जगतगुरु आदि शंकराचार्य जी और मण्डन मिश्र का प्रसंग भाग ५.३


                                     ॐ



मध्याह्न में कुछ समय के लिए शास्त्रार्थ में विराम होता था जब दोनों व्यक्ति अपने भोजन करने के लिए जाते थे । इस प्रकार शास्त्रार्थ कई दिनों तक चलता रहा । शारदा को स्वयं अपने घर का काम काज देखना था । इसलिए उसने दोनों पण्डितो की गर्दन में माला डाल दी और यह घोषित कर दिया कि जिसकी माला मलिन पड़ जाएगी वह शास्त्रार्थ में पराजित समझा जाएगा शास्त्रार्थ में किसी प्रकार की कटुता न थी । दोनों - शंकर और मण्डन समभाव से अपने आसन पर बैठे रहते थे । उसके ओठो पर मन्दस्मित की रेखा झलकती थी, मुख मण्डल विकसित था , न तो शरीर में पसीना होता था और न कम्प न वे आकाश ओर देखते थे बल्कि सावधान मन से एक दूसरे के प्रश्नों का उत्तर बड़ी प्रगल्भता से देते थे । निरूतर होने पर वे क्रोध से वाक्छल का प्रयोग न करते थे । इस प्रकार अनेक दिन व्यतीत हो गए। अन्ततोगत्वा तत्वमसि महावाक्य को लेकर निर्णायक शास्त्रार्थ छिड़ा । इस शास्त्रार्थ का वर्णन शंकर दिग्विजय के लेखकों ने बड़े विस्तार के साथ दिया है। यहां पर इसी शास्त्रार्थ का सारांश पाठकों के मनोरंजन के लिए दिया जाता है । 

मण्डन मिश्र मीमांसा के अनुयायी होने कारण द्वैतवादी थे इधर शंकर वेदान्ती होने कारण अद्वैत के प्रतिपादक थे । मण्डन का आग्रह था समस्त उपनिषद द्वैतपरक है । और आचार्य शंकर का अनुरोध था कि उपनिषद अद्वैत का वर्णन करते हैं । दोनों ने अपने सिद्धांतों के प्रतिपादन में बड़े बड़े अनूठे तर्को का प्रयोग किया । मण्डन मिश्र का पूर्व पक्ष है कि जीव ब्रह्म की अभिन्नता कथमपि सिद्ध नहीं हो सकती , क्योंकि यह अभिन्नता तीनों प्रमाणों से बाधित है - (१) प्रत्यक्ष (२) अनुमान से और (३) श्रुति से । 
 
मण्डन तत्वमसि ( जीव ही ब्रह्म है ) वाक्य से आत्मा और परमात्मा की एकता कैसे मानी जा सकती हैं क्योंकि इस एकता का न तो प्रत्यक्ष ज्ञान है और न अनुमान ही होता है प्रत्यक्ष को अभदेवाद का महान विरोधी है क्योंकि यह तो प्रत्येक व्यक्ति का प्रतिपादन का अनुभव है कि मैं ईश्वर नहीं हूं अतः प्रत्यक्ष विदेशी होने कारण से इस वाक्य का प्रयोजन जीव ब्रह्म की एकता सिद्ध करने में नहीं है । 

शंकर - यह मत ठीक नहीं , क्योंकि इन्द्रियों के द्वारा जीव परमात्मा में भेद का ज्ञान कभी नहीं होता । प्रत्यक्ष का ज्ञान विषय में इन्द्रिय के सन्निकर्ष के उपर अवलम्बित रहता है । इन्द्रियों का ईश्वर के साथ तो कभी सन्निकर्ष होता नहीं तब विरोध का प्रसंग कहा ? 

मण्डन - जीव अल्पज्ञ है और ब्रह्म सर्वज्ञ ,इस बात में तो किसी को सन्देह नहीं है तब भला अल्पज्ञ और सर्वज्ञ की एकता मानना प्रत्यक्ष रूप से अनुचित है ! 

