जैन ग्रंथों के अनुसार यह बात साबित है की नंद वंश आजीवक परम्परा के थे।

जैन ग्रंथों के अनुसार यह बात साबित है की नंद वंश आजीवक परम्परा के थे। 
आजीवक परम्परा और जैन परम्परा में इस कदर दुश्मनी थी की आजीवक जैनों की हत्या तक करते थे। इसका विशद वर्णन आज भी है। 
गौतम बुद्ध के अनुसार ब्राह्मणों और श्रमणों से सबसे बुरे आजीवक होते थे। 
चंद्रगुप्त मौर्य अंत समय में जैन संत के रूप में मैसूर के पास गुफा में गए और जैन विधि से भोजन त्याग करके मृत्यु को प्राप्त हुए। 

नंद ने प्रजा के लिए उस समय नहर आदि का निर्माण कराया था, जिसका वर्णन खारवेल के शिलालेख में मिलता है जो स्पष्ट बताता है की खारवेल ने महाराजा नंद द्वारा बनवाये नहरों, तालाबों को ठीक कराया। 

सम्राट अशोक का समय आते आते फिर से आजीवक सम्मान पाने लगे। ख़ासकर कलिंग विजय के बाद जब हृदय परिवर्तन हुआ। शिलालेखों में विभिन्न ब्राह्मण और श्रमण परम्परा में आपसी तालमेल बढ़ाने के लिए जब धर्माधिकारियों की नियुक्ति हुई तो आजीवक समाज के बीच भी एक नियुक्ति हुई। 
अशोक ने भी कई साज़ सज्जा युक्त गुफ़ाएँ आजीवक श्रमणों को दान किया, वहीं उसके पौत्र दशरथ मौर्य ने भी इस परम्परा का पालन किया और उसने आजीवक समाज को राज्य की तरफ़ से सुंदर गुफ़ाओं को बनवाकर दान किया। 

आजीवक नियतिवादी थे, उनका सभी लोग विरोध कर रहे थे लेकिन नंद वंश उनके साथ रहा। अंत में नंद वंश के समाप्त होते ही लुप्तप्राय हो गया। जहां जैन ग्रंथों के हिसाब से एक समय आजीवक परम्परा के गुरु मंखली गोशल के ११ लाख अनुयायी थे वहीं जैन परम्परा के १.६ लाख। 

आजीवक सब कुछ नियत मानते थे, उनके अनुसार सब पहले से तय है। परेशान होकर कुछ नहीं होगा। स्वभाव के आधार पर प्रसन्न भाव से काम करिए, जो मिले स्वीकार करिए।

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