जिन शास्त्रों से जिसका फ़ायदा है, वह उसे बचाना चाहता है और जिससे जिसका घाटा है जलाना चाहता है।


वे शास्त्र जो मानव जीवन के व्यवहार नियमन की दृष्टि से लिखे गए, उसमें लिखने वाला अपने लिए कुछ विशेष व्यवस्था बना ले, यह सोचना किसी भी तरह से हैरान नहीं करता। कोई भी अधिकारसंपन्न अपना अधिकार नहीं छोड़ना चाहता। 

न्यायाधीशों ने न्यायपालिका के स्वतंत्रता के नाम पर कॉलेजियम बना लिया, नेताओं ने ख़ुद के लिए पुरानी पेंशन जारी रखी, अधिकारियों ने अपने लिए विशेष सुविधाएँ बनाई। 

लिखने वालों ने शास्त्रों में अकबर को बाल मुकुंद ब्राह्मण लिख दिया, उसके दिए बिस्वे के आधार पर अपने समाज में भी ख़ुद को छोटा बड़ा कर दिया, किसी ने अल्लोपनिषद लिख दी। अब जिसने ये सब लिखा होगा वह कोई बेशर्म रहा होगा पर बेशर्म से बेशर्म व्यक्ति भी ख़ुद को जस्टिफ़ाई करता है। सो जब लोगों ने पूछा होगा की जो तुम कह रहे हो, उसका प्रमाण क्या है? तो उस बेशर्म ने उत्तर दिया होगा की शास्त्र स्वयं में प्रमाणित हैं। 
जबकि जो सत्य है उसे कभी किसी प्रमाण से भय नहीं लगता। चाहे वह प्रत्यक्ष हो, अनुमान हो, उपमान हो। चाहे उसकी परीक्षा एक बार हो, सौ बार हो, लगातार हो। 

अब यह तर्क भारत में कहाँ से आया की तर्क से दूर रहो, प्रमाण मत माँगों और कुछ भी अंट शंट लिखे बात को स्वयं में प्रमाणित मान लो?
तो यह यहाँ के लम्पट लोगों ने इस्लाम से सीखा। इस्लाम में भी प्रमाण की कोई आवश्यकता नहीं है। जो क़ुरान में लिखा वह अल्लाह की वाणी है, उसे मान लो। अपना दिमाग़ लगाने की कोई आवश्यकता नहीं। तो फिर दुनिया के हर मत मज़हब की किताबें प्रमाणित हैं।

जो भी व्यक्ति, समूह और संस्थान, समाज पर क़ब्ज़ा करके समाज का अपने हित में दुरुपयोग करना चाहते हैं सबसे पहले लोगों से उनकी सोचने की क्षमता छीन लेते हैं। शास्त्र के नाम पर आजकल चल रहा डिबेट इसी तरह से खींचा जा रहा है। 

कुछ लोगों ने कहा की संविधान में आग लगा दो क्यूँकि वह लोगों के जन्म के आधार पर बाटता है। मुझे बड़ी ख़ुशी हुई की लोग जन्म के आधार पर बाटने वाले संविधान पर बिना डरे प्रतिक्रिया दे रहे हैं। लेकिन ऐसे लोग यह नहीं बता पा रहे हैं की संविधान में यह आरक्षण की व्यवस्था आई ही क्यूँ? क्या यह अचानक प्रकट हो गया? 

EWS का आरक्षण आया तो संविधान, लोकतंत्र और संसद का हवाला देने वाले अलग दिशा में भागने लगे। कहने लगे की आज आपके पास सत्ता है तो चाहे जो कर लीजिए। क्यूँ भाई क्या सत्ता बिना चुनाव के आ गई? अच्छा इस आरक्षण के संदर्भ में भी सोचने वाली बात है की पहले सवर्णों में ग़रीबी आई की आरक्षण आया? क्या अचानक एक दिन सपने में EWS का आरक्षण टपक आया??

सीधी सी बात है, आपको स्पष्ट करना पड़ेगा की आप प्रत्येक हिंदू को जन्म के आधार सैद्धांतिक (आत्मा एवं शरीर के स्तर) तौर पर एक बराबर स्वयं मानते हैं की नहीं?
आप बहाने मत बनाइए की संविधान नहीं मानता, शास्त्र नहीं मानता। 
आप अपना अपना पक्ष तय करिए। 
एक समय पर आप एक ही रह सकते हैं, यदि आप जन्म मात्र के आधार पर सैद्धांतिक स्तर पर भेद दृष्टि रखते हैं तो आप खुले तौर पर हिंदू समाज के शत्रु हैं और नहीं रखते तो मित्र हैं।

एक साथ आप जन्म आधारित श्रेष्ठतावादी और हिंदूवादी दोनों नहीं रह सकते। 

मुझे शास्त्रों की कोई चिंता नहीं है, हिंदू समाज की है। 
जो समाज नष्ट हो गया, उसका शास्त्र भी कूड़े में चला गया। 
शास्त्र विशेषरूप से वह जो मानव जीवन के व्यवहार के सम्बंध में लिखे गये हैं, वह मानव जीवन के प्रति उत्तरदायी हैं, मानव जीवन उन शास्त्रों के लिए उत्तरदायी नहीं है अर्थात् यह सब शास्त्र मनुष्य जीवन को सहज, सरल, सुंदर और धारणाशक्तियुक्त बनाने के लिए हैं और यदि वे ख़ुद इसके विरोध में खड़े हो जाँय तो इसका महत्व हमारे लिए कूड़े से अधिक नहीं है। 
कबाड़ी को कूड़े से फ़ायदा है वह उसे ले जाय, बाक़ी समाज इस कूड़े से दूर रहे।  

लोक संस्कृति विज्ञानी
डॉ भूपेंद्र सिंह 

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