अपौरुषेयताका का अभिप्राय क्या है भाग १

 

वेद शब्द का अर्थ ज्ञान है । वेद पुरुष के शिरोभाग को उपनिषद कहते हैं। उप ( व्यवधानरहित ) नि संपूर्ण षद ज्ञान ही उसके अवयवार्थ है। अर्थात वह सर्वोत्तम ज्ञान जो ज्ञेयसे अभिन्न एवं देश काल , वस्तु के पारिच्छेदसे रहित परिपूर्ण ब्रह्रा है उपनिषद पद का अभिप्रेत अर्थ है । इसलिए जब तक ज्ञान से स्वरूप का ठीक ठीक विचार न कर लिया जायगा , तब तक उपनिषद क्या है , यह बात स्पष्ट नहीं हो सकेंगी । 


पहली बात - ज्ञान स्वत: प्रमाण नहीं इसका अभिप्राय यह है कि किसी पदार्थका यथार्थ निश्चय करने में ज्ञान ही अन्तिम निर्णायक होगा सम्पूर्ण व्यवहार अपने ज्ञान के आधार पर ही चलता है । किसी भी विषय के होने एवं न होने का निर्णय करने में ज्ञान अन्तिम कारण होगा । उदाहरणार्थ विषय की सत्ता इन्द्रियों से , इन्द्रियों की मनसे , मन की बुद्धि से और बुद्धि की सत्ता इन्द्रियो से इन्द्रियो की मनसे, मनकी बुद्धि से बुद्धि की ज्ञान स्वरूप आत्मा से निश्चित होती है । आज्ञान का अनुभव भी ज्ञान ही : परन्तु ज्ञान को प्रमाणित करने के लिए क्या ज्ञान से भिन्न पदार्थ की आवश्यकता होगी ? कदापि नहीं । 
प्रमाता , प्रमाण एवं प्रमेय की त्रिपुटी ज्ञान के द्वारा ही प्रकाशित होती है । इसलिए ज्ञान की सिद्धि के लिए उनकी कोई अपेक्षा नहीं है । तो भी कह सकते हैं कि  इस त्रिपुटी के भाव और अभाव का प्रकाशन ज्ञान ही है । वे रहें तब भी ज्ञान है और न रहे तब भी ज्ञान के बिना उन्हें अनुभव ही कौन करेगा । त्रिपुटी में ज्ञान का अन्वयः है और ज्ञान त्रिपुटी से व्यातिरिक्त है । इसलिए ज्ञान की सत्ता अखण्ड है । प्रमाणो को द्वारा ज्ञान की सिद्धि नहीं होती ज्ञान से समस्त प्रमाण प्रमेय आदि व्यवहार सिद्ध होते हैं । तात्पर्य यह कि ज्ञान का प्रामाण्य स्वत है परत नहीं । 

दूसरी बात - ज्ञान स्वयं प्रकाश है । यह कर्ता कारण क्रिया एवं फलके अधीन नहीं है कर्ता करोड़ प्रयत्न करके भी स्थाणु ज्ञान को पुरूष ज्ञान नहीं बना सकता । मान्यता कर्ता के अधीन होती है वह अपनी  मानी हुई वस्तु को गणेश माने सूर्य माने बाद में फेर फार कर दे बिल्कुल ही छोड़ दे इन सब बातों में स्वतंत्र होता है । परन्तु यह ज्ञान नहीं है , यह तो कर्ता की कृति है , जिसको वह स्वयं गढ़ता है और बाद में स्वतंत्र मान लेता है । ये मान्यताएं प्रत्येक कर्ता की, संप्रदायकी , जाति की और राष्ट्र की अलग अलग हो सकतीं हैं और होती है परन्तु ज्ञान सबका एक होता है । स्थाणुको भिन्न भिन्न मनुष्य चोर सिपाही अथवा भूत के रूप में मान ले  सकते हैं ।  परन्तु ज्ञान सबका एक ही होगा कि यह स्थाणु है । पुरूष  भेद से ज्ञान में भेद नहीं हो सकता । क्योंकि किसी भी पुरुष के द्वारा अथवा पुरूष विशेष द्वारा ज्ञान का निर्माण अथवा रचना नहीं हो होती । यहां तक कि ईश्वर भी ज्ञान का कर्ता नहीं होता । वह तो स्वयं ज्ञान स्वरूप है। यदि ईश्वर ज्ञान का कर्ता हो तो ज्ञान रूप कर्म के पूर्व ईश्वर ज्ञान का अभाव किसी भी प्रमाण या अनुभव भी तो ज्ञान रूप होगा । अभिप्राय यह है कि ज्ञान साधन साध्य नहीं है, सिद्ध है उसके कारण के रूप में आज्ञाकारी अथवा ज्ञानन्तरकी कल्पना नितांत असंगत है इसलिए ज्ञान स्वयं प्रकाश है  


तीसरी बात - ज्ञान काल परिच्छिन्न नहीं है जब यह सोचने लगते हैं कि यह ज्ञान भूत है और यह ज्ञान भविष्य है तब हम मानो यह स्वीकार कर लेते हैं कि काल की धारा में ज्ञान का उदय एवं विलय हुआ करता है अर्थात ज्ञान क्षणिक । पंरतु यह क्षण ही क्या है जिसकी पृथकताका आरोप ज्ञान पर किया जाता है। प्रश्न यह है कि काल सावयव है अथवा निरवयव? यदि निरवयव है तो उसमें भूत भविष्य एवं कला काष्ठा आदि के भेद ही सम्भव नहीं है , वह ब्रह्म ही है यदि सावयव है तो ज्ञान उसके भिन्न अवयवोका प्रकाशपर आरोपित नहीं किया जा सकेगा । जैसे घट पटादिके भिन्न भिन्न होने पर भी उनको प्रकाशित करने वाले प्रकाश में भेद कल्पना कोई प्रसंग नहीं है ऐसे ही कला काष्ठा आदि रूप काल के अवयवों में भेद होने पर भी उनके प्रकाशक ज्ञान में भेद कल्पना का अवसर नहीं है । सच्ची बात तो यह कि काल भेद की कल्पना ही निर्मूल है । कल्पना करे कि क्या कभी काल का अभाव था या काल का अभाव होगा जिस काल में हम काल के अभाव की कल्पना करेंगे , वह भी काल होगा और काल के अभाव की कल्पना को निवृत कर देगा अभावरहित वस्तु निरंश होती है गुणन अथवा विभाजन केवल सांश वस्तु में हो सकता है  निर्धन में नहीं इसलिए अभावरहित काल में कला काष्टादिरूप अवयवके आधार पर भूत भविष्य की कल्पना करना निर सार है । तब ये जो भूत भविष्य मालूम पड़ते हैं वे है क्या? संविन्मात्र है । कोई भी संविन्मात्र वस्तु संवित को परिच्छिन्न नहीं बना सकती । इसलिए ज्ञान काल परिच्छिन्न नहीं है । 




जय श्री कृष्ण 

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