जगतगुरु शंकराचार्य और कुमारिल भट्ट का मिलन का प्रसंग भाग ४.५


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कुमारिल और शंकराचार्य की भेंट - 

भट्ट कुमारिल के व्यापक पाण्डित्य से लाभ उठाने के लिए तथा उनके अनुभव का पर्याप्त उपयोग करने के लिए आचार्य शंकर बड़े उत्सुक थे । ब्रहासूत्र के उपर भाष्य की रचना कर चुके थे । उनकी बड़ी इच्छा थी कि कोई विशिष्ट विद्वान इस भाष्य के उपर विस्तृत वार्तिका लिखता । उधर कुमारिल वार्तिका लिखने की कला में सिद्धहस्त थे । शबर भाष्य पर दो वार्तिका - श्लोकवारवतिका और तन्त्रवार्तिका लिखकर उन्होंने विद्वता की धाक पण्डित समाज के उपर जमा दी थी तथा इसी कारण वे वार्तिकार के नाम से मीमांसा दर्शन के इतिहास में प्रसिद्ध थे । आचार्य शंकर इसी उद्देश्य की पूर्ति के 

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यह प्रत्येक ग्रंथ में कुछ भिन्न ही मिलता है । प्रत्यग्रूप भगवान ने उम्बक तथा उम्बेक दोनों लिखा है । बोधधन ने उम्बेक , आनंदपूर्ण तथा गुणरत्न ने ओम्बेक लिखा है। मालती माधव की प्रति में उम्बेक मिलता है । इन सबसे उम्बेक शब्द की ही सत्यता सिद्ध होती है । लेखक के प्रसाद से अन्य रूपों को उत्पत्ति सहज में समझी जा सकती हैं इस ग्रंथ का एक अंश मद्रास विश्वविद्यालय ने प्रकाशित किया है । 

लिए अपनी शिष्य मण्डली के साथ उत्तर काशी से प्रयाग की ओर । शिष्यों के साथ वे त्रिवेणी के तट पर पहुंचे , परन्तु उन्हें यह जानकर अत्यंत खेद हुआ । कि जिस विद्वान से भेट करने तथा सहायता प्राप्त करने के लिए उन्होंने इतना दुर्गम मार्ग तय किया था वे कुमारिल त्रिवेणी के तट पर तुषानल (भूसे की आग) में अपना शरीर जला रहे हैं । इतने बड़े मीमासंक को इस प्रकार शरीरपात करते देख उन्हें आश्चर्य हुआ । भेट करने के लिए शीघ्रता से वे त्रिवेणी के तट पर पहुंचकर क्या देखते हैं कि कुमारिल के शरीर का निचला भाग तुषानल में जल गया है । परन्तु उनके मुख के उपर वहीं विलक्षण शान्ति विराजमान हैं उनके देखकर ऐसा मालूम होता था कि सुन्दर कमल ओस की बुंदों से ढका हुआ है । उनकी शिष्य मण्डली चारों ओर से उन्हें घेरे खड़ी थी और उनकी आंखो से गुरू की इस महायात्रा के कारण आंसुओं की झड़ी लगी हुई थी । वैदिक धर्म के इन महान उद्धारकों का त्रिवेणी के पवित्र तट पर यह पर यह अपूर्व सम्मेलन हुआ जो वैदिक धर्म के अभ्युदय के लिए ऐतिहासिक महत्व रखता है । 

कुमारिल भट्ट ने शंकर का वृत्तांत पहले से सुना रखा था परन्तु उन्हें अपनी आंखों से देखने का सौभाग्य नहीं प्राप्त हुआ था । अतः अकस्मात शंकर को अपने सामने देखकर वे नितान्त प्रसन्न हुए और शिष्यों से उनकी पूजा करवायी । भिक्षा ग्रहण करने पर शंकर ने अपना भाष्य कुमारिल को दिखलाया जिसे देखकर उन्होंने उस ग्रंथ की बड़ी प्रशंसा की । कुमारिल ने कहा कि ग्रंथ के आरंभ में अध्यात्म भाष्य में आठ हजार वार्तिका सुशोभित हो रहे हैं । यदि मैं इस तुषानल में जलने की दीक्षा लिए नहीं रहता तो अवश्य इस सुंदर ग्रंथ को बनाता । तब शंकर ने इस प्रकार शरीरपात करने का कारण पूछा । कुमारिल ने उत्तर ऊं मै ने दो बड़े पातक किए हैं जिसमें परिशोध के लिए मैं यह प्रायश्चित कर रहा हूं पहला पातक है अपने बौद्ध गुरु का तिरस्कार , और दूसरा पातक है जगत कर्ता ईश्वर का खण्डन जिससे मुझे बौद्धो के आगमो के रहस्य का पता चला उसी गुरु का मैंने वैदिक धर्म के अभ्युत्थान के लिए भरी सभा में पंडितों के सामने तिरस्कार किया , यही हमारा पहला पातक है । दूसरा पातक जैमिनीय मत की रक्षा के लिए ईश्वर का खण्डन है जिसे मैंने स्थान स्थान पर किया है । लोगों की यह भ्रान्त धारणा है कि मीमांसा दर्शन ईश्वर का तिरस्कार करता है परन्तु वस्तुस्थिति ठीक इससे उल्टी है । मीमांसा दर्शन ईश्वर का तिरस्कार करता है परन्तु वस्तुस्थिति ठीक इससे उल्टी है । मीमांसा का प्रधान उद्देश्य है कर्म की प्रथानता दिखलाना । इसी को दिख लाने के लिए मैंने जगत् के कर्ता तथा कर्म फल दाता ईश्वर
 
