जगतगुरु शंकराचार्य जी और शारदा के बीच शास्त्रार्थ का प्रसंग भाग ६.२



                                   ॐ

आचार्य शंकर शिष्यों के साथ दुर्गम पर्वत शिखर पर चढ़े गये । वहां एक सुंदर गुफा दिखायी पड़ी जिसके आगे एक विशाल समतल शिला पड़ी हुई थी। पास ही स्वच्छ जल से भरी हुई एक सरसी सुशोभित हो रही थी। आचार्य ने अपने शिष्यों से कहा कि यही पर रहकर आप लोग मेरे शरीर की सावधानी से रक्षा कीजिए जब तक मैं इस राजा के मृतक शरीर में प्रवेश कर काम कला का अनुभव प्राप्त करता हूं । शिष्यों ने इस आज्ञा को मान ली । शंकर ने उस गुफा में अपने स्थूल शरीर को छोड़ दिया और केवल लिंग शरीर से युक्त होकर योग बल से राजा के शरीर में प्रवेश किया । प्रवेश करने की प्रक्रिया इस प्रकार थी - योगी शंकर ने अपने शरीर के अंगूठे से आरंभ कर प्राण वायु को ब्रह्म - रन्ध्र तक खींचकर पहुंचाया और ब्रह्म रन्ध्र के बह्रा के भी बाहर निकलकर वे मरे हुए राजा के शरीर में ठीक उसके विपरीत क्रम से प्रवेश कर गये । अर्थात ब्रह्म रन्ध्र से प्राणवायु का संचार आरंभ कर धीरे धीरे उसे नीचे लाकर पैर के अंगूठे तक पहुंचा दिया । चकित जनता ने आश्चर्य भरे नेत्रों से देखा कि राजा अमरूक के शव मे प्राण का संचार हो गया । मुख के उपर कान्ति आ गयी ,नाक से धीरे धीरे वायु निकलने लगा । हाथ , पैर हिलने और डुलने लगे , नेत्र खुल गए । देखते देखते राजा उठ बैठा । रानी और मन्त्रियो के हर्ष का ठिकाना न रहा । इस अद्भुत घटना को देखकर जनता स्तब्ध हो गयी। 

राजा अमरुक के पुजरुज्जीवन की बात सारे राज्य में बड़ी शीघ्रता के साथ फैल गयी । जो सुनता वहीं आश्चर्य करता । राजा ने अपने मन्त्रियो की सलाह के राज्य की उचित व्यवस्था की । इस व्यवस्था का फल राज्य में उचित रीति से दीख पड़ने लगा । सर्वत्र सुख और शान्ति का साम्राज्य था । मन्त्रियो को राज्य संभालने में लगाकर इस नये राजा ने सुन्दरी विलासिनी स्रियो के साथ रमण करना आरंभ किया । शंकर वज्रोली क्रिया के मर्मज्ञ पण्डित थे , जिसकी सहायता से उन्हें काम कला के सीखने में देर न लगी इसी अवस्था में उन्होंने कामसूत्र का गाढ़ अनुशीलन किया तथा इस प्रकार इस शास्त्र के वे प्रकांड पंडित बन गये । उनकी अभीष्ट पूर्ति हो चली । 

उधर तो शंकर राज्य का काम कर रहे थे और इधर गुफा में पड़े उनके शरीर को उनकी शिष्य मण्डली रक्षा कर रही थी दिन बीते राते आयी । धीरे धीरे एक मास की अवधि भी बीत चली परन्तु जब आचार्य नहीं लौटे तब शिष्यों को महती चिंता उत्पन्न हुई कि क्या किया 

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लिग शरीर- पांच ज्ञानेन्द्रिया ,पांच कमेद्रिया ,पांच प्राण , मन तथा बुद्धि ,इन सत्रह वस्तुओं के समुदाय को लिंग शरीर कहते हैं । जीव इस शरीर के द्वारा इस शरीर से दूसरे शरीर में प्रवेश करता है । देखिये ईश्वरकृष्णा : सांख्य कारिका कारिका ४०।

