यतो कृष्णस्ततो धर्मः यतो धर्मस्ततो जयः ।


"दादाजी पर तो कोई वश नहीं चलता , माधव ।"
"शिखंडी को आगे करो , वे शिखंडी से युद्ध नहीं करेंगे । शिखंडी को सामने देखते ही वे अस्त्र-शस्त्र रख देंगे । तुम शिखंडी के पीछे से उन पर वार करो ।"
"पीछे से वार करूँ ? वह भी तब , जब उन्होंने अपने अस्त्र-शस्त्र रख दिए होंगे ? यह तो अधर्म है केशव ।"
"जो मैं कहता हूँ , वह करो ।"

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"द्रोण को पराजित करने के बारे में क्या सोचते हो , पार्थ ?"
"उनको पराजित करना तो असम्भव है , माधव ।"
"अच्छा ! मैं भीम भैया के द्वारा अश्वत्थामा नामक हाथी मरवा देता हूँ । फिर बड़े भैया के द्वारा उच्च स्वर में कहलवा देता हूँ - अश्वत्थामा मारा गया । द्रोण विचलित हो जाएँगे , बस यही एक उपाय है ।"

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"माधव , माधव ; अनर्थ हो गया । अश्वत्थामा की मृत्यु का भ्रामक समाचार सुनकर गुरुदेव ने शस्त्र रख दिया था और उसी अवस्था में धृष्टद्युम्न ने उनका सिर काट लिया ।"
"चलो , उधर चलें , पार्थ । उधर से कौरव सेना चढ़ी चली आ रही है ।"

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"क्या देख रहो पार्थ ? बाण चलाओ ।"
"कर्ण तो कीचड़ में धँसे अपने रथ को निकालने का प्रयास कर रहा है , माधव । वह निहत्था भी है और रथ के नीचे भी । इस अवस्था में उस पर बाण कैसे चलाऊँ ?"
"तुम्हें भाग्य से ही यह अवसर मिला है । उसका वध करो ।"
"यह तो अधर्म है , केशव ।"
"जो मैं कहता हूँ , वही धर्म है ।"

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"दुर्योधन तो भीम भैया पर भारी पड़ रहे हैं , केशव ।"
"यह तो होना ही था । उसने बहुत अभ्यास किया है ।"
"अब क्या होगा ?"
"मैं भीम भैया को कुछ संकेत करता हूँ ।"
"यह क्या केशव ? आप उन्हें कमर से नीचे प्रहार करने को कह रहे हैं ?"
"बस यही एक उपाय है ।"
"लेकिन यह तो अधर्म है , माधव ।"
"यही धर्म है , पार्थ ।"
"हम भी तो वही कर्म कर रहे हैं माधव , जो उन्होंने अभिमन्यु के साथ किया । फिर दोनों पक्षों में क्या अंतर रहा ?"
"अंतर है न । वे अधर्म के पक्षधर हैं , तुम धर्म के पक्षधर ।"
"मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा है , माधव । धर्म का सम्बन्ध कर्म से तो है न ?"
"नहीं ; धर्म का सम्बन्ध उद्देश्य से है पार्थ , कर्म से नहीं । एक ही कर्म करते हुए वे अधर्म-पथ पर हैं और तुम धर्म-पथ पर ।"
"क्या मुझे ऐसे कर्मों का फल नहीं भोगना पड़ेगा ?"
"अवश्य भोगना होगा । केवल तुम्हें ही नहीं , कर्म का फल तो सबको भोगना होगा , मुझे भी भोगना होगा । कर्म से तो पीछा छूट ही नहीं सकता ; किन्तु अभी तुम्हारा यही कर्तव्य-कर्म है । धर्म की संस्थापना ही कर्तव्य-कर्म है । धर्म को पुनर्प्रतिष्ठित करना ही मनुष्य-मात्र का कर्तव्य-कर्म है ।"

           यतो कृष्णस्ततो धर्मः यतो धर्मस्ततो जयः ।

                              जय श्रीकृष्ण

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