जगतगुरु शंकराचार्य जी की दक्षिण यात्रा का प्रसंग,भाग ७

 

                                      ॐ 

मण्डन मिश्र के उपर विजय प्राप्त करने से आचार्य शंकर ने उतरी भारत की पण्डित मण्डली के उपर अपना प्रभाव जमा लिया। मण्डन मिश्र को तो वे अपना शिष्य बना ही चुके थे । अब उन्होंने उतर भारत को छोड़कर , दक्षिण भारत की ओर यात्रा करना आरंभ किया । इस यात्रा का अभिप्राय था दक्षिण भारत के अवैदिक मतो का खण्डन करना और अद्वैत मार्ग प्राचार करना । आचार्य अपनी शिष्य मण्डली के साथ , जिसमें प्रमुख सुरेश्वर और पद्यपाद थे, महिष्मति नगरी से दक्षिण भारत की ओर चल पड़े । रास्ते में पड़ने वाले अनेक तीर्थ स्थलों पर निवास करना और जनता को अद्वैत मार्ग की शिक्षा देना आचार्य शंकर की दैनिक चर्या थी । वे महाराष्ट्र मण्डल से होकर और भी नीचे दक्षिण की ओर गये । बहुत संभव है महाराष्ट्र के प्रमुख तीर्थ क्षेत्र पंढरपुर में उन्होंने निवास किया हो । यह तीर्थ विष्णु भगवान के ही एक विशिष्ट विग्रह पण्डरीनाथ से सम्बन्ध है महाराष्ट्र में यह वैष्णव ़़धर्मका प्रधान केंद्र है । यह मन्दिर प्राचीन बतलाया जाता है। 

श्री पर्वत - महाराष्ट्र देश में धर्म प्रचार के अनन्तर आचार्य अपनी मण्डली के साथ सुप्रसिद्ध तीर्थ क्षेत्र श्रीशैल या पहुंचे । आज भी उस क्षेत्र की पवित्रता , प्राचीनता और भव्यता किसी प्रकार न्यून नहीं हुई । यह स्थान मद्रास प्रान्त के कर्नूल जिले में प्रसिद्ध देवस्थान है । यहां का  शिव मन्दिर बड़ा विशाल और भव्य है जिसक  लम्बाई ,६६० फीट और चाड़ाई ५२० फीट है इसकी दीवालो के उपर रामायण और महाभारत की कथाओं से सम्बन्ध सुन्दर चित्र अंकित किये ग्रे है । मन्दिर के बीच मल्लिकार्जुन महादेव की स्थापना की गयी है । भारतवर्ष में विख्यात द्वादश ज्योतिर्लिंग में मल्लिकार्जुन अन्यतम है । प्राचीनकाल में तो इस स्थान की महत्ता और अधिक थीं । मंत्र सिद्ध तथा तान्त्रिक से भी इस स्थान का गहरा सम्बन्ध था , इस बात के लिए अनेक प्रमाण मिलते हैं । सुनते हैं कि माध्यमिकतम -विख्यात आचार्य सिद्ध नागार्जुन ने इस पर्वत निवास कर अपनी अलौकिक सिद्धियां प्राप्त की थी।  बाणभट्ट ( सप्तम शताब्दी का पूर्वार्द्ध ) ने भी इस स्थान का सिद्ध क्षेत्र के रूप में उल्लेख किया है। महाराज हर्षवर्धन ने अपनी रत्नावली नाटिका में इसी श्रीपर्वत से आनेवाले एक सिद्ध का वर्णन किया है जिसे अकाल मे ही फूलो को खिला देने की अपूर्व सिद्वि प्राप्त थी । महाकवि भवभूति ने भी मालती - माधव में इस स्थान को मन्त्र सिद्धि के लिए उपादेय तथा सिद्धपीठ बतलाया है। 

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श्री पर्वत का विशेष विवरण १२ वे भाग  में किया जाएगा । 
जयति ज्वलप्रतापज्वलनप्रकारकृतजद्रक्ष : ।  
सकलप्रणयिमनोरथसिद्विश्रीपर्वतो हर्ष // हर्ष चरित उच्छवास रत्नावली पृष्ठ ६७ -६८, ( निर्णय सागर )  

शैव स्थान होने पर भी बहुत दिनों से यह स्थान अवैदिक मार्गावलम्बियो के अधिकार में आ गया था । इस स्थान पर बौद्ध का प्रभाव बहुत ही अधिक था । हीनयानी बौद्धों के अष्टादशा निकायों में दो निकायों के नाम है पूर्वशैलीय और अपरशैलीय । तिब्बती ग्रन्थो में पता चलता है कि इस नामकरण का यह कारण था । कि श्रीपर्वत के पूरब और पश्चिम में  दो पहाड़ थे,  जिनका नाम क्रमशः पूर्वशैल और अपरशैल था । इन्ही शैलो पर निवास करने के कारण इन निकायों का ऐसा नामकरण हुआ था । परन्तु शंकराचार्य के समय में यह बौद्धो के प्रभाव का पता नहीं चलता ,उस समय तो कापालिकों ने अपना अड्डा बना रख था ।


जय श्री कृष्ण
दीपक कुमार द्विवेदी 


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