 जाय? किधर खोज निकाला जाय? उनके राज्य का पता तो था नहीं । तब पद्यपाद ने यह सलाह दी आचार्य को ढूंढ निकालना चाहिए , हाथ पर हाथ रखने से क्या लाभ ? तदनुसार कतिपय शिष्य आचार्य के शरीर की रक्षा करने के लिए वहां रखे गये और कुछ शिष्य पद्यपाद के साथ आचार्य की खोज में निकल । जाते जाते वे लोग अमरुक राजा के राज्य में पहुंचे । राज्य की सुव्यवस्था देखते ही उन्हें यह ज्ञान हो गया कि यह उनके नृप वेशधारी आचार्य का ही राज्य है । लोगों के मुख से उन्होंने सुना कि राजा साक्षात धर्म की मूर्ति है । परन्तु उसे गायन विद्या से बड़ा प्रेम है तदनुसार शिष्य गायक का वेश बनाकर राजा के दरबार मे उपस्थित हुए । राजा ने इन कलावन्तो को देखकर बड़ी प्रसन्नता प्रगट की और उन्हें नयी वस्तु सुनाने की आज्ञा दी। गायक लोग तो इस अवसर की प्रतीक्षा में थे ही । आज्ञा मिलते ही उन्होंने अपना गाना प्रारंभ कर दिया गायन आध्यात्मिक भावों से भरा था । स्वर मुधर लहरी सभामण्डप को भेदकर उपर उठने लगी । इस गायन ने राजा के चित को बरबस अपनी ओर आकृष्ट किया। 

यह आध्यात्मिक गायन आत्मा के सच्चे का स्वरूप का बोध करनेवाला था पद्यपाद राजा को उसके बच्चे स्वरुप से परिचित कराकर उसके हृदय में प्रबोध उत्पन्न करना चाहते थे इसलिए उन्होंने गाना आरंभ किया जिसका अभिप्राय यह था 

चावल भूसी के भीतर छिपा रहता है । चतुर लोग इस भूसी को कूटकर चावल को उससे अलग निकाल लेते ब्रह्म आकाश भूतों को उत्पन्न कर उसके भीतर प्रविष्ट होकर छिपा हुआ पंचकोशो के भीतर ऐसे ढंग से छिपा हुआ है कि बाहरी दृष्टि रखनेवाले व्यक्तियों के लिए उसकी सत्ता का पता नहीं चलता । परन्तु विद्वान लोग युक्तियों के सहारे उसकी विवेचन कर चावल की भांति जिस आत्मा का साक्षात्कार करते हैं वह तत्व तुम्हीं हो 

          खाद्यमुत्पाद्य विश्वमनुविश्व 
            गूढ़मन्नमयादि कोशतुष कोशतुष जाले ।
        दृश्यों विविच्य युक्त्यवघाततो 
               यतण्डुलवदाददति तत्वमसि तत्वम् ।। शं० दि० १०/४१ 

हे राजन ! समझो कि तुम कौन हो? विद्वान लोग शम ( मन का निग्रह ) दम (इन्द्रिया का निग्रह )उपरम ( वैराग्य) आदि साधनों के द्वारा अपनी बुद्धि में जिस सज्जिदानन्द रूप तत्व पाने में समर्थ होते हैं और जिस पा करके जन्म मरण से रहित होकर आवागमन के क्लेश से मुक्त हो जाते हैं वह तत्व तुम्हीं हो 

        शमदमोपरमादि साधनैधीरा:
                स्वात्मनाऽत्मानि यदन्विष्य कृतकृत्या: ।
       अधिगतामित सज्जिदानन्दरुपा, 
              न पुनरिह खिद्यन्ते तत्वमसि तत्वम् ।। शं० दि० १०/५५ 

गायन समाप्त हुआ । नृपवेश धारी शंकर के हृदय में अपने प्राचीन स्वरूप के ज्ञान का उदय हुआ । उन्हें अपनी भूल का पता चला । ये शिष्यों को केवल एक मास की अवधि देकर आये थे परन्तु परिस्थितियों के वश में पड़कर उन्होंने कामानुराग ने अपने को इतना अनुरक्त कर दिया कि अपनी अवधि का काल उन्हें स्मरण नहीं रहा । पद्यपाद के इस गायन ने उनकी पूर्व प्रतिज्ञा को उनके सामने लाकर सजीव रूप से खड़ा कर दिया। उन्होंने अपने कर्तव्य को भलीभांति पहचान लिया और इन गायको की आशा पूरी कर इन्हें विदा किया कलालन्तो के द्वारा समझाये जाने पर शंकर मूर्च्छित हो गये । उन्होंने राजा के शरीर को छोड़ दिया और गुफा में स्थित अपने शरीर से पहले कहे गये ढंग से वे घुस गये । ब्रह्म रन्ध्र से आरंभ कर पैर के अंगूठे तक धीरे धीरे प्राणो का संचार हो गया । शिष्यों ने आश्चर्य से देखा कि गुरु का शरीर प्राणों से युक्त हो गया। अतः यह देखकर उन्हें महान हर्ष हुआ । 

जय श्री कृष्ण
दीपक कुमार द्विवेदी

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