जगतगुरु शंकराचार्य जी की दक्षिण यात्रा का प्रसंग भाग ७.३

       

                                      

                                     ॐ

       

गोकर्ण की यात्रा - यहां से यतिराज शंकर अपने शिष्यों के साथ गोकर्ण क्षेत्र में पधारे यह स्थान बम्बई प्रान्त में एक प्रसिद्ध शैव तीर्थ है । गोवा से उतर लगभग तीस मील की दूरी पर यह नगर समुद्र किनारे स्थित है । यहां के महादेव का नाम महाबलेश्वर है जहां आज भी शिवरात्रि के अवसर पर बहुत बड़ा मेला लगता है। प्राचीनकाल में इसकी प्रसिद्धि और भी अधिक थी। रामायण , महाभारत तथा पुराणों में इसकी विपुल महिमा गायी गयी है । वाल्मिकी रामायण से पता चलता है कि कुबेर के समान संपति पाने की अभिलाषा से लंकाधिपति रावण ने अपनी माता कैकसी के परामर्श से घोर तपस्या का स्थल बतलाया है जहां केवल तीन रात किया था । महाभारत ने इसे देवताओं की तपस्या का स्थल बतलाया है जहां केवल तीन रात ठहरने से अवमेध यज्ञ करने का फल मिलता है । अनुशासन पर्व में अर्जुन के इस स्थान पर जाने का उल्लेख मिलता है । पिछले काल में भी इसकी पवित्रता अक्षुण्ण बनी रही । महाकवि कालिदास ने गोकर्ण के महादेव को वीणा बजाकर प्रसन्न करने के लिए नारद जी आकाश मार्ग से वहां आने का उल्लेख किया है । इसी गोकर्ण क्षेत्र में आचार्य शंकर ने तीन रात तक निवास किया । भगवान महाबलेश्वर की स्तुति करते हुए विद्वानों और भक्तों के सामने अपने अद्वैत मार्ग का शंकर ने उपदेश किया 


हरिशंकर की यात्रा - गोकर्ण के अनन्तर शंकर हरिशंकर नामक तीर्थस्थल में पधारे यहां हरिहर की मूर्ति विराजमान थी आचार्य शंकर ने अद्वैतवाद के प्रतीकरूप हरि शंकर की स्तुति श्लेषात्मक पद्यो के द्वारा इस प्रकार की - 

 हे हरि आपने मन्दर  नामक पहाड़ को धारणकर देवताओं  को अमृत भोजन कराया है । मन्दराचल के धारण करने पर भी आप स्वयं खेदरहित है  । हे कच्छप रूपी नारायण आप अपनी अपार  कृपा मुझ पर कीजिए ( शिव को लक्षित कर हे भगवान शंकर आप ! आप मन्दर नामक विष को धारण करनेवाले तथा भक्षण करनेवाले हैं कैलाश 

पहाड़ के उपर अपनी सुन्दर मुर्ति से आप नाना प्रकार के विलास करते हैं । इस दास को भी अपनी अपार कृपा का पात्र बनाईये ।

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तत क्रोधेन तेनैव दशग्रीव सहानुज :।  

चिकीर्षुर्दुष्कर कर्म , तपसे धृतमानसा :। 

प्रापस्यामि तपसा काममिति  कृत्वाध्यवस्य च । 

आगच्छदात्मसिद्वयर्थ गोकर्णस्याश्रम शुभम ।। 

                                                       वा,० रा० उतर काण्ड १/४५-४६ 

अथ गोकर्णमासाद्य त्रिषु लोकेषु विश्रुतम । 

समुद्रमध्ये राजेन्द्र सर्वलोकनमस्कृतम् ।। वनपर्व ८५/२४ 

अथ रोधसि दखिणोदधे: श्रितगोर्णनिकेतमीश्वरम । 

उपवीणयितु ययौ रवेरुगावृतिपथेन नारद:।। रघुवंश ८/३३ 

यात्रा के उल्लेख के लिए दृष्टव्य -माधव (,१२ सर्ग तथा सदानन्द (११ सर्ग ) 

तो मन्दराग दधदायेयान सुधाभुज स्माऽऽतनुतेऽविषादी ।

स्वामद्रिलीलोचितचारूमूते कृपामपारां से भवान व्यधताम् ।। 


हे नृसिंह रूपी नारायण !  आपने सिंह रूप धारणकर देवताओं के शत्रु हिरण्यकश्यपु का संहार किया है और प्रह्लाद को आनन्दित बनाया है अतः मैं आपको प्रणाम करता हूं । ( शिव को लक्षित कर ) हे शंकर ! आप पंच मुख धारण करनेवाले हैं आपको मस्तक के उपर नदियों में सर्वश्रेष्ठ गंगा विराजती हैं । गजासुर को मारकर आप अत्यन्त आनन्दित हुए। अतः मै आपको प्रणाम करता हूं । 


