रुपात होने का कारण है? क्या मैंने वेदों की जो निन्दा की है , वहीं हेतु तो नहीं है? कुमारिल ने कहा कि मेरे अश्रुपात का यही कारण है कि आप बिना वेदों गूढ़ रहस्यों को जाने इनकी मान मानी निंदा कर रहे हैं । इस घटना ने कुमारिल के सच्चे स्वरूप को सबके सामने अभिव्यक्त कर दिया। धर्मपाल इस घटना से नितान्त रूष्ट हुए और उन्होंने इनके वहां से हटाने की आज्ञा दी। परन्तु दुष्ट विद्यार्थियों ने इनको विपक्षी ब्रह्माण समझकर नालन्दा विहार के ऊंचे शिखर से नीचे गिरा दिया। आस्तिक कुमारिल ने अपने को नितांत असहाय पाकर वेदों की शरण ली और गिरते समय ऊंचे स्वर से घोषित किया कि यादि प्रमाण है तो मेरे शरीर का बाल भी बांका न हो 

पतन पतन सौधतलान्यरोहं यदि प्रमाण श्रुतियो भवन्ति ।
जीवेयमस्मिन पातितोऽसमष्थले मज्जीवने ततश्रुतिमानता गति: ।।  

उपस्थित जनता के आश्चर्य से देखा कि कुमारिल ऊची अटारी से गिरने पर भी शरीर नितांत अक्षत रहा। वेद भगवान ने उनकी रक्षा की । पर वेद की प्रामाणिक में यदि पद द्वारा संदेह प्रकट करने के कारण कुमारिल की एक आंख फूट गयी । इस बार कुमारिल से धर्मापाल परास्त हो गए और पूर्व प्रतिज्ञानुसार उन्होंने ( धर्म पाल ) अपने शरीर को तुषानल ( भूसे की आग ) में जला डाला । इस घटना से वैदिक धर्म के आगे बौद्धधर्म ने पराजय स्वीकार कर लिया तथा कुमारिल की विजय वैजयंती सर्वत्र फहराने लगी । 

कुमारिल ने बौद्ध धर्म दर्शन के गंभीर अध्ययन के लिए कुछ समय के लिए बौद्ध बनना स्वीकार कर लिया होगा । इस सिद्धांत को मानने में कोई आपत्ति दिखाई नहीं पड़ती कुमारिल का बौद्ध दर्शन का ज्ञान जितना गंभीर और परिशिष्टित है , उतना अन्य ब्राह्मण 

तदातदीय शरण प्रपन्न : सिद्धांतन्तश्रौषमनुद्वतात्मा । 
अदुदुषत् वैदिकमेव मार्ग, तथागतो जातु कुशाग्रबुद्धि : ।। 

तदाऽपतत् में सहसाश्रुबिन्दु तच्चाविदु। : पाश्वनिवासिनोऽन्ये ।
तथा प्रभृत्येव विवेश शंका मग्नायप्तभावं परिहत्या तेषाम । । 
-शं ० दि ० ७/१४-१५

विपक्षीपाठी बलवान् द्विजाती : प्रत्याददतदर्शनमस्मदीयम । 
उच्चाटनीय : कथमप्युपायै : यो नैतादृशा : स्थापयितु हि योग्य: ।।

संमन्न चेत्थं कृतिविस्वयास्ते ये चापरेऽहिंसनवादशील:।
 व्यपातयन् उच्चतरात् प्रमतं मामग्रसौधात् विनिपातभीरूम ।

-श०दि० ७/१६ /१७ 

यदोह सन्देह प्रदप्रयोगाद व्याजेन शास्त्रश्रणाच्चा हेतो: ।
ममोच्चदेशात् पततो ध्यनड्क्षीत तदेकचक्षुर्विधिकल्पना सा ।। 

शं ० दि ० ७/११ 

दार्शिनिको का नहीं । इनकी पहुंच केवल संस्कृत में लिखे गए बौद्ध दर्शन तक सीमित नहीं थी , प्रतुत्य इन्होंने पालि में बौद्ध दर्शन ( पालि बुद्विज्म ) का भी गाढ़ अध्ययन किया था । सत्य तो यह है कि शंकराचार्य से भी बौद्ध दर्शन का ज्ञान इनका अधिक था परन्तु ज्ञान तभी संभव है जब इन्होंने किसी बौद्ध आचार्य के पास जाकर शिक्षा ग्रहण की हो । अतः इससे ज्ञात होता है कि बौद्ध दर्शन के अध्ययन के लिए बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया गया होगा , क्योंकि बिना ऐसा किए भला कोई बौद्ध आचार्य इन्हें क्यों पढ़ाता ? इस कथन की पुष्टि बौद्ध ग्रंथों से ही नहीं होती पत्युत माधव कृत शंकर दिग्विजय ( सत्तम सर्ग तथा मणि मंजरी जैसे ब्राह्मण ग्रंथों से भी होती है । 

 

जय श्री कृष्ण 

दीपक कुमार द्विवेदी

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