उपनिषद का तात्पर्य क्या है आईए जाने ?

 

मुमुक्षाके होने पर ही उपनीत द्विजाति उपनिषदोकें विचारात्मक श्रवण का अधिकारी होता है। जैसे आलोकादिसहकारिसकृत मन संयुक्त चक्षु से ही रूप का बोध होता है अन्यथा ही होता है: इसी प्रकार साधन चतुष्टयसम्पन्न अधिकारी को ही उपक्रमोसंहारादि षड्विदध लिंगो द्वारा ब्रह्रा में तात्पर्य निर्धारण रुप उपनिषत श्रवण से ही ब्रह्म का साक्षात्कार होता है , अन्य किसी साधन से नहीं । पूर्वोक्त कार्यकलाप सहित उपनिषत श्रवण से  अवश्य ही ब्रह्म साक्षात्कार होता है ‌। जैसे श्मशान की अग्नि और गार्हपत्य अग्नि में पवित्रता अपवित्रताका महान अन्तर होता है , वैसे ही मनमानी रेडियो सुनकर या अखबार आदि पढ़कर उत्पन्न ज्ञान और ब्रह्मचर्यव्रत गुरु शुश्रुषादि शास्रों शास्रोंक्त नियमोंके साथ उत्पन्न ज्ञान में पवित्रता अपवित्रता निर्वीर्यत वीर्यवतरता आदि का महान अन्तर रहता है । इसलिए सदाचार स्वधर्म निष्ट तपस्या उपासना ब्रहाचार्य , गुरु शुश्रुषादि नियमोके साथ अधिकारी को ही उपनिषदो का विचार लाभदायक होता है ,  अज्ञ अर्धबुद्वि को उपनिषदो के महावाक्यों का उपदेश अनर्थकारक होता है 

अज्ञस्याल्पप्रबुद्वस्य सर्व ब्रहोति तो वदेत । 
महानिरयजालेषु स।  तेन     विनियोजित ।। 


उपनिषदों के महातात्पर्यका विषय अदृश्य अग्राह्य अलक्षण अचिन्त्य अनिर्वाच्य लीला शक्ति के योग से अनन्त कल्याणगुणगणनिलय सगुण एवं सौंदर्य माधुर्य सौरस्य सौगन्ध्य सुधाजलनिधि अनन्तकोटिकन्दर्प दर्पदमनपटीयान् साकार भी होता है । सदाशिव श्रीमन्नारायण श्रीरामचन्द्र श्री कृष्ण , उमा रमा सीता राधा आदि अनेक रुप उसी परब्रहा के है । इसलिये उपनिषदर्थनिर्णाक ब्रहासूत्रोद्वारा विभिन्न आचार्योंने विभिन्न स्वरूपों से उसी ब्रह्म का प्रतिपादन किया है। गुरु एवं इष्टकी तथा श्रद्धा , ध्यान पराभक्ति की तत्वसाक्षात्कारम अत्यन्त आवश्यकता होती है ।  

मस्त देवे परा भक्ति श्रद्धा भक्ति ज्ञानयोगादवेहि 

जिससे अनन्तकोटिब्रहाण्डात्मक विश्व की उत्पत्ति स्थिति एवं प्रलय होता है , वही उपनिषदर्थ ब्रह्म है । आकाश का कारण अहम अहंका भी कायम महान महानका भी कारण अव्यक्त है । अव्यक्त उपनिषदर्थ ब्रहासे उत्पन्न या उसमें अध्यस्त होता है । तदैक्षत एकोऽहम  इत्यादि ईक्षण और अहं ही महान और अहं है। अहं। महान ईक्षण निद्रा और अव्यक्त इन सबका साक्षी भासक निर्दृश्यमान ही उपनिषदर्थ ब्रह्म है उस अखण्डबोधस्वरुप भान की अत्यंत अबाध्यता ही सद्रूपता सद्रूप उसी तत्व की अवेद्यत्वे सति अपरोक्षता ही चिद्रूपता और सच्चिद्रूप उसी परमात्मतत्व की सर्वोपप्लव नरविधि नि सीमा आनन्द ही ब्रह्म है सर्वबाधावधि अत्यन्ताबाध्यता ही उसकी अमृतता एवं सत्यता है । अग्नि चन्द्र विद्युत सूर्य से भी सूक्ष्म मन बुद्धि एवं असमर्थ हैं परन्तु उन सबका प्रकाशक सबसे सूक्ष्म भान ज्ञानस्वरूप आत्मा है । जैसे दर्पणभान के अनन्तर तत्सस्थ प्रतिबिम्ब भासित होता है अथवा सौरादि आलोकके भान के अन्तन्तर नील पीत आदि भासित होते हैं । वैसे शुद्ध भाव स्वरूप प्रत्यग् ब्रह्म भान के अन्तन्तर ही असमर्थ ईक्षण अव्यक्त आदि भासित होते हैं।   


