उपनिषदों के गूढ़ रहस्यों को पुराणों के माध्यम से सुगमतापूर्वक कैसे समझ सकते हैं आइए जानें?

 

जीव और जगत के सम्बन्धको लेकर उपनिषदों का कथन इस प्रकार है जैसे मकड़ी अपने स्वरूप से ही जाले को बनाती और पुनः उसे निगल लेती है , जैसे  पृथ्वी से अन्न आदि ओषधियां उत्पन्न होती है , जैसे जीवित पुरुष से ही केश लोम आदि उत्पन्न होते हैं , उसी प्रकार अक्षर ब्रह्म से यहां सम्पूर्ण जगत प्रगट होता है (, मुण्डक०) यह संपूर्ण विश्व ब्रह्रा ही है ( मुण्डक०) यह सब कुछ एतदात्मक ( ब्रह्मास्वरूप) है । ( छान्दोग्य ०), 

उपनिषदो में अक्षि ब्रह्म और आकाश ब्रह्म की उपासना आदि साधनों का भी वर्णन हुआ है आत्मतत्वका सुगमता पूर्वक बोध हो, इसके लिए परम सुन्दर , बोध शुलभ आख्यायिकाओं और दृष्टिन्तोका उल्लेख किया गया है । इस प्रकार सर्वांग परिपूर्ण सर्व शुलभ और सबके लिए लिए हित कर इन उपनिषदों का आश्रय लेना सबका कर्तव्य है। उपनिषदों के अर्थ का निर्णय करने के लिए महर्षि बादरायण ( व्यास) ने ब्रह्रासूत्रो का निर्माण किया गया है तथा भाष्य लिखे हैं। इन्ही उपनिषदों के सार भूत अर्थ का भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को गीता में उपदेश दिया है। उपनिषदों का अभिप्राय सब लोग सुगमतापूर्वक समझ सके इसी लिए पुराण इतिहास आदि ग्रंथों का प्राकट्य हुआ है। 


उपनिषद , बह्रासूत्र गीता में वेदांत दर्शन के तीन प्रस्थान है । इन्हें प्रस्थानत्रयी कहते हैं । इनमें उपनिषद श्रवणात्मक ब्रह्रासूत्र मननात्मक और गीता निदिध्यासनात्मक है। 


उपनिषदों में मुख्यतया आत्म ज्ञान का निरूपण होने पर भी द्विज के लिए उनमें जिन कर्तव्यो का उपदेश दिया गया है, वे निश्चय ही सबके लिए परम हितकर है। तैत्तिरीय - उपनिषद में उनका बहुत सुन्दर रूप से वर्णन हुआ है । इस लेख अन्त में उन उपनिषदों स्मरण कराया जाता है _

वेद का भलीभांति अध्ययन कराकर आचार्य अपने शिष्यों को उपदेश देते हैं _१ सत्य बोलो 
२ धर्म का आचरण करो । 
३ स्वाध्याय से कभी न चुको ।
 ४ आचार्य के लिए दक्षिणा के रूप में वाञि्छत धन लाकर दो फिर उनकी आज्ञा से गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करके संतान परंपरा को चालू रखो , उसका उच्छेद न करना
 ५ सत्य से कभी डिगना चाहिए । 
६ धर्म से नहीं डिगना चाहिये । 
७ शुभ कर्मो से कभी नहीं चुकना चाहिए । 
८ उन्नातिको साधनों से कभी नहीं चुकना चाहिए । 
९ वेदो के पढ़ने और पढ़ाने में कभी भूल नहीं करनी चाहिए । 
१० . देवकार्य और पितृकार्य की ओर से कभी प्रमाद नहीं करना चाहिए । 
११ , तुम माता में देवबुद्वि करनेवाले बनो 
१२ पिता को देव रूप समझने वाले बनो 
१३ आचार्य में देव बुद्धि रखनेवाले बनो । 
१४ अतिथियों देवतुल्य समझने वाले बनो 
१५ जो जो निर्दोष कर्म है 
१६ उन्ही का तुम्हे सेवन करना चाहिए 
१७ दूसरो का नहीं 
१८ जो कोई भी तुमसे श्रेष्ठ गुरु जन यख ब्राह्मण आये। 
१९ उनको तुम्हें आसन आदि के द्वारा सेवा करके विश्राम देना चाहिए 
२० श्रद्धापूर्वक दान देना चाहिए 
२१ बिना श्रद्धा के नहीं देना चाहिए 
२२ आर्थिक स्थिति के अनुसार देना चाहिए 
१३ लज्जा संकोच पूर्वक देना चाहिए । 
१४भय से देना चाहिए
 २४५विवेक पूर्वक देना चाहिए । 
२६इसके बाद यदि कर्तव्य निर्णय करने में किसी प्रकार की शंका हो अथवा सदा चार के विषय में कोई शंका हो 
२७ तो वहां जो उतम विचारवाले ब्राह्मण हो 
२८ जो कि परामर्श देने में कुशल हो कर्म और सदा चार में पूर्णतः संलग्न हो 
२१ स्रिग्ध स्वभाव वाले तथा एकमात्र धर्म के अभिलाषी हो 
३० वे  जिस प्रकार उन कर्मों और आचारणो में बर्ताव करे । 
३१ वैसे ही उनमें तुमको भी बर्ताव करना चाहिए। 
३२ तथा यदि किसी दोष से लाञि्छत मनुष्यो के साथ बर्ताव करने में सन्देह उत्पन्न हो जाय तो भी । 
३३ जो वह उतम विचार वाले ब्रह्माण हो 
३४ जो परामर्श देने में में कुशल हो, कर्म और सदाचार में पूर्णतः संलग्न हो 
३५ रूखेपन से रहित और धर्म के अभिलाषी हो 
३६ वे उनके साथ जैसा बर्ताव करते हो 
३७ तुम भी उनके साथ वैसा बर्ताव करो 
३८ यह शास्त्र की आज्ञा है । 
३९ यही गुरु जनो का शिष्यों के प्रति उपदेश है 
४० यह वेदों का रहस्य है 
४१ यह परंपरागत शिक्षा है 
१२ इसी प्रकार तुमको अनुष्ठान करना चाहिए 
४३ निश्चय इसी प्रकार यह अनुष्ठान करना चाहिए  

पज्ञानांशशुप्रतानै: स्थितिचरनिकर व्यापिभिव्यार्य  लोकान 
भुक्तात्वा भोगान् स्थविष्ठान पुनरपि धिषणो  
द्वासितान् कामजन्यान । 
पीत्वा सर्वान विशेषांक स्वपिति मधुरभुड़ 
मायया भोजयन्नो 
माया संख्या तुरीयं परममृतमजं 
ब्रह्म यतन्नोतोऽस्मि ।। 
अजमपि जनियोग प्रापदैश्वर्ययोगा 
दगति च गतिमता प्रापदेंक हानेकम ।
विविधविष्यधर्मग्राही मुग्धेक्षणानां 
प्रणतभयविहन्तृ ब्रह्रा यतन्नोऽस्मि ।।



जय श्री कृष्ण 



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