जगतगुरु आदि शंकराचार्य जी की दिग्विजय यात्रा का वर्णक्रम अनुसार से वर्णन का प्रसंग ११.५

 

                                      ॐ

वक्रतुंडपुरी (चिद०) यह दक्षिण में प्राचीन तीर्थ क्षेत्र विशेष है यहां की नदी का नाम गन्धवती है । यह गणपति की उपासना का प्रधान क्षेत्र है। यहां पर ढंढुराज और वीरविघ्नेश नामक आचार्यों के साथ जो पाश, अंकुश आदि के चिन्हों को अपने शरीर पर धारण किए हुए थे आचार्य शंकर शास्त्रार्थ हुआ ( चिद -अ० २८) 

वासुकिक्षेत्र ( चिद०) - आचार्य ने यहां कुमारधारा नदी में स्नानकर स्वामी कार्तिकेय की विधिवत् अर्चना की । यह स्थान कार्तिकेय की उपासना का प्रधान क्षेत्र था। इसके पास ही कुमार पर्वत है जिसकी प्रदक्षिणा आचार्य ने की । कुमार की पूजा करते हुए शंकर ने कुछ दिन यहां बिताए थे -( चिद० अ०२९) 

विज्जलबिन्दु ( आ०) - इस स्थान का निर्देश आनन्दगिरि ने किया है और इसे हस्तिनापुर से दक्षिण पूर्व बतलाया है। अतः वर्तमान उतर प्रदेश के पश्चिमी हिस्से में इसे कहीं होना चाहिए । यह उस समय का एक प्रख्यात विद्यापीठ प्रतीत होता है। आनन्दगिरि के अनुसार मण्डन मिश्र का यही निवास स्थान था । मण्डन बहुत ही धनाढ्य व्यक्ति थे । विद्यार्थियों के लिए उन्होंने स्थान और भोजन का विशेष प्रबन्ध कर रखा था। उनके नाम तथा प्रबन्ध से आकृष्ट होकर छात्रों का बड़ा जमाव लगता था -( आनन्दगिरि प्रकरण ५१) 

विदर्भनगर ( मा०) - यह नगर वर्तमान बरार है । माधवाचार्य ने यहां शंकर के जाने का उल्लेख किया है। 

वेड्कटाचल ( मा० चिद०) - यह दक्षिण का प्रसिद्ध वैष्णव तीर्थस्थल है जिसे साधरण लोग बालाजी पुकारते हैं । यह आजकल एक बड़ा भारी धनाढ्य संस्थान है , जहां अभी संस्कृत विद्यालय स्थापित किया गया है  यहां विष्णु की पूजा पांचरात्र विधि से न होकर वैखानस विधि से की जाती है । वैष्णवो में वैखानस तंत्र विशेष महत्व रखता है । शंकर ने यहां  वेंकटेश की पूजा बड़े प्रेम भक्ति के साथ करके निवास किया था - ( चिद् विलास अ० २६) ।

वैकल्यगिरि (आ०) - आनन्दगिरि ने इस स्थान का निर्देश कांची के पास किया है ( प्रकरण ६३) । 

रूद्रपुर ( आ०) - यह स्थान श्रीपर्वत के पास कही दक्षिण में था । आचार्य तब श्री पर्वत पर निवास करते थे तब इस नगर के ब्रह्माणो ने आ करके कुमारिल भट्ट के कार्यो की बात कही थी । उनकी सूचना पाकर आचार्य यहां गये और यहीं पर इन्होंने कुमारिल का साक्षात्कार किया । आनन्दगिरि का यह कथन ( प्रकरण ५५ पृष्ठ १८०) अन्य किसी दिग्विजय के द्वारा पुष्ट नहीं होता । माधव ने स्पष्ट ही प्रयाग को शंकर और कुमारिल के भेंट होने का स्थान बतलाया है ।  

श्रीपर्वत - आजकल यह मद्रास प्रान्त के कर्नूल जिले प्रसिद्ध देवस्थान है । यहां का शिव मंदिर बड़ा विशाल भव्य है जिसकी लम्बाई ६६० फीट तथा चौड़ाई ५१० फीट है , जिसके दीवाल पर रामायण और महाभारत के सुन्दर चित्र अंकित किए गए हैं । यहां द्वादशो लिंगों में अन्यतम श्रीमल्लिकार्जुन तथा भ्रमराम्बा का स्थान है । इस मन्दिर की व्यवस्था आजकल पुष्पगिरी के शंकराचार्य की ओर से होती है प्राचीन काल मे यह सिद्ध क्षेत्र माना जाता था । माध्यमिक मत के नागार्जुन ने इसी पर तपास्या कर सिद्वि प्राप्त की थी तथा सिद्ध नागार्जुन का नाम अर्जन किया था । शंकराचार्य के समय में तो इसका प्रभाव तथा प्रसिद्ध बहुत ही अधिक थी । बाणभट्ट ने राजा हर्षवर्धन की प्रसंशा करते हुए उन्हें भक्त लोगों के मनोरथ सिद्ध करनेवाला श्रीपर्वत कहा है । भवभूति ने मालती माधव में इस स्थान की विशेष महिमा बतलायी है । किसी समय बौद्ध लोगों का प्रधान केंद्र था चैत्यवादी निकाय के जो दो पूर्व शैलीय और अपरशैलीय भेद थे वे इसी श्रीपर्वत से पूर्व और पश्चिम अवस्थित दो पर्वतों के कारण दिए गए थे कापालिकों का मुख्य केंद्र प्रतीत होता है । शंकराचार्य का उग्रभैरव के साथ यही संघर्ष हुआ था ( चिद० अ० २१) 


सुब्रमण्यम ( आ०) - आनन्दगिरि ने अनन्तशयन के पश्चिम १५ दिन यात्रा करने के अनन्तर यह स्थान मिला था , ऐसा लिखा है । यह कार्तिकेय का आविर्भाव माना गया है 
यही कुमारधारा नदी है जिससे स्नानकर शंकर ने पूजन किया था चिद विलास ने जिसे वासुकी क्षेत्र नाम से लिखा है यह स्थान प्रतीत होता है आनंदगिरि ने यहां पर शंकर के द्वारा हिरण्यगर्भत अग्निवादीमत तथा सौरमत के खण्डन की बात लिखी है । 

 

आचार्य शंकर के द्वारा स्थानो की यात्रा की गयी थी । जिन स्थानों के विषय में सब दिग्विजयो का एकमत हैं , वे क्रमश ये है । उज्जैनी कांची काशी द्वारिका , पुरी , प्रयाग बदरीनाथ रामेश्वरम श्रीपर्वत तथा हरिद्वार । ये समग्र स्थान धार्मिक महत्व के है अतः शंकराचार्य का इन स्थानों में जाना तथा विरोधी मतवालों को परास्त करना स्वाभाविक प्रतीत होता है । द्वारिका जगरनाथ पुरी बदरी तथा रामेश्वरम के पास तो उन्होंने मठो की स्थापना की अन्य स्थानों से आचार्य का घनिष्ठ सम्बन्ध था जिसका वर्णन पहले किया जा चुका है । 


जय श्री कृष्ण
दीपक कुमार द्विवेदी 

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