जगतगुरु शंकराचार्य जी और शारदा के बीच शास्त्रार्थ का प्रसंग भाग ६.१

                                                            
                                      ॐ  



शंकर का परकाय प्रवेश -
काम शस्त्र से परिचय पाना आचार्य के लिए एक समास्या थी । उन्हें यति धर्म का निर्वाह करना था, साथ ही साथ शारदा देवी के कामविषयक प्रश्नों का उत्तर भी देना था । उपाय खोजने के लिए ऐसा कहा जाता है कि वे आकाश में भ्रमण करने लगे । योग बल उनमें पर्याप्त था। केवल विकल्पमय आध्यात्मिक ज्ञान की चर्चा में ही वे निपुण न थे । पत्युत योग व्यावहारिक प्रयोग में भी वे निष्णात थे । आकाश में भ्रमण करते हुए उन्होंने एक विचित्र दृश्य देखा -अमरूक नामक किसी राजा का मृत शरीर भूतल पर निश्रेष्ट पड़ा हुआ था । राजा अभी युवक ही था । जंगल में वह शिकार करने के लिए आया था। परन्तु मूर्च्छा रोग के कारण प्राण पखेरू उसके शरीर से रात में ही उड़ गए थे । सुन्दरी स्त्रियां उसके चारों ओर से घेरकर विलाप कर रही थी। मन्त्री लोग व्याकुल बदन होकर 

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इस घटना का वर्णन सब दिग्विजय में मिलता है दृष्टव्य - आनंदगिरि २५ वा प्रकारण ,माधव (१ वा सर्ग) चिद्विलास (११-२०-११ अध्याय) तथा सदानंद (७वा सर्ग)।  

राज्य के संचालन की चिंता के कारण नितांत शोकाकुल थे । शंकराचार्य ने इस दृश्य को देखा । देखते ही उनके चित में आया कि क्यों न मैं इसी राजा के मृतशरीर में प्रवेश कर काम शास्त्र की व्यावहारिकता शिक्षा ग्रहण करूं । इस भाव को उन्होंने अपने पट्टशिष्य ( पद्यपाद) के हृदय में महान उद्वेग हुआ। 

सन्दन्दन के विरोध - वे कहने लगे - हे आचार्य! मैं जानता हूं कि परकाय में प्रवेश करने की विद्या के सहारे योगियों ने अलौकिक चमत्कार दिखलाया है। यह विद्या नितांत प्राचीन है । और आप इसमें प्रवीण है, इसको भी मैं जानता हूं परन्तु प्रश्न तो यह कि क्या संन्यासी को इसमें प्रवृत्ति होना चाहिए ? कहा तो हमारा अनुमप संन्यास व्रत और कहां यह अति निन्दनीय काम शास्त्र । आप यदि काम शास्त्र की चर्चा करे तो जगत में बड़ी अव्यवस्था फैलेंगी भूमण्डल पर तो संन्यास धर्म पहले ही शिथिल हो रहा है आपका संकल्प उसे दृढ़ करना है । परन्तु मैं देखता हूं आप अपने व्रत से विचलित हो रहे हैं। अतः मेरी दृष्टि में यह परकाय प्रवेश अनुचित प्रतीत हो रहा है। 

 

शंकर का विरोध -परिहार - आचार्य शंकर ने पद्यपाद के इन वचनों को बड़ी शान्ति के साथ सुना और अपने योग्य शिष्य की सारगर्भित वाणी की उन्होंने बड़ी प्रशंसा की । परन्तु इनके विरोध का परिहार करते हुए उन्होंने कहना आरंभ किया - तुम्हारे वचन सदभाव से प्रेरित है। परन्तु इस तथ्य के केवल बाह्य अंग पर ही तुम्हारी दृष्टि पड़ी है। इसके अन्तस्तल पर तुमने प्रवेश नहीं किया है। तुम जानते नहीं हो समस्त इच्छाओं का मूल तो संकल्प है। संसार को हेय दृष्टि से देखने वाला पुरुष यदि किसी कार्य का कर्ता भी हो तो उससे क्या? उसके हृदय में संकल्प का नितांत अभाव रहता है । उस पुरूष को यह संसार कभी बन्धन में नहीं डाल सकता । जिसने इस संसार को संपूर्ण रूप से कल्पित और असत्य जान लिया है उस पुरूष को कर्मो के फल तो उसे ही प्रतीत होता है जो इन कर्मो को करने में अंहकार रखता है परन्तु ज्ञान के द्वारा जब यह अहंकार बुद्धि नष्ट हो जाती है तब कर्ता को किसी प्रकार का फल नहीं मिलता । यदि वह ब्रह्म हत्या करता है तब भी वह पापों से लिप्त नहीं होता , और यदि हजारो भी अश्वमेध यज्ञ करता है तब भी वह पुण्य नहीं प्राप्त कर सकता । ऋग्वेद का वह दृष्टांत क्या तुम्हें याद नहीं है कि ब्रहाज्ञानी संकल्परहित इन्द्र ने त्वष्ठा के पुत्र त्रिशिरा विश्वरूप को मार डाला और मुनियों को भेड़ियों को मारकर खाने के लिए डाला था । परन्तु इस कर्म से उनका एक बाल भी बांका नहीं हुआ । उधर जनक ने अनेक यज्ञ किया , हजारों रूपया दक्षिणा रूप में दिया परन्तु वे अभय ब्रह्मा को प्राप्त करने वाले राजर्षि थे । फलत : ऐसे सत्कर्मों का फल उनके लिए 

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कथमज्यते जगदशेषमिंद कलयन् मृषेती कर्मफलै :
न फलाया हि स्वपनकालकृत सुकृतादि जात्वनृत बुद्विगतम-श० दि ०१/२५ 

 ऋग्वेद १०/८/८० ।
बृहदारण्यक उपनिषद् अध्याय ३ ।

कुछ भी न हुआ । ब्रह्म वेता की यही तो महिमा है। संकल्प के नाश का यही प्रभाव है कि सुकृत और दुष्कृत के फल कर्ता को तनिक  भी स्पर्श नहीं करते । मैं वासनाहीन हूं मेरे हृदय में काम बासना का लेश भी अवशिष्ट नहीं है। अतः मेरा परकाय प्रवेश करके शास्त्रत: काम शास्त्र का अध्ययन करना कथमपि निन्दनीय नहीं है । अतः इस काम से मुझे विरक्त मत करो , प्रत्युत सहायता देकर इसके अनुष्ठान को सुगम बनाओं। गुरु कथन के सामने शिष्य ने अपना सिर झुकाया।



जय श्री कृष्ण
दीपक कुमार द्विवेदी

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