जगतगुरु शंकराचार्य और कुमारिल भट्ट का मिलन का प्रसंग भाग ४.३


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कुमारिल का भाषा ज्ञान -

कुमारिल का भाषा ज्ञान व्यापक तथा अत्यंत विस्तृत था जिसका पता इनके ग्रंथों से लगता है । तन्त्र वार्तिका में इन्होंने भाषाओं के दो भेद किये है (१) आर्यो की भाषा तथा ( २) म्लेच्छो की भाषा । आर्यो का निवास स्थान आर्यावर्त माना गया है । इस देश की भाषा आर्य थी और जो लोग इस देश आर्यावर्त के बाहर के प्रदेशो में रहते थे वे म्लेच्छ माने गए थे । कुमारिल द्रविड़ भाषा ( तमिल ) से परिचित जान पड़ते हैं । उन्होंने पांच शब्दों को तन्त्र वार्तिका में उद्वत किया है जो तमिल भाषा के है । ये शब्द है : चोर भात ( तमिल चोरू) नड्डेर = रास्ता ( तमिल नड़) पाप्प = सांप ( तमिल पाप्पू) आल = मनुष्य ( तमिल आड़) , वैर -पेट ( तमिल वायिरू ) । इसके अनन्तर कुमारिल ने पारसी बर्बर, यवन , रोम , आदि भाषाओं का नामोल्लेख किया है। इन नामों में पारस से अभिप्राय फारसी से तथा यवन भाषा का अभिप्राय ग्रीक भाषा से समझना चाहिए । रोम भाषा - रोम की भाषा के विषय में निश्चय रूप से नहीं कहा जा सकता । साधारणतया यह रोम की भाषा अर्थात लैटिन को सूचित करता है परन्तु यह ध्यान देने योग्य है कि प्राचीन काल में रोम शब्द से अभिप्राय इटली देश की राजधानी रोम से न होकर तुर्को की राजधानी कुस्तुनतुनिया से थी । बोलचाल की हिंदी मे भी तुर्को का देश रूम के नाम से विख्यात है । बर्बर भाषा कौन सी है ? सम्भवतः जंगल में रहनेवाले असभ्य लोगों की भाषा रही होगी । इनके अतिरिक्त कुमारिल का परिचय लाट भाषा से भी था । लाट भाषा से अभिप्राय गुजराती से है । एक स्थान पर उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा है कि लाट भाषा को छोड़कर अन्य किसी भाषा में द्वार शब्द का परिवर्तन वार के रूप में नहीं होता ‌ । जान पड़ता है कि कुमारिल वैयाकरणो के द्वारा व्याकृत किसी प्राकृति भाषा का निर्देश नहीं कर रहे हैं । पत्युत लाट देश की ( गुजराती की ) किसी स्थानीय भाषा का उल्लेख उन्हें अभीष्ट प्रतीत होता है । अन्य प्राकृतो का ज्ञान भी उनका आदरणीय है परन्तु सबसे विलक्षण बात तो यह है कि बौद्वो के मूल ग्रन्थो कि भाषा पालि से भी उनका परिचय था । कुमारिल के समय में महायान संप्रदाय का बोलबाला था जिनके धर्मग्रंथो की भाषा संस्कृत है । जान पड़ता है कि हीनयान मत सिद्धांतो का साक्षत ज्ञान प्राप्त करने के लिए ही इन्होंने पालि का अध्ययन किया था । इतनी विभिन्न भाषाओं की जानकारी रखना सचमुच ही बड़ी प्रतिभा का काम है । इससे स्पष्ट प्रतीत होता है कि कुमारिल भट्ट बहुभाषाविज्ञ पण्डित थे ।  

( तद्यथा द्राविड़ादि भाषायामीदृशी स्वच्छान्दकल्पना तदा पारसी बर्बर - यवन रौमकादि भाषासु कि विकल्प्य कि प्रतिपत्यस्यन्ते इति न विद्य: । तत्र ० १/३/१०। नहि द्वारा शब्दस्य स्थान लाटभाषातोऽन्यवनापारसशब्दो दृश्यते । तन्त्रवार्तिका। )