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अन्योन्यमुतमखण्ड प्रगल्भं ।। 
बद्वासनौ स्मितविकासिमुखारविन्दौ ।। 

न स्वदकम्पगगनेक्षणशालिनौ वा , 
न क्रोधवाक्यछलमवादि निरूतराभ्याम ।। श०दि ०८/७३ 
प्रत्यक्षमात्मेश्वरयोविद्या मायायुजोद्योतयति प्रभेदम । 
श्रुतिस्तयो : केवलयोर भेद भिन्नाश्रयत्वान्न तयोविरोध: ।। 
शं ० दि ० ८/१०० ।

आदि के द्वारा न प्रगट किए गए अर्थ को प्रगट करें । 

शंकर इसी सिद्धांत में अपनी त्रुटि है । प्रत्यक्ष तथा श्रुति में कोई भी भी विरोध नहीं हो सकता है क्योंकि दोनों के अश्रय भिन्न भिन्न है । प्रत्यक्ष प्रमाण अविद्या से युक्त होनेवाले जीव में और माया से युक्त होनेवाले ईश्वर में भेद दिखलाया है। उधर श्रुति में (तत्वमसि यह उपनिषद वाक्य) अविद्या और माया से रहित शुद्ध चैतन्य रूप आत्मा और ब्रह्म में अभेद दिखलाती है । इस प्रकार प्रत्यक्ष का आश्रय कलुषित जीव और ईश्वर है । और श्रुति का आश्रय विशुद्ध आत्मा और ब्रह्म है । एक अश्रय कलुषित जीव और ईश्वर है और श्रुति का आश्रय विशुद्ध आत्मा और ब्रह्म है। एक आश्रय में विरोध होता है । भिन्न आश्रय होने से यहां तो किसी प्रकार का विरोध न होने से उसका तिरस्कार कथमपि नहीं किया जा सकता। 

मण्डन - है यतिराज । प्रत्यक्ष का तो आपने खण्डन कर दिया पर अनुमान अभेद श्रुति को बाधित कर रहा है। जीव सर्वज्ञ नहीं है । अतः वह ब्रह्म से उसी प्रकार से भिन्न है जिस प्रकार सर्वज्ञ न होने के कारण से साधरण घट ब्रह्म से भिन्न होता है । यही अनुमान जीव और ब्रह्म की एकता को असिद्ध बतलाने के लिए पर्याप्त माना जा सकता है। 

शंकर - पहले यह तो बतालाइये कि जीव और ब्रह्म में जिस भेद को आप सिद्ध कर रहे हैं वह पारमार्थिक है । या काल्पनिक असत्य? यदि यह भेद बिल्कुल सत्य है तब तो आपका दिया हुआ दृष्टान्त ठीक नहीं जमता और यदि काल्पनिक है तो उसे हम स्वीकार करते ही हैं उसे सिद्ध करने के लिए प्रमाणो की आवश्यकता ही क्या है। ?

मण्डन - अच्छी बात है । मेरा अनुमान भले ही ठीक न हो परन्तु भेद प्रतिपादन करने वाली श्रुतियो के साथ तत्वमसि श्रुति का विरोध इतना स्पष्ट है कि अद्वैतवाद श्रुति का तात्पर्य कभी नहीं माना जा सकता । भला आपने कभी मंत्र के तथ्य पर विचार किया है ? 

द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्ष परिषस्वजाते ।
तयोरन्य : पिप्पलं स्वाद्वति अनश्यनन्यो अभिचाकशीति ।

यह मंत्र स्पष्ट ही जीव और ईश्वर में भेद प्रगट करता है क्योंकि जीव कर्मफल का भोक्ता है कि ईश्वर कर्म फल से तनिक संबंध नहीं रखता। 

