जगतगुरु आदि शंकराचार्य जी और मण्डन मिश्र का प्रसंग भाग ५.१



                                     ॐ

भारती - मण्डन मिश्र की विदुषी स्री - मण्डन मिश्र की स्री का नाम भारती था ।यह बड़ी विदुषी स्री थी । इसका व्यक्तिगत नाम अम्बा था या उम्बा था । परन्तु शास्त्रों में अत्यंत निपुण होने कारण यह भारती , उभयभारती या शारदा के नाम से प्रसिद्ध थी । यह शोणनद के किनारे रहनेवाले विष्णु मित्र नामक ब्राह्मण की कन्या थी । मण्डन मिश्र ब्रह्मा जी के अवतार माने जाते थे और उनकी स्त्री सरस्वती का अवतार समझी जाती थी ‌ । भारती अपनी विद्वत्ता के कारण सर्वत्र प्रसिद्ध थी । जब शंकर और मण्डन मिश्र का ऐतिहासिक शास्त्रार्थ प्रारंभ होनेवाला था तब इस शास्त्रार्थ में मध्यस्थ कौन बनाया जाय? यह समास्या विद्वानों के सामने उपस्थित हो गयी । वे लोग भारती की विद्वता से पूर्ण रूप से परिचित थे अतः समास्या को सुलझाने में इन्हें अधिक विलम्ब नहीं करना पड़ा और सर्वसम्मति से शारदा मध्यस्थ चुन ली गयी । इस एक घटना से भारती की विद्वता का अनुमान किया जा सकता है। उसने मध्यस्थता का काम बड़ी योग्यता से निभाया और अपने पति को परास्त होते देखकर भी पक्षपात की आंच नहीं लगने दी। पूज्य पतिदेव के शास्त्रार्थ में पराजित हो जाने पर उसने अपने पति के विजेता शंकर को स्वयं शास्त्रार्थ करने के लिए ललकारा और कामशास्त्र के उपर ऐसे गूढ़ प्रश्न शंकर से किए जिनसे वे निरूतर हो गए । शंकर ने अपनी पराजय स्वीकार किया । इस प्रकार इस विदुषी पत्नी ने विजेता शंकर को भी परास्त कर संसार में यश प्राप्त किया ‌ इस प्रकार इस विदुषी पत्नी ने विजेता शंकर को भी परास्त कर संसार में यश ही नहीं प्राप्त किया, बल्कि पति की पराजय का बदला भी चुका लिया । धन्य है ऐसी विदुषी स्त्री 

मण्डन के ग्रंथ - इन्होंने मींमसा तथा अद्वैत वेदांत से विद्वतापूर्ण ग्रंथ लिखे हैं । ये मींमसा प्रतिपादक ग्रंथ मींमसा दर्शन में विशेष स्थान रखते हैं - 

१ )विधि विवेक - इस ग्रंथ में विध्यर्थ का विचार किया गया है। 

२ )भावना विवेक - इस ग्रंथ में आर्थी भावना की मीमांसा बड़े विस्तार के साथ की गई है । 
३)विभ्रम विवेक - इस ग्रंथ में पांचो सुप्रसिद्ध ख्वातियो की व्याख्या की गई है 
४) मीमांसा सूत्रनुक्रमणी - इसमें मीमांसा सूत्रों का श्लोक बन्द्व संक्षेप व्याख्यान 

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 बाबू राजेन्द्रनाथ घोष ने अपनी बंगला पुस्तक शंकर ओ रामानुज में लिखा है कि मैं इस स्थान को देखने गया था मिट्टी खोदकर देखा तो भस्म के समान जली हुई धूसरी मिट्टी मिली जिससे अनुमान होता है कि इस स्थान का नाम विज्जिली बिन्दु बतलाया है ( पृ० २८२ परन्तु इस स्थान स्थिति की वर्तमान स्थिति का पता नहीं चलता।  

किया गया है विचस्पाति ने प्रथम ग्रंथ की टीका न्याय कणिका की तथा शबदबोध विषयक तत्वबिन्दु की  रचना की है । 

इनके अद्वैत प्रतिपादक ग्रंथ अद्वैत दर्शन में विशेष स्थान रखते हैं । वे अद्वैत परक ग्रंथ है -(१) स्फोट सिद्वि - यह स्फोट विषयक ग्रंथ है । (२) इनकी ब्रह्रासिद्वि शंखपणि की टीका के साथ मद्रास से अभी प्रकाशित हुई है । अन्य व्याख्याएं ब्रहातत्व समीक्षा वाचस्पति की अभिप्रायप्रकाशिका चित्सुख की तथा भावशूद्वि आनन्दपूर्ण ( विद्यासागर ) की है । वाचस्पति की सबसे प्राचीन व्याख्या अभी तक कही उपलब्ध नहीं हुई है
। मण्डन भतृहरि के शब्दाद्ववाद के समर्थक थे । 