कुमारिल का दार्शनिक पाण्डित्य - 

कुमारिल के शास्त्रज्ञान की चर्चा करना अनावश्यक सा प्रतीत होता है । इतने व्यापक पाण्डित्य का , विविध दर्शनों के इतने गाढ़ अध्ययन का , अन्यत्र मिलना दुर्लभ सा दीख पड़ता है । इनका तन्त्रवार्तिका वैदिक धर्म तथा दर्शन के लिए प्रमाणित विश्वकोश है जिसमें वैदिक अचार के तत्वो का प्रतिपादन , शास्त्र तथा युक्ति के सहारे , इतनी सुन्दरता के साथ किया गया है । कि उनकी अलौकिक वैदुषी को देखकर आश्चर्य से चकित होना पड़ता है । श्लोकवार्तिका में इन्होंने अन्य दार्शनिको के मतो खण्डन के लिए युक्तियों का एक विराट् स्तूप खड़ा कर दिया । शब्द की नित्यता तथा वेदों की अपौरुषेयता आदि मीमांसा सिद्धांतो के प्रतिपादन में इन्होंने बड़ी तर्ककुशलता का परिचय दिया । परन्तु सबसे विलक्षण तथा विचित्र बात है बौद्धदर्शन का इनका गहरा ज्ञान । शंकराचार्य का बौद्धदर्शन - विषयक ज्ञान कुछ कम नहीं था , परन्तु कुमारिल के तुलना करने पर यही जान पड़ता है कि इनका बौद्धदर्शन का ज्ञान शंकर से अधिक परिशिष्टत , व्यापाक , मौलिक तथा गंभीर था । इस विषय में एक यह भी कारण हैं कि कुमारिल ने बौद्धदर्शन का ज्ञान साक्षात बौद्ध आचार्यों से प्राप्त किया की बात तो यह है कि इन्होंने मूल बौद्धधर्म की जानकारी प्राप्त करने के लिए पालि का अध्ययन किया था । इनके समय में अष्टम शताब्दी में पालि पठश- पाठन की भाषा नहीं थी , उसकी परंपरा नष्ट हो चुकी थी , फिर भी उसी युग में उनका अध्ययन कर मूल पालि त्रिपिटकों बौद्धों के एक विख्यात सिद्धांत का उल्लेख किया है कि संस्कृत धर्म अर्थात उत्पन्न पदार्थ करण से उत्पन्न होते हैं, परन्तु उनका विनाश बिना किसी कारण के संपन्न होता है । यह विचित्र सिद्धांत पालि ग्रंथों में ही उपलब्ध होता है। यह कुमारिल के लिए बड़े गौरव कि बात है कि उन्होंने इस अवैदिक धर्म का मूल पकड़कर पर्याप्त खण्डन किया था । इसलिए इनका काम वैदिक धर्म का मण्डन तथा अवैदिक धर्म का खण्डन - इतना पुष्ट हुआ कि इनके आचार्य शंकर के पीछे बौद्धधर्म अपना सिर उठाने में समर्थ नहीं हुआ , वह पूर्वी भारत कोने में किसी प्रकार सिसकता हुआ अपना दिन गिनता रहा और अन्त में उसे भारत की भूमि छोड़ देने पर ही शान्ति मिली । वैदिक धर्म के पुनरुत्थान तथा पुनः प्रतिष्ठा के लिए हम आचार्य कुमारिल के चिर ऋणी है। बौद्धो का वैदिक कर्मकाण्ड के खण्डन के प्रति महान अभिनिवेश था । कुमारिल ने इस अभिनिवेश के दूरकर वैदिक कर्मकाण्ड को दृढ़ भित्ति स्थापित किया तथा वह परंपरा चलायी जो आज भी अक्षुण्ण रीति से विद्यमान है। सच तो यह है कि इन्होंने शंकराचार्य के लिए वैदिक धर्म - प्रचार प्रसार का क्षेत्र तैयार किया। आचार्य शंकर की इसी कार्य में अव्याहता सफलता का बहुत कुछ श्रेय इन्हीं आचार्य कुमारिल भट्ट को प्राप्त है । 
 

अणुभवे कारण इसमें संकडाधम्मा सभ्भवन्ति सकारण अकारणा विणसन्ति अणुप्यति कारणम् 



जय श्री कृष्ण
दीपक कुमार द्विवेदी

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