शंकर जीव और ब्रह्म का यह भेद प्रतिपादन बिल्कुल निष्फल है क्योंकि इस ज्ञान से न तो स्वर्ग की प्राप्ति हो सकती है और न अपवर्ग की । इस भेद को निष्फल होने पर भी हम मानने को उद्यत है परन्तु पूर्व निर्दिष्ट श्रुति वाक्य में बुद्धि और पुरूष का भेद दिखलाया गया है , न कि जीव और ईश्वर का। श्रुति का कहना है कि कर्मफल की भोगनेवाली बुद्धि है । पुरूष उससे बिल्कुल भिन्न है । इसलिए उसे सुख दुःख के भोगने का फलाफल कथमपि प्राप्त नहीं होता ।  

मण्डन - इस नवीन अर्थ का मै विरोध करता हूं क्योंकि बुद्धि तो जड़ है उधर भोक्ता चेतन पदार्थ होता है, जड़ पदार्थ नहीं। ऐसी दशा में पूर्व मंन्त्र बुद्धि जैसे जड़ पदार्थ को भोक्ता 

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यह सुप्रसिद्ध मंत्र ऋग्वेद १/१६४/२० अथर्ववेद १/१/२०/ तथा मुण्डक उपनिषद २/१ में आया है। 

बतलाता है,इस बात का कोई भी विद्वान मानने के लिए तैयार नहीं होगा अतः उक्त श्रुति का अभिप्राय जीव और ईश्वर के भेद दिखलाने में ही है । 

शंकर - आपका आक्षेप ठीक नहीं। क्योंकि पैड्ग्य रहस्य नामक ब्राह्मण ग्रन्थ में स्पष्ट ही लिखा है कि बुद्धि ( सत्व) कर्मफल को भोगती है और जीव केवल साक्षी मात्र रहता है । जब ब्रह्माण ग्रन्थो की यह व्याख्या है तो स्पष्ट ही उक्त वाक्य का अभिप्राय बुद्धि और जीव की भिन्नता दिखालाने में ही है । 

मण्डन - ब्राह्मण वाक्य का अर्थ तो यह है कि जिसके द्वारा स्वप्न देखा जाता है वह सत्व है और जो शरीर में रहते हुए साक्षी हो क्षेत्रज्ञ है। परन्तु इस अर्थ का ध्यान न देकर मीमांसा का कहना है कि सत्व शब्द का अर्थ स्वप्न और दर्शन क्रिया का करनेवाला जीव है और क्षेत्रज्ञ का अर्थ स्वप्न का देखने वाला सर्वज्ञ ईश्वर है । 

शंकर - यह अर्थ कभी नहीं हो सकता । सत्व दर्शन का कर्ता नहीं बल्कि करण है। अर्थात इस पद का अर्थ जीव न होकर बुद्धि है । और क्षेत्रज्ञ के साथ शरीर का विशेषण होने के कारण इस पद का अर्थ जीव है जो शरीर में निवास करता है, ईश्वर नहीं  

मण्डन -अच्छी बात है । इस श्रुति को छोड़िए । कठोपनिषद की इस प्रसिद्धि श्रुति पर विचार कीजिए , जो जीव और ईश्वर में उसी प्रकार स्पष्ट भेद स्वीकार करती है जिस प्रकार भेद छाया तथा आतप में है  

ऋत पिबन्तौ सुकृतस्य लोके गुहा प्रविष्टौ परमे परार्धे । 
छायातपो ब्रह्राविदो वदन्ति पञ्चग्नायो ये च त्रिणाचिकेता ।। कठ १/३/१ 

शंकर - बहुत ठीक । परन्तु यह भी श्रुति मेरे अद्वैत सिद्धांत में बाधा नहीं पहुंचाती । यह तो लोक सिद्ध भेद का प्रतिपादन मात्र करती है जो लोक में सिद्व नहीं देख पड़ता । अतः वह अधिक बलवान है । भेद तो जगत में सर्वत्र दिखलाई पड़ता है अतः उसे सिद्ध करने के लिए श्रुति कथमपि प्रयास नहीं कर सकती । क्योंकि श्रुति सदा अपूर्व वस्तु के वर्णन में निरत रहा करती है । यह अपूर्व वस्तु अभेद का प्रतिपादन है न भेद का वर्णन। 