तमेव भान्तमनुभाति सर्व तस्य भासा सर्विलांस विभाति। । 

घटादिकी अपरोक्षता मनश्रक्षु आलोकादिसाक्षेप है परन्तु प्रत्यक् की अपरोक्षता सर्वनिरपेक्ष स्वतं है (यत्साक्षादपरोक्षादब्रहा ) सर्व कारण सर्वाधिष्टानस्वरुप पत्यकचैतन्याभिन्न पयब्रहासे भिन्न सप्पूर्ण जगत उसी प्रकार मिथ्या है , जैसे रज्जु में कल्पित सर्पादि रज्जु से भिन्न होकर सर्वथा मिथ्या है । जैसे मृतिका ही घट शरावादिरुपेण सुवर्ण ही कटक मुकुट कुण्डलादिरुपेण जल ही तरंगदिरुपेण प्रतीत होते हैं वैसे ही भगवान भी प्रपंचरुपेण प्रतीत होते हुए आरभ्भवाद परिणामवाद भी तत्वनिश्रयके लिए किसी कक्षा में। मान्य होते हैं परन्तु क्षपितकल्पमष विद्वान तो विवर्त ही समझता है । जगदाकारेण परिणममाना माया का अधिष्टानभूत ब्रह्म ही दृष्टि भेद से माया के कारण ही अतात्विक अतएव असमसताक अन्यथाभावपन्न होने से विवर्ताधिष्ठान कहलाता है । स्वरूपन्तसे चितचाश्रल्यके कारण भी उसमें मिथ्या द्वैत प्रतिभास होता है । वस्तुत कार्यकारणतीत नित्यरस्तनिखिलप्रचविभ्रम , आज, अनिद्रा , अवस्वन्न स्व प्रकाश , अपार अनन्त संलग्न चिदघन आनन्दघन ब्रहा ही सबकुछ है । जैसे  विम्ब प्रतिबिम्बका भेद प्रतीत होते हुए भी वास्तव में वह भेद मिथ्या है । बिम्ब से अतिरिक्त प्रतिबिंब कोई वस्तु नहीं है । विम्ब ही प्रति बिम्बात्मना प्रतीत होता, है , वैसे ही जीवात्मा परमात्माका भेद भी मिथ्या है । वस्तुत परमात्मा ही उपनिषद के द्वारा जीवात्मा स्वरूप से प्रतीत होता है । इसी तरह अहंकारादि उपाधिके कारण ही आत्मामे मिथ्या तरह अहंकारादि उपाधिके कारण ही आत्मा में मिथ्या कर्तव्य उसी प्रकार प्रतीत होता है जैसे जपाकुमादिके संसर्ग से स्वच्छ स्फटिक में लौहित्य प्रतीत होता है। जिस प्रकार घट मठ आदि उपाधि में रहता हुआ आकाश वस्तुत सर्वथा असगंध ही रहता है तदगत गुणों और दुषणोसे वह लिप्त नहीं होता । उत्पत्तिविपरीतक्रमेण संपूर्ण ब्रहा ही अवशिष्ट रह जाता है , अथवा वागुपलक्षित अस्मिता मात्रा में , उस शान्त शुद्ध चिद घन में प्रति संहत कर लेने पर फिर शुद्ध अद्वितीय ब्रहा ही स्फुरित होता है।  


यच्छेद्वाड्मनसी प्राज्ञ तद्यच्छेन्ज्ञान आत्मनि । 
ज्ञानमात्मनि महति तद्यच्छेच्छात   आत्मनि।। 


इसी वस्तुस्थिति को एकमेव के एवं से दृढ़ किया गया है  । 
इसी को नेह नानास्ति किंचन नात्र काचन गया है इसी को भिदा के किंचन एवं काचन से स्पष्ट किया गया है अचिन्त्यानिर्वाच्य माया के कारण सकल वाड् मानस व्यपदेशभाक प्रत्यक चिति ही सकल मनैवचनप्रप़चञातिगता है । यही उपनिषदों सार है फिर भी पूर्णरूपेण वर्मा  श्रमानुसारी धर्मानुष्ठान एवं परा भगवद्भक्ति के बिना उपनिषदर्थ बोध एवं तन्निष्ठा अत्यन्त दुर्लभ है इसलिए  


तमेतामात्मानं ब्राह्मणा यज्ञेय दानेन तपसानाशकेन विविदिषन्ति 
 

इत्यादि वचनोंद्वारा वेदवेत्ता या इष्यमाणा वेदना में यज्ञ तप दानादिका उपयोग बतलाया गया है ब्रहाचार्य सदुपासना सदाचार आदि का पद पदपर उपनिषदो में समर्थन मिलता है पंचाग्नि विद्या वैश्वानर विद्या दहर विद्या आदि अनेक उपसनाओ का प्रतिपादन भी ब्रह्म साक्षात्कार की सुविधा के लिए ही किया गया गया है । लय एवं विक्षेप दोनों अवस्था में तत्वसाक्षात्कार में कठिनाई पड़ती है सुषुष्तिकी निद्रा एवं जाग्रत स्वरूप द्वैतदर्शन अवरूद्ध हो , तब निश्रल अनिद्रा प्रबुद्ध अविक्षिप्त चित पर प्रत्यग्ब्रह्राका साक्षात्कार होता है यत्नतिशयसाध्य निर्विकल्प समाधान अथवा सुषुप्ति प्रबोधन्धि वृतिसन्थि तथा दण्डायमान दीर्घनिर्विषयवृतिपर युक्ति से ब्रह्मनुभव किया जा सकता है फिर भी भी उपनिषदन्मानापनोद्य ब्रहाश्रय ब्रहाविषय मूलाज्ञान से नाशार्थ उपनिषद्वचार अत्यंत अपेक्षित है । परंपरा से जो विधिवत् उपनीत वासिष्ठ , भागवत , विष्णु पुराण दि श्रवणद्वारा भी तत्वबोध प्राप्त हो सकता है। 



जय श्री कृष्ण 

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