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माधव ,चिद्विलास तथा सदानंद ने त्रिवेणी तट को ही शंकर और कुमारिल के मिलन का स्थान बतलाया है । परन्तु आनन्दगिरि ने इस स्थान को रूद्वनगर माना है । पता नहीं यह स्थान कहां है । द्रष्टव्य आनन्दगिरि शंकर विजय पृ० १८० -८१ 

धूमायमानेन तुषानलेन संदहामानऽपि वपुष्यशेषे । 
संदश्यमानेने मुखेन वाष्प परीतपद्यश्रियमादधानम ।। शं० दि० ७/७८ 

अष्टो सहस्त्राणि विभान्ति विद्वन ! सद्वार्तिकानां पथमेऽत्र भाष्ये । 
अहं यदि स्याम गृहीतदीक्षो ध्रुव विधास्ये सुनिबन्धमस्य । शं० दि० ७/८३ 

का खण्डन किया है । परन्तु ईश्वर में मेरी पूरी आस्था है । मेरे पहले भर्तृमित्र नामक मीमानसक ने विचित्र व्याख्या कर मीमांसा शास्त्र को चार्वाक मत के समान नास्तिक बनाने का अवश्य उद्योग किया था । परन्तु मैंने ही अपने ग्रंथों के द्वारा मीमांसक को आस्तिक मार्ग में ले जाने का सफल प्रयत्न किया है । परन्तु कर्म की प्रधानता सिद्ध करने के लिए ईश्वर के खण्डन का अपराधी अवश्य हूं । इन्हीं दोनों अपराधो से मुक्ति पाने के लिए में प्रायश्चित कर रहा हूं आपने भाष्य बनाया है ,इसे मैंने सुन रखा है । उस पर वृति बनाकर मुझे यश पाने की कामना है परन्तु जो व्रत मैंने ग्रहण कर लिया है , उस व्रत का निबाहना भी लोकदृष्टि से मेरा परम कर्तव्य है।  

इस पर शंकराचार्य ने कहा - आपने पवित्र चरित्र में पातक की संभावना तानिक भी नहीं है । आप यह सत्यव्रत सज्जनों को दिखलाने के लिए कर रहे हैं । यदि आप आज्ञा दें तो मैं कतिपय जलबिन्दुओ को छिड़क आपको जीवित कर सकता हूं इन वचनों सुनकर तथा शंकर के विचित्र प्रभाव को देखकर भट्ट कुमारिल बड़े प्रभावित हुए और अपने भावो को प्रगट करते हुए बोले कि विद्वान ! मैं जानता हूं कि मैं अपराधहीन हू वैदिक धर्म के प्रचार के लिए मुझे निषिद्ध कार्य अवश्य करने पड़े । परन्तु मेरी अन्तरात्मा शुद्ध थी । मेरे भाव दोषहीन थे लोक शिक्षण के लिए प्रायश्चित का अनुष्ठान कर रहा हूं अंगीकृत व्रत को मैं नहीं छोड़ सकता। वेदांत मार्ग के प्रकाशन तथा प्रचार के आप मेरे पट्ट शिष्य  

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कुमारिल निराशावादी नहीं थे । इसका एक प्रबल प्रमाण यह भी है कि उन्होंने अपने श्लोकवारवतिका के आरंभ में ईश्वर की स्तुति की है 

विशुद्वज्ञानदेहाय त्रिवेदीदिव्य चक्षुषे । 
श्रेय प्राप्तिनिमिता्य नम: सोमार्धधारिणो ।। श्लो ० वा० १। 

भर्तृमित्र के नाम का उल्लेख श्लोकवार्तिका की टीका में पार्थसारथि मिश्र ने इस प्रकार किया है: 
प्रायेणैव हि मीमांसा लोके लोकायतीकृत । 
तामास्तिकपथे नेतु अयं यत्नो कृतो मया ।। श्लोकवार्तिका 
१/१० 
मीमांसा हि भतृमित्रदिभि अलोकाकायतैव सती लोकायतीकृता । नित्यनिषिद्वयोरिष्टानिष्टाफलं नास्ति इत्यादि बह्रपसिद्वपरिग्रहेण ( टीका पूर्व श्लोक की ) 
तदेवमित्थं सुगतादधीत्य प्राघातंय तत्कुलमेव पूर्वम । 
जैमिन्युऽभिनिविष्टा चेता: शास्त्र निरास्थ परमेश्वर च। । 
दोषद्वयस्यास्य चिकीर्षुरर्हन यथोदिता निष्कृतिमाश्रयाशम । 
प्राविक्षमेषा पुनरुक्ताभूता, जाता भवत्पादनिरीक्षणेन ,।। श० दि० ७/१०१-१०२ । 

जाने तवांह भगवान प्रभाव संहत्य भूतानि पुनर्यथावत् । 
स्त्रष्टु समर्थोऽसि तथाविधो मामऽजीलयेश्वेदिह कि विचित्रम । 
नाभ्युत्सहे किन्तु यतिक्षितीन्द्र संकपित हातुमिदं ब्रताग्रयम 
- शंकर दिग्विजय ७/११/११२ । 

मण्डन मिश्र को इस मार्ग में दीक्षित कीजिए । मुझे पूरा विश्वास है कि इस पण्डित शिरोमणि की सहायता से आपकी अद्वैत वैजयंती इस भारतवर्ष में निश्चित ही फहरायेगी । 
शंकर ने इस सम्मति को मान लिया और इस प्रकार दो महापुरुषों का अनुपम सम्मेलन समाप्त हुआ। 

जय श्री कृष्ण 
दीपक कुमार द्विवेदी

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