मण्डन - हे यतिराज ! मेरी बुद्धि में तो भेद प्रतिपादन करनेवाली श्रुति दोनों में बलवती है । क्योंकि वही अन्य प्रमाणो के द्वारा पुष्ट की जाती है । 

शंकर - श्रुतियो के बलाबल के विषय में अपने भली प्रकार से विचार नहीं किया है । उनकी प्रबलता के विषय में यह सिद्धांत है कि दूसरे प्रमाणों के द्वारा कोई श्रुति पुष्ट की जाती है तो वह प्रबल नहीं हो सकती क्योंकि उन प्रमाणो के द्वारा अर्थ के अभिव्यक्त हो जाने के कारण वह श्रुति अत्यन्त दुर्बल मानी जाती है। प्रबल श्रुति तो वह है जो प्रत्यक्ष तथा अनुमान 

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तयोरन्य पिप्पल स्वाद्वति इति सत्वा अनश्यनन्यो आभिचाशीति इति अनश्नन् अन्य: अभिपश्यति ज्ञस्तावेती इति पैड्गरहस्य ब्राह्मण तथा च - तदेतत्सत्वा येन स्वप्न पश्यति अथ योऽय शारीरं सक्षेत्रज्ञ : तावेते सत्वक्षेत्रज्ञो - वहीं 

आदि के द्वारा न प्रगट किए गए अर्थ को प्रगट करे। पदार्थों की परस्पर विभिन्नता - जिसको आप इतने अभिनिवेश के साथ सिद्ध कर रहे हैं - जगत में सर्वत्र दीख पड़ती है । अतः उसको प्रतिपादन करनेवाली श्रुति दुर्बल होगी । अभेद तो जगत में कही नहीं दिखाई पड़ता ‌ । अतः उसको वर्णन करनेवाली श्रुति पूर्व की अपेक्षा प्रबलतर होगी । इस कसौटी पर कसे जाने से तत्वमसि का अभेद प्रतिपादन ही श्रुति का प्रतिपाद्य विषय प्रतीत होता है अतः एक वाक्य का अर्थ जीव है ब्रह्म और ब्रह्म की एकता में है जिसका विरोध न तो प्रत्यक्ष से है न अनुमान से और न श्रुति से ।  

प्राबल्यमापादयति श्रुतीनां मनान्तर नैव बुधाग्रयायिन । 
गतार्थतादानमुखेन तासा दौर्बल्य सप्पादकमेव किन्तु।। शं०दि० ८/१३ 

बस , इस युक्ति सुनकर मण्डन मिश्र चुप होकर निरूतर हो गए । उनके गले की माला मलिन पड़ गयी । तुहिनपात से मुरझाए हुए कमल की तरह मण्डन का ब्रह्मतेज से चमकता हुआ चेहरा उदासीन पड़ गया । मीमांसा की विजय वैजयंती फहराने की उत्कट लालसा को अपने हृदय में छिपाए हुए मण्डन मिश्र जिस अवसर की प्रतिक्षा कर रहे थे वह अवसर आया। उन्होंने उसे उपयोग करने का प्रयत्न भी किया परन्तु उसमें सफलता न प्राप्त न कर सके अलौकिक प्रतिभा संपन्न शंकर के सामने उन्हें अपना पराजय स्वीकार करना पड़ा । पण्डित मण्डली में सहस खलबली मच गयी । उन्हें इस बात की स्वप्न में भी आशंका नहीं थी कि परन्तु आज आश्चर्य भरे नेत्रों से उन्होंने देखा कि माहिष्मती की जनता के सामने मीमांसका मूर्धन्य मण्डन का उन्नत मस्तक अनवत हो गया है। मध्यस्थ शारदा पति के भावी संन्यास ग्रहण के कारण खिन्न होकर भी अपने कर्तव्य से च्यूत नहीं हुई और शंकर की विजय पर अपनी स्वीकृति की मुहर लगा दी । इस प्रकार शंकर ने अपने सर्व प्रथम शास्त्रार्थ में पण्डितो के शिरोमणि मण्डन मिश्र को पराजित कर विद्वन्मण्डली में अपने पाण्डित्य का प्रभाव जमाया। 