मूकाम्बिक की यात्रा - हरिशंकर की यात्रा करके शंकर मुकाम्बिका की ओर चल पड़े रास्ते में विचित्र घटना घटी। एक ब्रह्माण दम्पत्ति अपने मरे हुए एकलौते लड़के की गोदी में लेकर विलाप कर रहे थे । आचार्य का कोमल हृदय उनके करूणा रूदन पर पिघल गया । वहां के लोगो  ने शंकराचार्य से बड़ी प्रार्थना की भगवन् ! आप अलौकिक शक्ति ् 

संपन्न है आप कृपया इस ब्राह्मण बालक को जिला दीजिए । आकाशवाणी ने भी शंकर  को इस कार्य के लिए प्रेरित किया । तब आचार्य ने उसे अपने योग बल से जिला दिया । इस अद्भुत घटना को देखकर लोगो के आश्चर्य तथा ब्राह्मण दम्पत्ति के हर्ष का ठिकाना न रहा । अनत्तर वे मुकाम्बिका के मंदिर में पहुंचे और भगवती की रहस्यमई वाणी में स्तुति की ।  

हस्तामलक शिष्य की प्राप्ति - मुकाम्बिका की स्तुति करके और कुछ दिन वहां निवास करके शंकर श्रीवलि नामक अग्रहार में पहुंचे 

अग्रहार उस बस्ती को कहते हैं जिसमें केवल ब्रह्माणो का ही निवास  रहता है । इस अग्रहार में लगभग (२०००) दो हजार अग्निहोत्री ब्राह्मण निवास करते थे । उसमें प्रभाकर नामक एक ब्राह्मण भी रहते थे । ये तो बड़े  संपन्न धनी और मानी परन्तु आपने पुत्र की मुर्खता और पागलपन के कारण  नितांत दुखित थे वह न कुछ सुनता था और न कहता था । आलसी की कुछ विचार करता हुआ पड़ा रहता था परन्तु वह बड़ा गुण संपन्न था प्रभाकर ने ब्राह्मण पुत्र जी के उठने की बात पहले सुन रखी थी ््

उस अग्रहार में शंकर के आते ही एक वे दिन अपने पुत्र के साथ उनके पास  पहुंचे और अपनी दुरवस्था कह सुनायी - भगवन्! यह मेरा पुत्र तेरह वर्ष का हो गया ।किसी प्रकार हमने इसका उपयोग कर दिया है परन्तु न तो इसे अक्षरज्ञान अभी तक हुआ ,न वेद का समान्य परिचय ही । इसका आचरण विलक्षण है । न खाने का नियम है और न पीने का नियम जब जो चाहता है करता है क्या आप इसकी जड़ता का कारण बतलायेगे ? प्रभाकर ने इन वचनों को सुनकर शंकराचार्य ने इस बालक से पूछा कि तुम कौन हो?  तुम जड़ के समान आचरण क्यो करते हो ? इतना सुनते ही बालक कहने लगा भगवन् !  मैं जड़ नहीं हूं। जड़ पुरुष तो मेरे रहने से कार्य में स्वयं लग जाता है । मैं आनन्द रूप हूं । देह इन्द्रिय 

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समावहन केसरितां वरां : सुरिद्वषक्तचरमाजघान।

प्रह्रादमुलल्लसितमादधान पंचानन तो प्रणुम पुराणम।। 

                            माधव शं ० दि० १२/१०/१२

अराधनं ते बहिरेव केचिदन्तर्हश्वैकतमेऽन्तरेवा । 

अन्ये परे त्वम्ब ! कदपि कुयुर्नैव त्वदैक्यनुभवैकनिष्ठा ।।

                   - शं० दि ० १२/३०। 


आदि से अलग हू । मैं विकारों से ही चैतन्य रूप हूं कौन कहता है कि मैं जड़ हू? 

इतना सुनते ही सभा मण्डली आश्चर्यचकित हो गयी पिता जिस बालक को नितांत मुर्ख आलसी तथा पागल समझता था वह बहुत बड़ा ब्रहाज्ञानी निकला । आचार्य ने प्रभाकर से कहा कि लड़का तुम्हारे यहां रहने योग्य नहीं है । पूर्व जन्म के अभ्यास से यह सब कुछ जानता है परन्तु कुछ कहता नहीं । यदि ऐसा होता तो बिना पढ़े वह इतने सुन्दर श्लोक कैसे कहता । संसार की वस्तुओं में इनकी किसी प्रकार आसक्ति नहीं है । इतना कहकर शंकर ने उस बालक को अपना शिष्य बना लिया और उसका नाम हस्तामलक रखा। 



जय श्री कृष्ण 

दीपक कुमार द्विवेदी 


 

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