समान कर्म होने पर भी गणित एवं भौतिक के मूल नियमों के विरुद्ध परिणाम में भिन्नता कर्मफल का अप्रत्यक्ष प्रमाण है।

समान कर्म होने पर भी गणित एवं भौतिक के मूल नियमों के विरुद्ध परिणाम में भिन्नता कर्मफल का अप्रत्यक्ष प्रमाण है। 

कर्मफल को एक शरीर से दूसरे शरीर में आने के लिए एक अदृश्य वाहक की आवश्यकता पड़ती है, उस इंद्रियातीत वाहक को आत्मा नामक संज्ञा से जानते हैं। 

यह आत्मा भी मॉस, ऊर्जा, दिगकाल की तरह कारण द्रव्य है। जो कारण द्रव्य है वह मूल होने से क्षरण से बचा रहता है अर्थात् जिसका कोई और कारण नहीं, उसका विघटन कैसे हो??

मॉस को हमारी इंद्रियाँ प्रत्यक्ष स्पर्श कर सकती हैं जैसे भूमि जल और वायु। 
ऊर्जा को हमारी इंद्रियाँ केवल महसूस कर सकती हैं जैसे ऊष्मा और दृश्य प्रकाश।
दिगकाल और आत्मा इन्द्रियातीत हैं। दिशाओं को हम जानते हैं पर छू नहीं सकते, आकाश को हम जानते हैं पर देखना असम्भव, वस्तुतः जो न दिखे वहीं आकाश अर्थात् स्पेस। आत्मा को भी प्रत्येक व्यक्ति और जीव “मैं-पना” से जानता और महसूस करता है पर उसे छू नहीं सकता, देख नहीं सकता। 

उस मैं का अपना अस्तित्व है। यह अस्तित्व अनंत काल से बना हुआ है और उसका अस्तित्व चलता ही जा रहा है। 

ब्रह्मांड जब अतिसुक्ष्म सुवर्णमेयी पिंड के रूप में था, तब उसमें यह मास, ऊर्जा, स्पेसटाइम और आत्मा सब कुछ समाये हुए था। उस पिंड में मॉस, एनर्जी, स्पेसटाइम और आत्मा सब एक साथ परम सत्ता के रूप में स्थिर भाव से थे की उसमें भयानक विक्षोभ से यह सब अलग थलग होकर बिखर पड़े और आज तक ब्रह्मांड फैलता चला ही जा रहा है। 

यह संसार इन मूल सत्ताओं का समुच्चय है। 
मॉस, एनर्जी के सहारे, स्पेस में, टाइम के क्रम में अपना खेल रच रहा होता हैं। यह जो खेल है वह ज्ञान है और उस ज्ञान का प्राप्तकर्ता आत्मा है। यदि यह ज्ञान प्राप्त न हो रहा होता तो प्राप्तकर्ता पर संशय उठता, पर ज्ञान तो प्राप्त हो रहा है। घटनाओं की उपलब्धि हो रही है। 

वस्तुतः ऐसा कोई स्थान नहीं जहां स्पेस और आत्मा की सत्ता न हो, तो भला सब कुछ ज्ञान मय क्यों नहीं?
ज्ञान का प्रकटीकरण होने के लिए “मैं-पने” का बोध आवश्यक है। यह मैं तभी आएगा जब उस मैं को अहंकार करने के लिए शरीर हो, उस शरीर पर ज्ञान को लेने के लिए इंद्रियाँ हों। 

तो क्या बिना इंद्रियों के ज्ञान नहीं? तो आत्मावस्था ज्ञान की अवस्था नहीं? 
आत्मावस्था ज्ञान की अवस्था तो है पर उसके प्रकटीकरण की नहीं। आत्मावस्था मौन की अवस्था है, आनंद की अवस्था है। नींद में व्यक्ति इंद्रियों को सिकोड़कर, अपने सारे अहंकार धन दौलत को भूलकर निढाल होकर पड़ जाता है, मौन में, आनंद में, प्रसन्न। जो है उसे भूलकर भी प्रसन्न, शांत, आनंद और विश्रांति। 

वस्तुतः आकाश, समय और आत्मा एकरस होकर समस्त ब्रह्मांड में एक साथ उपस्थित है। लेकिन चेतना का कुछ तत्व घनीभूत रह गया। वह घनीभूत ब्रह्मांड के चेतना में विलीन होने लायक़ स्थिति में नहीं रहता, सो वह प्रकटीकरण के लिये कोई न कोई वाहक खोजता है। जैसे जैसे उस चेतना का सरलीकरण होता है, वह ब्रह्मांड की चेतना में मिलने लायक़ अवस्था में आती जाती है, वह अहम भाव से जितना घनी है, मिलने का आसार उतना कम। 

क्या यह वास्तविक बात है की विस्तार के समय इस तरफ़ का घनीभूत रह जाना??
वास्तविकता तो यह है की द्रव्य में भिन्न भिन्न अनेकता उसके घनत्व के कारण ही आता है। ठोस, द्रव और गैस का अंतर भी घनत्व का अंतर है। परमाणुओं के भीतर इलेक्ट्रॉन प्रोटान और न्यूट्रान में अंतर भी घनत्व का है। यह कण भी टार्क से बने हैं। 
अब टार्क तीन हैं तो मामला स्थिर है और दो हुए तो कब टूटकर फोटान में बदल जाते हैं, पता ही नहीं चलता। एक बार फोटान में बदल गए तो अनंत की यात्रा शुरू। अनंत विस्तार का अर्थ है घनत्व का लगभग शून्य की तरफ़ जाना। इसी तरह का संबंध स्पेस और टाईम में भी है। स्पेस जितना मास के प्रभाव से खिचा रहेगा टाईम उतना धीमे होता जाएगा। स्पेस को अनंत घनीभूत का पिंड (ब्लैक होल) यदि पूरी तरह खींच ले तो समय शून्य हो जाता है, फिर उसमें विक्षोभ हो जाय तो वह चलने लगता है। 
सारा खेल ही घनत्व का है, तीव्रता का है। 

आप अपने को इतना सहज और सरल बनाइए की इस शरीर रूपी भौतिक पिंड से इसकी यात्रा बढ़ते बढ़ते ब्रह्मांड के प्रत्येक भाग में उपस्थित आकाश से लगी परम चेतना से हो जाय। यह जैसे ही होगा मोक्ष अर्थात् मिलन अर्थात् “मैं-पने” का नाश एक क्षण में हो जाएगा। 

डॉ भूपेंद्र सिंह जी
लोक संस्कृति विज्ञानी 

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