कर्म मीमांसा की यथार्थता -शंकराचार्य के द्वारा इस प्रकार पराजित होने पर मण्डन मिश्र को दुख तो अवश्य हुआ परन्तु उससे भी अधिक दुःख उनको इस बात से हुआ कि महर्षि जैमिनी के सिद्धांत कर्म की कसौटी पर कसे जाने से अत्यन्त नि :सार और दुर्बल प्रतीत हुए । उन्होंने कभी विश्वास न था कि आर्ष दृष्टि से युक्त जैमिनी के सिद्धांत में तनिक भी त्रुटि होगी अपने हृदय के इस आवेग को मण्डन ने शंकर के सामने इन शब्दों में प्रगट किया 

हे यतिराज! मैं इस समय अपने अभिनव पराजय से दुखित नहीं हूं । दुख तो मुझे इस बात का है कि आपने जैमिनी के वचनों का खण्डन किया है । जो मुनि भूत तथा भविष्य को जानते हैं और जिनके जीवन का उद्देश्य ही वेद के अर्थों का प्रचार प्रसार करना है उन्होंने ऐसे सूत्रों को क्यो बनाया जिनका अर्थ यथार्थ नहीं है । 

इसी सन्देह को दूर करते हुए आचार्य शंकर बोले - जैमिनी के सिद्धांत में कही पर भी अप सिद्धांत नहीं है । अनभिज्ञ होने से हम लोग ने ही उनके अभिप्राय को ठीक ठीक नहीं समझा है कर्म मीमांसा के आदि आचार्य का अभिप्राय परब्रह्म के प्रतिपादन में ही था परन्तु उस प्राप्ति के साधन होने कारण से उन्होंने कर्म सिद्धान्त को इतना महत्व दिया। कर्म के ही द्वारा चित शुद्धि। होती है और यही चित शुद्धि ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति में सहायक है कर्म मीमांसा में इसलिए कर्म का स्थान इतना ऊंचा रखा गया है । 

मीमांसा में ईश्वर - मण्डन -जब समस्त वेद ईश्वर को ही कर्म का दाता बतलाते हैं तब परमात्मा से भिन्न कर्म ही फल को देनेवाला है, इस सिद्धांत का प्रतिपादन कर जैमिनी मुनि ईश्वर का निराकरण ही क्यों किया ? इसका कारण बतलाईये? 

शंकर - नैयायिको का मत है कि इस जगत कर्ता स्वयं परमेश्वर है ।इसी अनुमान के आधार पर वे ईश्वर की सत्ता सिद्ध करते हैं । परन्तु क्या यह शुष्क अनुमान ईश्वर सिद्धि के लिए पर्याप्त है? श्रुति का तो स्पष्ट कहना है कि ब्रह्म तो उपनिषदों के द्वारा गम्य है वेद जाननेवाले पुरुष उस ब्रह्मा को जान सकता है कितना भी अनुमान किया जाय उस ब्रह्मा का ज्ञान नहीं हो सकता । भला तर्क की भी कही इयता? इसी भाव को अपने मन में रखकर जैमिनी मुनि ईश्वर परक अनुमान का तथा ईश्वर से जगत के उदय के सिद्धांत का युक्तियों से खण्डन किया है । वे श्रुति के द्वारा प्रतिपाद्य ईश्वर का नहीं भी अपलाप नहीं करते । अत कर्म मीमांसा का उपनिषदों से किसी प्रकार विरोध नहीं पड़ता । इस सूक्ष्म व्याख्या को सुनकर मण्डन को बड़ा सन्तोष हुआ और उन्होंने आचार्य की विद्वता, वेद की मर्मज्ञता को भलीभांति स्वीकार कर लिया ग्रहस्थश्रम छोड़कर संन्यास ग्रहण करने के लिए वे तैयार हो गए

जय श्री कृष्ण
दीपक कुमार द्विवेदी

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