जगतगुरु शंकराचार्य जी और शारदा के बीच शास्त्रार्थ का प्रसंग भाग ६.३

 


                                      ॐ

शंकर का उत्तर - शंकर का शरीर सचेष्ट हो गया । अपने शिष्यों के साथ वे प्रतिज्ञानुसार सीधे शारदा देवी के पास पहुंचे । शारदा स्वयं अलौकिक शक्ति से युक्त थी शंकर की यह आश्चर्यजनक घटना उनके कानों तक पहुंच चुकी थी । वे समझ गयी कि शंकर ने अब काम शास्त्र में निपुणता प्राप्त कर ली है। अब उनसे विशेष शास्त्रार्थ करने की आवश्यकता नहीं है । शंकर ने उन प्रश्नों का यथोचित उतर देकर निरूतर कर दिया । 

शंकर के इस युक्तियुक्त उतर को सुनकर शारदा देवी ( भारती) नितांत प्रसन्न हुई और उन्होंने शंकर की प्रतिभा और विद्वता के सामने अपना पराजय स्वीकार किया । अब वे शंकर से बोलीं कि मुझे पराजित कर आपने अब मेरे पतिदेव के उपर पूरी विजय पायी है। मण्डन मिश्र ने अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार संन्यास ग्रहण की इच्छा प्रगट की और और आचार्य ने उन्हें संन्यास - मार्ग में दीक्षित कर उनका नाम सुरेश्वराचार्य रखा। 

शंकर और मण्डन के शास्त्रार्थ की ऐतिहासिकता - शंकर और मण्डन मिश्र के शास्त्रार्थ का यह विस्तृत विवरण शंकर दिग्विजयो के प्रचलित वर्णन के आधार पर दिया गया है। इन दोनों ग्रन्थो के रचयिताओ की यह धारणा है कि मण्डन मिश्र मींमसा शस्त्र के ही पारंगत पण्डित थे । अतएव उनका द्वैत मार्ग के उपर ही आग्रह था । इसलिए अद्वैतवादी शंकर ने अपने अद्वैतवाद के मण्डन के लिए मण्डन मिश्र की द्वैतवादी युक्तियों का बड़ी उहापोह के साथ खण्डन किया । परन्तु ऐतिहासिकता दृष्टि से विचार करने पर इस शास्त्रार्थ के भीतर एक विचित्र ही रहस्य दिखायी पड़ता है। इधर मण्डन मिश्र की लिखी हुई ब्रहासिद्वि नामक पुस्तक प्रकाशित होकर विद्वानों के सामने आयी है । इसके अध्ययन से स्पष्ट प्रतीत होता है कि मण्डन मिश्र भी पक्के अद्वैतवादी थे । तब यह प्रश्न होना स्वाभाविक है कि शंकराचार्य का इनके साथ क्योंकि शास्त्रार्थ हुआ ? दोनों तो अद्वैतवादी ही ठहराते हैं । जान पड़ता है कि मण्डन मिश्र 

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शंकर के उत्तर का ठीक - ठीक वर्णन दिग्विजयो नहीं मिलता । प्रश्न काम शास्त्र का है उतर भी काम शास्रों के ग्रंथों में मिलता ही है अतः अनावश्यक समझकर ही इन ग्रंथकारो ने निर्देश नहीं किया है । हम भी इनका अनुकरण कर चुप रह जाना ही उचित समझते हैं । जिज्ञासु पाठक वास्त्यायन कामसूत्र रतिरहस्य पचंसायक आदि ग्रंथों में इसका उत्तर देख सकते हैं। 

आचार्य शंकर के प्रतिस्पर्धी अद्वैतवादी दार्शनिक थे । दोनों शंकर और मण्डन मण्डन के अद्वैतवादी के सिद्धांतो में बहुत मिन्नता पायी जाती है शंकर अपने अद्वैतवादी को ठीक उननिषद की परंपरा पर अवलम्बित मानते थे और संभव है कि इसीलिए वे मण्डन के अद्वैतवादी को उपनिषद विरूद्ध समझते थे । जब तक एक प्रबल प्रतिस्पर्धी के मत खण्डन नहीं होता , तब तक अपने सिद्धांत का प्रचार प्रसार करना कठिन है संभवत इसीलिए शंकर मण्डन मिश्र को अपने उपनिषन्मूलक अद्वैतवाद का प्रचारक बनाने के लिए ही उन्हें परास्त करने में इतना आग्रह दिखलाया । अतः: इस प्रकार ऐतिहासिक दृष्टि से उपनिषद अद्वैतवादी शंकर का उपनिषद विरूद्ध अद्वैतवादी मण्डन से शास्त्रार्थ करना नितांत युक्तियुक्त प्रतीत होता है।   

जय श्री कृष्ण
दीपक कुमार द्विवेदी

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