इस प्रकार मण्डन मिश्र कर्मकाण्ड में नितान्त निष्णात तथा कर्ममींमसा के तत्कालीन सर्वेश्रेष्ठ पण्डित थे । इन्हीं की सहायता प्राप्त करने के लिए भट्ट कुमारिल ने शंकराचार्य को आदेश दिया था। इसी आदेश को मानकर शंकर अपनी शिष्यमंडली के साथ प्रयाग से चलकर कई दिनों तक के बाद महिष्मति नगरी पहुंचे माहिष्मती नगरी उस समय की नागरियो में विशेष विख्यात थी। नर्मदा के किनारे इस नगरी के भव्य भवन आकाश में अपना सिर उठाए इसकी श्रेष्ठता प्रगट कर रहे थे । आचार्य ने नर्मदा के तीर पर एक रमणीय शिवालय में अपने शिष्यों को विश्राम करने की अनुमति दी और अपने उद्देश्य की सिद्धि के लिए - मण्डन मिश्र से मिलने के लिए चल पड़े । दोपहर की वेला थी , माथे पर कलशी रखकर पनघट की ओर आनेवाली पनिहारियों को रास्ते में देखा । शंकर ने उन्हीं से मण्डन मिश्र के घर का पता पूछा वे अनायास बोल उठी कि आप आगंतुक प्रतीत हो रहे हैं, अन्यथा ऐसा कौन व्यक्ति  हैं जो पण्डित समाज के मण्डनभूत मीमांसाकमूर्धन्य मण्डन मिश्र को नहीं जानता ! लीजिए मैं उनके घर का परिचय आपको बताए देता हूं । जिस द्वार पर पिंजड़े में बैठी सारिकाएं आपस में विचार करती हो कि यह जगत ध्रुव ( नित्य ) है अध्रुव  ( अनित्य ) वेद स्वत: प्रमाण है या परत प्रमाण है वेद का तात्पर्य सिद्ध वस्तु के प्रतिपादन में अथवा साध्य वस्तु के उसे ही आप मण्डन मिश्र का धाम जानिए  

जगद् ध्रुवा स्यात् जगदध्रुवा स्यात कीराड़़ना यत्र गिंर गिरन्ति । 
द्वारस्थ - नीडान्तर सन्निरूद्वा जानीहि तन्मण्डनपण्डितौक: ।। 
स्वत: प्रमाण परत: प्रमाणं कीराडना।    यत्र गिरि     गिरन्ति ।
द्वारस्थ नीडान्तर सन्निरूद्वा जानीहि तन्मण्डनपण्डितौक: ।।   

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सारिकाओ के विवाद का विषय जगत की नित्यता और अनित्यता का है । जगत के स्वरूप के विषय में मीमांसा और वेदांत के विचार भिन्न भिन्न है। कुमारिल भट्ट के अनुयायी मींमांसक की सम्मति में यह जगत  नित्य है । परन्तु वेदान्तियों के मत से यह नितांत कल्पित है । स्वयं प्रमाणभूत मानते हैं। वेद अपौरुषेय ( बिना किसी पुरुष के द्वारा रचे गए ) वाक्य है अतः उनकी प्रमाणिकता सिद्ध करने के लिए किसी दूसरे प्रमाण की आवश्यकता नहीं है । ठीक इसके विपरीत नैयायिको का मत है जो वेद को पौरूषेय मानकर इसकी प्रामाणिकता स्वाभाविक रूप से न मानकर बाहरी रूप से परत मानते हैं ।  

आचार्य शंकर यह वर्णन सुनकर अत्यंत चमत्कृत हुए। सचमुच वह व्यक्ति मीमांसा का परम विद्वान होगा जिसके द्वार पर पिंजड़े में बैठी हुई सारिकाएं मीमांसा के सिद्धांतों की युक्तिमता के विषय में एक आपस में इस प्रकार से बातचीत करती हो । 

इस वर्णन को सुनकर आचार्य आगे बढ़े और ठीक मण्डन मिश्र के प्रसाद के द्वार पर जाकर खड़े हो गए । वहां उन्होंने देखा दरवाजा बंद पाया । तब उन्होंने द्वारपालो से पूछा कि तुम्हारे स्वामी कहा है तथा द्वार का फाटक बंद होने का क्या कारण है? द्वारपालो ने उत्तर दिया कि हमारे स्वामी महल के भीतर है तथा आज अपने पिता का श्राद्ध कर रहे हैं। उन्होंने भीतर किसी को जाने देने के लिए निषिद्ध कर रखा है। अतः हम लोग ने यह फाटक बन्द कर किया है। यह सुनकर शंकर चिंतित हुए क्योंकि उनकी उत्कण्ठा मण्डन मिश्र से मिलने की अत्यंत उत्कट थी । कहा जाता है कि उन्होंने आकाश मार्ग से होकर मण्डन के प्रांगण में प्रवेश प्राप्त कर लिया । वहां पर व्यास और जैमिनी आमंत्रित होकर पहले से विद्यमान थे । श्राद्ध में संन्यासी का आना बुरा समझा जाता है । अतः ऐसे समय में एक संन्यासी को आंगन में आया देख मण्डन को अत्यंत क्रोध हुआ । परन्तु व्यास और जैमिनी अनुरोध से किसी प्रकार क्रोध शान्त हुआ। शंकर ने अपना परिचय मण्डन मिश्र को दिया । और अपने आने का कारण बतलाया । मण्डन  मिश्र शास्त्रार्थ में बड़े कुशल व्यक्ति थे । आपने  पक्ष के समर्थन का यह अयाचित सुवर्ण अवसर पाकर वे नितान्त प्रसन्न हुए और दूसरे दिन प्रातःकाल शास्त्रार्थ निश्चित किया गया गया। परन्तु सबसे विकट प्रश्न था । मध्यस्थ का बिना मध्यस्थ के शास्त्रार्थ में निर्णय का पता नहीं चलता नहीं चलता। मण्डन ने जैमिनी को ही मध्यस्थ बनाने की प्रार्थना की परन्तु जैमिनी ने स्वयं मध्यस्थ होना स्वीकार न किया और मण्डन मिश्र की विदुषी पत्नी को इस गौरवपूर्ण पद के लिए उपयुक्त बतलाया । इस निर्णय को वादी और प्रतिवादी दोनों ने स्वीकार कर लिया और दूसरे दिन प्रातःकाल भारती की मध्यस्थता में शास्त्रार्थ होना निश्चित हुआ । 

जय श्री कृष्ण
दीपक कुमार द्विवेदी

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