जगतगुरु शंकराचार्य और कुमारिल भट्ट का मिलन का प्रसंग भाग ४.२

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कुमारिल भट्ट और राजा सुधन्वा - 
कुमारिल को ब्राह्मण - दर्शन का अगाध ज्ञान तो था ही, धर्मपाल के पास रहकर उन्होंने बौद्धदर्शन में प्रवीणता प्राप्त कर ली । इस प्रकार अपने तथा विपक्षी के दोनों दर्शनो में पारंगत होकर ,अपनी विद्वत्ता में अटूट विश्वास रखकर आचार्य कुमारिल दिग्विजय के लिए निकल पड़े । पहले वे उतरी भारत के पण्डितो को परास्त करने के लिए निकले तथा सबको अपनी विद्वत्ता का लोह मनवाकर दक्षिण भारत की ओर चल पड़े । दक्षिण भारत के कर्नाटक देश में सुधन्वा नामक बड़े प्रसिद्ध राजा उस समय राज करते थे । वे एक बड़े न्यायपरायण राजा थे । इनकी नगरी के नाम उज्जैनी था जिसकी स्थिति का पता आजकल विलकुल नहीं चलता। ये वैदिक मार्ग पर चलनेवाले श्रद्धालु राजा थे परन्तु जैनियों के पंचे में पड़कर वे जैन धर्म में आस्था रखने लगे थे । दिग्विजय करते समय कुमारिल कर्नाटक देखने आये और राजा सुधन्वा के दरबार में गए । 

उस समय कर्नाटक देश में बौद्धधर्म तथा जैनधर्म का बड़ा बोलबाला था । ज्ञान का भण्डार वेद कूड़ेखाने में फेंका जाने लगा और वेद के रक्षक ब्राह्मणो की निन्दा होने लगी । देश का राजा सुधन्वा ही जैनमत के प्रति श्रद्धालु था । पर उनकी रानी अभी तक वेद का पल्ला थामे हुई थी । एक दिन वह अपने राजभवन की खिड़की में बैठी चिन्ता कर रही थी - कि करोमि क्व गच्छामि को वेदान् उद्वरिष्यति - क्या करूं कहां जाऊं और वेदो का उद्धार कौन करेगा ? यह  कुमारिल  भट्ट उसी रास्ते से जा रहे थे । उन्होंने वह दीनता - भरी पुकार सुनी । वहीं खड़े हो गए । वहीं उन्होंने ऊंचे स्वर में कहा - मां विषीद वराररोहे भट्टचार्योऽस्मि भूतले । हे रानी चिन्ता मत कीजिए  । मैं भट्टाचार्य इसी पृथ्वी पर वर्तमान हूं । मैं वेदों  का उद्धार करूंगा और आपकी चिन्ता दूर कर दूंगा । कुमारिल ने अपने कार्यो से सचमुच सुधन्वा रानी की चिंता को सदा के लिए दूर कर दी ।  

मणिमंजरी सर्ग ५ श्लोक ३७-४१ 

ने कहा कि हे कोकिल! यदि मलिन काले श्रुति ( कान तथा वेद) को दूषित करनेवाले कौओ से तुम्हारा संसर्ग नहीं होता तो तुम सचमुच श्लाघनीय होते । 

       मलिनैश्चनेत्र संगस्ते नीचे: काककुलै :  पिक ।
        श्रुतिदूषकानिर्ह्रादै       श्लाघनीयस्तदा भवे  : ।। 

