जब आपको दूराग्रह और तर्क में अंतर न पता हो तो आप तर्क को नीरस मान लेते हैं।



तार्किक सभी संभावनाओं पर विचार करता है। 

सामान्य आस्था आधारित आस्तिक एवं सामान्य अनास्था आधारित नास्तिक प्रायः उपस्थित सभी सम्भावनाओं में से अपने सुविधानुसार कुछ सम्भावनाओं को नकार जाते हैं। 

तार्किक व्यक्ति कभी भी किसी भी संभावना से इनकार नहीं करता बल्कि वह उन संभावनाओं में से सबसे सटीक संभावना की खोज करता है अथवा खोज में लगा रहता है। 

तर्क कोई वाद नहीं है, सभी वादों से मुक्त व्यक्ति ही तर्क करने योग्य होता है। तर्क किसी के प्रति आस्था अथवा अनास्था नहीं है बल्कि आस्था एवं अनास्था के पीछे के मूल कारण की खोज है। 

सामान्य व्यक्ति तर्क नहीं कर सकते तो इससे तर्क की सत्ता निम्न नहीं हो जाती, जैसे सामान्य व्यक्ति समाधिस्थ नहीं हो पाते तो इससे समाधि की सत्ता निम्न नहीं होती।

तार्किक होना एक आशीर्वाद है। जिस व्यक्ति को शास्त्रीय संगीत के बारे में नहीं पता उसे वह एक मज़ाक़ लगता है पर जो उसके स्वाद को जानता है उसे पता है कि यह एक आशीर्वाद है। 

बिना तर्क के आस्था छलावा को आमंत्रित करती है। 
तर्क और आस्था एक दूसरे के विरोधी नहीं बल्कि सहयोगी हैं। 
तर्क से उत्पन्न आस्था पक्की और मज़बूत होती है। 
तर्क का एक मात्र अर्थ है मिथ्या ज्ञान से मुक्ति और वास्तविक ज्ञान की उपलब्धि। 
ज्ञान से कभी किसी का अनिष्ट नहीं हो सकता। 
वस्तुतः ज्ञान की प्राप्ति जीवन का उद्देश्य है। 

तर्क का विरोध करने वाले वस्तुतः या तो तर्क को समझते नहीं अथवा दूराग्रह को ही तर्क मान लेते हैं। 

प्रत्येक व्यक्ति को जीवन के हर क्षेत्र में तार्किक होना ही चाहिये, जिसमें यह क्षमता नहीं है उसके प्रति सहानुभूति होनी चाहिए।

डॉ भूपेन्द्र सिंह
लोकसंस्कृति विज्ञानी

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