जाति आधारित श्रेष्ठता पर कुछ मित्रों के तर्क और जवाब।


१- गाय और कुत्ता एक बराबर नहीं हो सकता। 
गाय एक अलग जीव की जाति है और कुत्ता एक अलग जाति। जीवों के बीच जाति की परिभाषा न्याय दर्शन में सबसे स्पष्ट है और वह है समान प्रसव धर्म। कुत्ता के भिन्न भिन्न नस्ल आपस में संयोग करके कुत्ता पैदा कर सकते हैं, इसी प्रकार गाय भी। 
गाय और कुत्ते का संयोग नहीं हो सकता। 
हाँ, नीग्रो और मंगोलियन, ब्राह्मण और वैश्य आदि आपस में संयोग करके बच्चा पैदा कर सकते हैं। अतः गाय और कुत्ता का उदाहरण देकर जाति आधारित श्रेष्ठता की बात साबित नहीं हो सकती क्यूँकि जीव की जाति के रूप में सभी मनुष्य एक हैं। 


२- आम की कई वेरायटी होती है, अल्फाँसों और दशहरी ही श्रेष्ठ क्यों है?

पहले तो आम की वेरायटी में जाति एक होने पर भी नस्ल भेद है। बाहर के रूप रंग और स्वाद आदि से उसका अंतर स्पष्ट होता है जबकि सड़क पर चल रहे दो अलग अलग जाति के लोगों के केवल बाह्यरूप से अंतर स्थापित नहीं हो सकता। इसलिए यह उदाहरण भी ग़लत है। अधिकांश उत्तर एवं मध्य भारत की हिंदू आबादी चाहे जिस जाति के हों नस्ल और रक्त से एक हैं, कोई रूप रंग का विशेष भेद नहीं। 

३- कई बार दो वेराइटी में बाह्य अंतर बहुत नहीं मिलता फिर भी कोई अच्छा माना जाता है और कोई बुरा।



वैसे यह तर्क ही ग़लत है, परंतु फिर भी इसको इंटरटेन करते हैं। आम में कौन श्रेष्ठ है और कौन कम श्रेष्ठ, कौन ख़राब, इसका निर्धारण स्वयं आम नहीं करता, वह उसको खाने वाला तीसरा स्वतंत्र सत्ता अर्थात् मनुष्य करता है। दो संशय एक दूसरे का समाधान नहीं कर सकते। 
जब जातियों के बीच श्रेष्ठता निर्धारण की बात उठेगी तो इसका निर्धारण वह स्वयं अपने से नहीं कर सकते, किसी तीसरे स्वतंत्र विवेकवान सत्ता की आवश्यकता होगी लेकिन मनुष्य से बड़ी विवेकवान सत्ता धरती पर मौजूद नहीं हैं अतः सैद्धांतिक तौर पर सबको समान मानने के अतिरिक्त कोई रास्ता नहीं है। 

४- ब्राह्मण श्रेष्ठ है यह ग्रंथों में लिखा है, उसको तो मानना पड़ेगा?

ग्रंथ भी यदि ब्राह्मण ने लिखा हो तो यह आत्माश्रय तर्क से दूषित हो गया अर्थात् ब्राह्मण की श्रेष्ठता स्वयं ब्राह्मण स्थापित नहीं कर सकते। कोई संशय स्वयं का समाधान नहीं कर सकता, जिस पर प्रश्न है वह स्वयं उस पर गवाह नहीं बन सकता। 

५- किताबों में लिखी बात ईश्वर की बताई बातें हैं, इसलिए उनको मानना होगा।

क़ुरआन ईश्वर की वाणी है इसलिए उसको मानना, यह पूछने पर की यह कहाँ लिखा है की क़ुरआन ईश्वर की वाणी है तो जवाब यह देना की हदीस में। फिर पूछा जाय कि हदीस को मान्यता किस आधार पर मिलती है तो कहा जाय क़ुरआन से। तो इस तरह का तर्क चक्रिकाश्रय दोष से दूषित है। कहने का मतलब तीन चोर एक के बाद एक हर तीसरे को सच्चा होने का प्रमाण नहीं दे सकते। 
किताब में लिखी बात ईश्वर की बात है, यह बात भी कोई किताब कह रही है। यह बात अमान्य है।

६- भेद तो प्रकृतिजन्य है, उसको क्यों अस्वीकार करना?

भेद तो दो भाइयों में है, परिवार में है, एक ही जाति के अलग अलग समूह में है तो फिर व्यवहार का निर्धारण जाति के आधार पर क्यूँ? व्यक्ति आधारित क्यूँ नहीं??

७- यह सब नास्तिकता वाली बातें हैं, कर्मफल भी कुछ होता है। जो अच्छा कर्म करता है वह ब्राह्मण बनता है और जो बुरा करता है वह शूद्र।

सर्वप्रथम तो अच्छा कर्म करने से कोई ब्राह्मण ही पैदा होगा, यह सिद्ध होना बाक़ी है। यह बात कोई ब्राह्मण कहे तो संशय और बढ़ जाएगा। 
अब कर्मफल पर आते हैं। अच्छे कर्मफल से यदि व्यक्ति ब्राह्मण बनता तो कोई ब्राह्मण दुखी दरिद्र नहीं होता। कोई एक भी ब्राह्मण दुष्चरित्र न होता। यदि ख़राब कर्मफल से कोई शूद्र बनता तो एक भी शूद्र सुखी जीवन नहीं जीता। सब के सब अधार्मिक वृत्ति के होते।

८- जन्मआधारित यह व्यवस्था बहुत सोच समझकर बनाई गई थी। यह व्यवस्थापरक है। कोई काम छोटा बड़ा नहीं होता। 

अच्छी बात है। पर आख़िर एक ही समाज कितने समय तक गंदगी वाला काम करे? कुछ कुछ समय के बाद हर समाज अपना काम बदल ले और सरकारें ये काम करें तो फिर विरोध न हो।

दर्शन में नास्तिक दर्शन इस जीव को परमाणुओं का समूह मानता है, किसी परमाणु के मूल में कोई भेद नहीं है। आस्तिक दर्शन इस परमाणु रूपी अवयव का एक अवयवी अर्थात् आत्मा को मूल मानता है। दो आत्माओं में भी कोई भेद नहीं। 
भेददृष्टि विशेषरूप से समान नैतिक संहिता को मानने वालों में एक मूर्खता और लम्पटता है। जिसका वर्तमान समय में कोई फ़ायदा कम से कम श्रेष्ठ बनने वालों को नहीं मिलने वाला। इस मूर्खतापूर्ण काम से सिवाय समाज की नज़र में विलेन बनने के और कुछ हासिल नहीं करने वाले। 

हड़बड़ाइये नहीं। प्रतिक्रिया से बाहर निकलकर ध्यान से सोचिए। आप भी अपने वास्तविक जीवन में उसी का सम्मान करते हैं जिसका कर्म सम्मान के लायक़ है।

लोक संस्कृति विज्ञानी
डॉ भूपेंद्र सिंह जी 

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