जैनियों ने इसे अपने ऊपर आक्षेप समझा और बड़ा बुरा माना। राजा भी दोनों की परीक्षा लेने का अवसर ढूंढ़ रहा था । राजा ने एक बार घड़े में एक विषैले सांप को बन्द कर जैनियों और ब्राह्मणों से इसके विषय में पूछा । दूसरे दिन का वादा कर जैनी लोग घर लौट गए , परन्तु कुमारिल ने उसका उत्तर उसी समय लिखकर रख दिया । रात भर जैनियों ने अपने तीर्थंकरो की आराधना की । प्रात: काल होते ही उन्होंने राजा से कह सुनाया कि घड़े के भीतर सर्प है । कुमारिल का पत्र खोला । दैवी प्रतिभा के बल पर लिखे गए पत्र में वही उत्तर विद्यमान था । समान उत्तर होने पर राजा ने पूछा कि सर्प के किसी विशिष्ट अंग में कोई चिह्न है क्या ? जैनी लोगो ने समय के लिए प्रार्थना की परन्तु कुमारिल ने तुरंत उतर दिया कि सर्प के सिर पर दो पैर के चिन्ह बने हुए हैं । घड़ा खोला गया । कुमारिल का कथन अक्षरशः सत्य निकला । राजा ने वेद बाह्य जैनियों को निकाल बाहर किया । और वैदिकमार्ग की प्रतिष्ठा की । अब कुमारिल का सामना करने की किसी की हिम्मत नहीं हुई और इनकी विजय पताका इस प्रकार सर्वत्र फहराने लगी । 

 
कुमारिल के ग्रंथ -
भट्ट कुमारिल ने शबर स्वामी के मीमांसा भाष्य पर सुप्रसिद्ध टीका लिखी है जो वार्तिका के नाम से प्रसिद्ध है । यह टीका तीन भागों में विभक्त है - (१ ) श्लोकवार्तिका -३०११ अनुष्टुप श्लोकों का यह विशालकाय ग्रंथ प्रथम अध्याय के प्रथम पाद (तर्कपाद )की व्याख्या है । (२) तंत्र वार्तिका -प्रथम अध्याय के दूसरे पाद से लेकर तृतीय अध्याय अन्ततक की गद्य में व्याख्या है । ये दोनों ग्रंथ कुमारिल के व्यापक पाण्डित्य तथा असाधारण तर्क - कुशलता को प्रगट करने में पर्याप्त है । (३) यह ग्रंथ बहुत छोटा है इसका नाम है टुपटीका इसमें चौथे अध्याय से लेकर बारहवें अध्याय तक के शबर भाष्य पर संक्षिप्त गद्यात्मक टिप्पणियां है । कृष्णदेव ने तंत्र चूड़ामणि में कुमारिल की अन्य दो टीकाओ का उल्लेख किया है । एक का नाम था बृहट्टीका तथा दूसरी का नाम था माध्यम टीका तन्त्र वार्तिका या तंत्रटीका का उल्लेख किया है । एक का नाम था बृहट्टीका तथा दूसरी का नाम मध्यम टीका । तंत्र - वार्तिका या तंत्रटीका बृहट्टिका का संक्षेप माना जाता है । इन ग्रंथों के अतिरिक्त मानव

( यह ग्रंथ चौखम्भा संस्कृत सीरीज काशी से पार्थसारथी मिश्र की न्यायरत्नाकर टीका के साथ प्रकाशित हुआ । डॉ ० गंगानाथ झा ने इसका अंग्रेजी में अनुवाद कर एशियाटिक सोसायटी बंगाल से इसे प्रकाशित कराया है । ) 

ये ग्रंथ आनदाश्रम संस्कृत सीरीज पूना से पांच भागो में प्रकाशित हुए है । तंत्रवार्तिका का भी अनुवाद डॉ ० झा ने अंग्रेजी में करके एशियाटिक सोसायटी बंगाल के छपवाया है । तद्यथा द्राविड़दिभाषायामेव तावद् व्यंजनान्तभाषापदेषु स्वरान्ताविभक्ति स्री प्रत्यादि कल्पनाभि स्वभाषानुरुपान् अर्थान प्रतिद्यमाना दृश्यन्ते तन्त्रवार्तिका १/३/२०। 

कल्प सूत्र के उपर कुमारिल कि लिखी हुई एक टीका भी उपलब्ध है जिसका कुछ अंश को सन १८६७ ई० में गोल्डस्टुकर ने खण्डन से छपवाया था । शिवमहिम्न स्त्रोत की रचना एक टीकाकार के अनुसार कुमारिल के द्वारा की गयी थी परन्तु इसमें कुछ सार नहीं मालूम पड़ता । सोमदेव के  यशस्तिलकचम (१५९ ई०) में ग्रहिल इस स्त्रोत के कर्ता माने गए हैं । 

 

जय श्री कृष्ण 

दीपक कुमार द्विवेदी

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