जगतगुरु आदि शंकराचार्य जी और मण्डन मिश्र का प्रसंग भाग ५.२


                                       ॐ


शंकर और मण्डन का शास्त्रार्थ - रात बीती, प्रातः काल हुआ। प्राची क्षितिज पर सरोज बन्धु सविता के उदय की सूचना देनेवाली उषा की लालिमा छिटकने लगी । प्रभाकर का प्रभामय बिम्ब आकाशमण्डल में चमकने लगा । किरण फूट फूटकर चारो दिशाओं में फैल गयी । आचार्य शंकर के जीवन में यह प्रभात उनकी कीर्ति तथा यश का मंगलमय प्रभात था । आज ही उनके भाग्य का निर्णय होने जा रहा था । आज ही मंगलमय वेला थी । जिसमें अद्वैत वेदांत का डिण्डिम घोष सारे भारतवर्ष में व्याप्त होनेवाला था । ऐसे ही शुभ मुहुर्त में इन दोनों विद्वानों में ऐतिहासिक शास्त्रार्थ प्रारंभ हुआ । इस शास्त्रार्थ की सूचना महिष्मति नगरी में अतिशीघ्र फैल गयी । अत: इस नगरी  की विद्वान् मण्डली शास्त्रार्थ सुनने के लिए मण्डन मिश्र के द्वार पर आयी । 

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मण्डन और  के इस विख्यात शास्त्रार्थ का विस्तृत वर्णन माधव ( सर्ग ८ ) सदानन्द ( सर्ग ६) ने बड़ी सुन्दरता रीति से किया है आनन्दगिरि ने ( ५६ वे प्रकरण में) तथा चिद्विलास ने ( १७-१८ अध्याय में ) इसका संकेत मात्र किया है । 

शंकर की प्रतिज्ञा -आचार्य शंकर अपनी शिष्य मण्डली के साथ उस पण्डित मण्डली में उपस्थित हुए । शारदा ने मध्यस्थ का आसन शुशोभित किया । मण्डन मिश्र को लक्ष्य कर शंकराचार्य ने अपनी प्रतिज्ञा ( सिद्धांत) उद्घोषित की - इस जगत में ब्रह्म एक, सत ,चित ,निर्मल तथा यथार्थ वस्तु है । वह स्वयं इस जगत के रूप में उसी प्रकार भासित होता है जिस प्रकार शुक्ति ( सीप ) चांदी का रूप धारण कर भासित होती है। शुक्ति में चांदी के समान ही यह जगत नितांत मिथ्या है। उस ब्रह्मा के ज्ञान से ही इस प्रपंच का नाश होता है । और जीव बाहरी पदार्थों से हटकर अपने विशुद्ध रूप में प्रतिष्ठित हो जाता है उस समय वह जन्म मरण से रहित होकर मुक्त हो जाता है। यही हमारा सिद्धांत है । और इसमें स्वयं उपनिषद ही प्रमाण है । यदि मैं शास्त्रार्थ में पराजित हो जाऊंगा तो संन्यासी के कषाक वस्त्र को  फेंककर गृहस्थ का सफेद वस्त्र धारण कर लूंगा । इस विवाद में जय पराजय का निर्णय स्वयं भारती करें।  

ब्रहौकं परामर्थसचच्चिदमल विश्वप्रपचात्मना ,
शुक्तिरुप्यपरात्मनेव हहलाज्ञावृत भासते । 
तज्ज्ञानान्निलिलप्रपचनिलया स्वात्मव्यवस्थापर , 
निर्वाण जनिमुक्तभ्युपगतं मानं श्रुतेर्मस्तकम् ।। 
बाढं जये यदि पराजयभागहं स्यां , 
सन्यासमगं परिहत्य कषायचैलम । 
शुक्ल वसीय वसनं द्वयभारतीयं , 
वादे जयाजफलप्रतिदीपिकाऽस्तु ।।   माधव श,०दि० ८/६१-६२ 

मण्डन की प्रतिज्ञा - अद्वैत सिद्धांत की प्रतिपाददिका इस प्रतिज्ञा को सुनकर मण्डन मिश्र ने अपने मींमसा सिद्धांत को प्रतिपादन करनेवाली प्रतिज्ञा कह सुनायी - वेद कर्मकाण्ड भाग ही प्रमाण है । उपनिषद को प्रमाण कोटि में नहीं मानता , क्योंकि यह चेतना स्वरूप ब्रह्म का प्रतिपादन कर सिद्ध वस्तु का वर्णन करता है । वेद का तात्पर्य है विधि का प्रतिपादन करना , परन्तु उपनिषद विधि का वर्णन न कर ब्रह्म के स्वरूप का प्रतिपादन करता है । अतः वह प्रमाण कोटि कथमपि नहीं आ सकता। शब्दों की शक्ति कार्य मात्र के प्रगट करने में है दुखो से मुक्ति कर्म द्वारा ही होती है और इस कर्म का अनुष्ठान प्रत्येक मनुष्य को अपने जीवन भर करते रहना चाहिए ‌। मीमांसा होने के नाते यही मेरी प्रतिज्ञा है। यदि शास्त्रार्थ में मेरी पराजय होगी तो मैं गृहस्थ धर्म छोड़कर सन्यासी बन जाऊंगा।  

वेदांता न प्रमाण चिति वपुषि पदे तत्र सगत्ययोगात , 
        पूर्वो भाग: प्रमाण पदचयगामिते कार्यवस्तुन्यशेषे ।
शब्दानां कार्यमात्र प्रति समगधिगता शक्तिरभ्युन्नतानं , 
            कर्मभ्यो मुक्तिरिष्टा तादिह तनुभृतामाऽऽयुष: स्यात् समाप्ते : 
शं० दि० ८/६४
 

विद्वन्ममण्डली ने इन प्रतिज्ञाओं को सुना , वादी और प्रतिपादी में शास्त्रार्थ प्रारम्भ हो गया। 

जय श्री कृष्ण 
दीपक कुमार द्विवेदी

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