जगतगुरु शंकराचार्य और कुमारिल भट्ट का मिलन का प्रसंग भाग ४.४

                                   
                                     ॐ

कुमारिल के शिष्य -कुमारिल के अनेक विद्वान शिष्य हुए जिन्होने मीमांसा शास्त्र का विशेष प्रचार कर भारतवर्ष में धार्मिक क्रांति उत्पन्न कर दी । इनमें तीन मुख्य है ( १) प्रभाकर (२) मण्डन मिश्र (३) उम्बेक ( अथवा भवभूति) 

(१) प्रभाकर - ने मीमांसा शास्त्र में नवीन मत को जन्म दिया है जो गुरु मत के नाम से प्रसिद्ध है । प्रसिद्ध है कि ये भट्ट कुमारिल के के पट्ट -शिष्य थे जिन्होंने इनकी अलौकिक कल्पनाशक्ति से मुग्ध होकर इन्हें गुरु कि उपाधि दी । तब से इनके मत उल्लेख गुरू के नाम से किया जाता है । आजकल के स़शोधको को इस परंपरा में विशेष सन्देह है । उन्होंने प्रभाकर और कुमारिल के सिद्धांतो का तुलनात्मक अध्ययन कर निष्कर्ष निकाला है कि प्रभाकर कुमारिल से प्राचीन है । अतः इनके समय - निरूपण में मतभेद हैं । भारतीय दर्शन के इतिहास में प्रभाकर वह जाज्वल्यमान रत्न है जिनके व्याख्यान कौशल और बुद्धि भैभव की चमक ने विपक्षियों को चमत्कृत कर दिया है । अपने स्वतंत्र मत की प्रतिष्ठा के लिए इन्होंने शाबरभाष्य कर दो टीकाएं निर्मित की है - (१) बृहती या निबन्धन जो प्रकाशित हुई है , (२) लध्वी था वितरण जो अभी तक अप्रकाशित है । प्रभाकर की व्याख्याएं उदारतापूर्ण है जो किसी कारण सर्वसाधारण में मान्य न हो सकी । अत: इस मत के ग्रंथों की संख्या अत्यन्त अल्प है । ग्रंथ भी प्रकाशित है । 

मण्डन मिश्र - इनके दूसरे प्रधान शिष्य थे । शंकर से इनका शास्त्रार्थ हुआ था । अत: इनका वर्णन अगले पांचवें भाग में विस्तार के साथ किया गया जाएगा ।  

उम्बेक - ही का नाम भवभूति था । इस विषय में नयी बातो की विशेष खोज हुई है । आवश्यक समझकर इन मतो का उल्लेख यहां किया जा रहा है । अब सप्रमाण सिद्ध हो चुका है कि भवभूति प्रख्यात मीमांसक कुमारिल भट्ट के शिष्य थे । श्री शंकर पाण्डुरंग पण्डित को मालती माधव की एक प्राचीन हस्तलिखित प्रति मिली थी जिसके तृतीय अंक के अंत में वह प्रकारण कुमारिलशिष्य के द्वारा विरचित बतलाया गया था षष्ठ अंक के अंत में कुमारिल के प्रसाद से वाग्वैभव को प्राप्त करनेवाले उम्बेकाचार्य की कृति कहा गया है इससे जान पड़ता है कि भवभूति का ही एक नाम उम्बेक था । उम्बेक मीमांसा शास्त्र के बड़े भारी आचार्य थे । इनके मत तथा ग्रंथ का उल्लेख कितने ही प्राचीन दर्शन ग्रंथों में पाया जाता है ।   

प्रत्यग्रूप भगवान अथवा प्रत्यक्स्वरूप भगवान नामक ग्रंथकार ने चित्सुखाचार्य की तत्वप्रदीपिका की नयन प्रसादिनी नामक टीका में उम्बेक का नाम कई स्थानों में लिया है । चित्सुखी में एक स्थल पर अविनाभाव (व्यक्ति ) के लक्षण का खण्डन किया है। प्रत्यग्रूप 

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( गुरू मत के इतिहास तथा सिद्धांत के लिए लेखक भारतीय दर्शन षष्ठ संस्करण पृ ० ३७४ -७६ ( प्रकाशक शारदा मंदिर काशी ११६० । 

प्रत्यग्रूप भगवान अपने समय के अच्छे विद्वान समझे जाते थे । प्रत्यक प्रकाश नामक कोई सन्यासी इनके पूज्य गुरुदेव थे । इन्होंने नयन प्रसादिनी में अनेक स्थलों पर महाविद्याविडम्बना के कर्ता वादीन्द्र के नाम तथा मत का उल्लेख किया है वदीन्द्र सिंघण नाम ) 

भगवान ने चित्सुखी के इस स्थल पर टीका लिखते समय उम्बेक की टीका का उल्लेख किया है , जिसे उम्बेक ने कुमारिल भट्ट के श्लोकवार्तिका ( पृ० ,३४८, ) की सम्बन्धो व्यापरिष्ट्टात्र लिंगिना पंक्ति पर की है । उक्त चैतदुम्बेकेन आदि चित्सुखी के मूल की व्याख्या लिखते समय टीकाकार ने उम्बेक को महाकवि भवभूति बतलाया है । इन उद्धरणों से स्पष्ट सूचित होता है कि भवभूति ने कुमारिल के श्लोकवार्तिका पर टीका लिखी थी तथा वे उम्बेक नाम से प्रसिद्ध थे  

श्री हर्ष बारहवीं शताब्दी के अन्तिम भाग के प्रसिद्ध ग्रंथ खण्डन खण्डखाखाद्य की विद्यासागरी नामक टीका के रचयिता आनंदपूर्ण ने भी असती सा विशेषिका आदि मूल ग्रन्थ की व्याख्या लिखते समय श्लोकवारतिका से लोग श्लोकों को उद्वत किया है तथा आवश्यक अंश को उद्वत भी किया है । 

