1930-35 तक सबको अंग्रेजों से आज़ादी चाहिए थी लेकिन जैसे ही पाकिस्तान का जिन्न छोड़ा गया, सबकी राह बदल गई।

1930-35 तक सबको अंग्रेजों से आज़ादी चाहिए थी लेकिन जैसे ही पाकिस्तान का जिन्न छोड़ा गया, सबकी राह बदल गई। 
सावरकर का पूरा ग्रुप जातिविरोधी आंदोलन में कूद गया। महात्मा गांधी ने हरिजन आंदोलन शुरू कर दिया। क्रांतिकारी आंदोलन भी समाप्त हो गया। संघ तब तक मध्य भारत में ठीकठाक पकड़ बना चुका था पर वह भी छुआछूत के ख़िलाफ़ काम में लगा रहा। आज़ादी के आंदोलन से दूर रहा। अम्बेडकर का ग्रुप पहले से ही इस आंदोलन पर काम कर रहा था। कल तक पूरा आर्य समाज जो क्रांतिकारियों को पैदा करने में लगा था, उसने घरवापसी पर जोर देना शुरू कर दिया। 
दरअसल जब हिंदू धड़े को यह पता चल गया कि मुसलमान एक अलग राष्ट्र चाहते हैं तब इनको आवश्यकता महसूस हुई कि हिंदुओं को एक करना होगा वरना समानांतर इस्लामिक राष्ट्र के सामने टिकेंगे कैसे?? और वह जो राष्ट्र बनेगा उसमें किस स्तर का खून ख़राबा होगा??
जो अंग्रेज प्रत्येक भारतीय धड़े को दुश्मन नज़र आ रहे थे, वह अचानक प्रत्येक धड़े को इस्लाम और हिंदुओं के बीच एक दीवार के रूप में नज़र आने लगे अर्थात् जितने दिन अंग्रेज रहेंगे कुल उतना ही दिन है इस्लाम के ख़िलाफ़ हिंदुओं को तैयार करने के लिए। वस्तुतः कोई भी भारतीय धड़ा 1935 के बाद अंग्रेजों से लड़ने के मूड में नहीं था। 1945 आते आते आज़ादी की जल्दबाज़ी मुस्लिम लीग को लगने लगी। बाक़ी सब चाहते थे कि अंग्रेज जितना दिन टिक सकें टिके रहें। 1947 में तमाम अच्छे राष्ट्रवादी कांग्रेसी नेता लार्ड माउंटबेटन से प्रार्थना करने गए थे कि वह देश को आज़ाद न करें तो क्या वह राष्ट्रद्रोही थे? नहीं। वह जान रहे थे आज़ादी के समय जब बटवारा होगा तो किस तरह का खून ख़राबा होने वाला है, जिसके लिये मुस्लिम हमेशा से तैयार थे पर हिंदुओं को इसके बारे में दूर दूर तक कोई थाह नहीं था। 
सुभाषचंद्र बोस एक मात्र व्यक्ति थे जिनको अंग्रेजों से आज़ादी चाहिए थी पर वह भी इस शर्त के साथ कि कम से कम उसके बाद दस वर्ष तक सैनिक शासन लगे, न कि चुनाव हो जबकि चुनाव काफ़ी पहले से ही भारत में शुरू हो चुका था। उन्होंने अंग्रेजों के विरुद्ध जापानियों के साथ स्वतंत्रता का बिगुल तो बजा दिया पर जिन जिन जगहों पर उन्होंने जीत हासिल की, उन जगह के लोगों को दोहरी मार झेलनी पड़ी। अंडमान के लोगों का जापानी सेनाओं द्वारा एक सप्ताह तक किया गया क़त्लेआम इस बात की स्पष्ट गवाही देता है जहां पर की एक बड़ी संख्या में लोगों को ख़ुद उनके मित्र सेना ने या तो गोली मार दिया अथवा समुद्र में डूबकर मरने को मजबूर कर दिया। 
भारत में भक्ति आंदोलन एवं नाम आंदोलन ने जातिवाद विरोधी लड़ाई शुरू की लेकिन उसकी कभी राष्ट्रीय स्तर पर आवश्यकता महसूस नहीं हुई। अंग्रेजों के आने से भारत सांस्कृतिक राष्ट्र से शासकीय राष्ट्र में परिवर्तित हुआ। महात्मा गांधी के आंदोलनों एवं क्रांतिकारियों के बलिदान ने उस शासकीय राष्ट्रवाद के जड़ को और मज़बूत किया। पाकिस्तान की माँग ने पहली बार हिंदुओं को एक राष्ट्र और एक समूह के रूप में सोचने को मज़बूर किया। इस मजबूरी ने हिंदुओं को जाति से हिंदू बनने को प्रेरित किया। इस घटना में वीर सावरकर, महात्मा गांधी, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, स्वामी विवेकानंद और आर्य समाज ने कैटलिस्ट का काम किया। अम्बेडकर के आंदोलन एवं दबावों ने हिंदू समाज को सोचने पर मजबूर किया जिससे हम में ऐसा चारित्रिक बदलाव हुआ जिस कारण हम उस समाज के प्रति संवेदनशील होना शुरू हुए जिसके लिए सबसे अधिक संवेदनशील होने की आवश्यकता थी। 
बाहर से सब अलग अलग लग रहे धड़े वास्तव में एक कारण के लिए कार्य कर रहे थे। उनमें आपस में तमाम विरोध कार्य पद्धति को लेकर था पर लक्ष्य सबका एक था। जैसे जैसे मैं अपने सोचने के दायरे को बढ़ा रहा हूँ और पूर्वाग्रहमुक्त होता जा रहा हूँ मुझे सब एक लग रहे हैं। 
सांस्कृतिक एवं शासकीय राष्ट्रवाद की मज़बूती एवं हिंदू प्रथम पहचान, आज के समय में भी हमें इन्हीं दोनों पर कार्य करने की आवश्यकता है और इसके लिए दार्शनिक स्तर पर एकात्मवाद के धारणा को और गहराई से समझने की आवश्यकता है।

डॉ भूपेन्द्र सिंह
लोकसंस्कृति विज्ञानी

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