बोधधनाचार्य ने अपनी पुस्तक तत्वशुद्वि के भेदाभेद निराकरण प्रकरण में निम्नलिखित टिप्पणी की है जिसमें उम्बेक के एक प्रबल पक्षवाले पण्डित होने की बात सिद्ध होती है । बोधघन की टिप्पणी यह है - अयं तु क्षपणक पक्षादपि पापीयानुम्बेक पक्ष इत्युपेक्ष्यते अर्थात उम्बेक का मत जैनों के मत से भी बुरा है । अतएव उसकी उपेक्षा की गई है ।  

हरिभद्र सूरि का षड् दर्शन समुच्चय नामक ग्रंथ संस्कृत जाननेवाले के लिए बड़े काम का 

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के राजा के धर्माध्यक्ष थे । अतएव उसका समय ११२५ ई ० के लगभग आता है ( देखो ) महाविद्या विडम्बना की भूमिका पृ ० १४ गा० ओ० सीरीज न० १२ ,। पत्यग्रूप भगवान रचित इन्डिया आफिस में सुरक्षित हस्त लिखित पुस्तको की १४१० ई में कापी की गयी थी । अत: पत्यग्रूप भगवान का समय ,१३१० - १४१० ई ० के बीच में होगा । 

उम्बेकस्तु सम्बन्धों व्यप्तिरिष्टात्र लिंगधर्मस्य लिंडि्गना इत्यत्र लिंगधर्मस्येति दर्शनात व्याप्यैकधर्मो व्यापकाधर्मो निरूप्यो व्याप्ति , न पुनरूभयनिष्ठा इत्यब्रवीत चित्सुखी टीका पृ ० २३५ निर्णयसागर का संस्कारण ) 

उक्त चैतदुम्बेकेन यदाप्तोऽपि कस्मै चिदुपादिशति न त्वायऽननुभूतार्थ - विषय प्रयेक्तव्य यथाड्गव्यग्रे हस्तियूथाशतमास्ते । तत्रार्थव्यभिचार स्फुट - चित्सुखी पृ ० २६५  

चित्सुखी (मूल ) पृ ० २६५ ( निर्णय सागर संस्कारण ) 
आसतीति तदुकत्म 

संवृतेर्न तुसत्यव्यं सत्यभेद। कुताऽन्ययम । 
सत्या चेत्सवृति केय भृषा चेत सत्यता कथम ।। 
सत्यत्व न च सामान्यं मृषार्थपरमार्थयोः । 
विरोधधान्नहि वृक्षत्वं समान्यम वृक्षसिंहयो : ।।

तदिय श्लोकद्वयमुम्बेक व्याखात - नहि संवृतिपरमार्थयो : सत्यत्य नाम समान्यमेत्रविरोधात अन्यत्र पौनरूक्तप्रसंग । खण्डन खण्ड पृ ० ४५। 

की चीज है , क्योंकि इस छोटे ग्रंथ में षड दर्शनो के सिद्धांत कारिका के रूप में सरलता से समझाये गए हैं । इस ग्रंथ की टीका गुणरत्न नामक जैन लेखक ,(१४०१ ई० ) ने की है । उसमें मींमसा शास्त्र के अनेक मतो का उल्लेख कर नीचे श्लोक दिया है । 

ओ ,(ऊं ?) म्बेक: कारिका वेति तन्त्रं वेति प्रभाकर: ।
वामनस्तूतभयं। वेति न किचिंदापि। रेवण: ।।

ओम्बेक कारिका का अच्छा वेता है । प्रभाकर तन्त्र को जानता है । वामन दोनों का विशेषज्ञ हैं और रेवण कुछ भी नहीं जानता । श्लोक की कारिका से कुमारिल के श्लोकवार्तिका का अभिप्राय समझना चाहिए : क्योंकि प्रत्यग्रूप और आनन्दपूर्ण की माननीय सम्पत्ति में उम्बेक ने श्लोकवार्तिका की व्याख्या लिखी थी । अतएव उस व्याख्या की पौढ़ता तथा सारगर्भिता के कारण गुणरत्न ने उम्बेक को कारिका श्लोकवार्तिका का अच्छा जानने वाला बतलाया है। 

पूर्वोक्त उद्धरणों को सम्मिलित करने से वही सिद्धांत समुचित जान पड़ता है कि महाकवि भवभूति का दूसरा नाम उम्बेक था वह ये कुमारिल भट्ट के शिष्य थे और अपने पूज्य गुरु के श्लोकवार्तिका के उपर व्याख्या लिखी भी लिखी थी । संस्कृत साहित्य के लिए यह बातें बड़े महत्व की है । अब तक भवभूति की प्रसंशा एक नाटककार की दृष्टि से की जाती थी , परन्तु अब हमें मीमांसक की दृष्टि से भी भवभूति का अध्ययन करना चाहिए । पूर्वोक्त निर्देशों से भवभूति की श्लोकवार्तिका की टीका नितांत लोकप्रिय जान पड़ती है भवभूति के मीमांसक होने की बात सर्वथा सत्य है मण्डन मिश्र के भावनाविवेक पर भी उम्बेक ने टीका लिखी थी । यह टीका काशी से सरस्वती भवन सीरीज में निकली है । भावनाविवेक मीमांसा का प्रौढ़ ग्रंथ है जिसके व्याख्याता होने से उम्बेक भवभूति का मीमानसक होना सर्वथा उचित प्रतीत होता है । 

जय श्री कृष्ण 
दीपक कुमार द्विवेदी

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