अपौरुषेयताका का अभिप्राय क्या है भाग २



चौथी बात - ज्ञान में देश परिच्छेद भी नहीं है । ज्ञान मे काल परिच्छेद का निषेध करते समय यह बात स्पष्ट हो चुकी है कि यह जो धारा अथवा क्रम की संवित है , यह कालनिष्ठ नहीं है संविन्मात्र ही है । जैसे स्व प्रके पचासों वर्ष काल के अवयव नहीं है , संविद्रूप ज्ञान के द्वितीयत्व सद्वितीयत्वकी प्रतीति संविन्मात्र ही , वैसे ही जो धैर्य विस्तार कल्पना हो रही है , हो भी भी संवित से भिन्न नहीं है। 
पूर्व पश्चिम उत्तर आदि के रूप में प्रतीतियां देश भेद देशनिष्ट है अथवा पृथ्वी , सूर्य ध्रुव आदि ग्रहण क्षत्रनिष्ट है? ग्रहन नक्षत्र है , देश नहीं । तब क्या अन्यगत भेद का अन्यपर आरोपित करना न्यायोचित है? कदापि नहीं। काल के समान ही कही भी देश का अभाव नहीं है। जिस देश में देश के अभाव कि कल्पना की जायगी , वह भी देश ही होगा । अभाव रहित देश ब्रह्रा है। पूर्व पश्चिम आदि एवं दैघर्य विस्तार आदि की कल्पना वस्तुनिष्ठ नहीं , संविन्मात्र है, ठीक वैसी ही जैसी स्वप्न देश की लम्बाई चौड़ाई स्वयं  प्रकाश ज्ञान के द्वारा प्रकाशित देश भेद ज्ञान का भेद नहीं हो सकता । इसलिए ज्ञान देश परिच्छेद से रहित है।  

पांचवीं बात --- विषय परिच्छेद भी ज्ञान का परिवेश का नहीं है , सबसे पहले तो यह विचार करने योग्य है कि विषय देश काल परिच्छेद के आश्रित है या नहीं? जब भी कोई विषय प्रकाशित होगा, अपने को किसी न किसी काल और देश में ही प्रकाशित करेगा । देश और काल भेद की कल्पना के बिना विषय प्रतीति ही नहीं हो सकती । ठीक इसी प्रकार विषय भेद के बिना देश और काल की प्रतीति नहीं हो सकती । जब देश और काल के भेद ही कल्पित है, तब उनके आश्रम से प्रतीति होने वाले विषय अकल्पित कैसे हो सकते हैं? 

ये पृथक प्रतीतियां विषय सन्मात्र ही है या और कुछ? यदि ये सन्मात्र ही है तो इनमें भेद की कल्पना का क्या आधार है , फिर तो इन्हें त्रिकालाबाध्य सत्ता से भिन्न समझा ही नहीं जा सकता । और यदि ये सन्मात्र से भिन्न है तो इन्हें नितांत असत कहने में क्या आपत्ति है? सत और अस्त , भाव और अभाव का मिश्रण ये भिन्न भिन्न विषय सत्ता के विशेष विशेष रूप है परंतु यह बात भी निराधार है। बिना देश काल का भेद सिद्ध हुए सत्ता में भेद सिद्ध करने की कोई युक्ति नहीं है । सत्ताका उतरावस्था क्रम आदि अपेक्षित होंगे । इस प्रकार तो क्षणिक विज्ञानवाद अथवा सर्वोच्छेदवाद का प्रसंग होगा यदि यह कल्पना करे कि सत्ता का  एक अंश तो स्थिर है और दूसरे अंश में वह विषयों का आरंभ कर रही है या उनके रूप में परिणत हो रही तो यह अंश भेद की कल्पना सर्वथा उपहासास्पद होगी । जो वस्तु एक अंश में विदीर्ण  हो रही है वह दूसरे अंश में नित्य नहीं हो रही सकती । अंशभेद तो असिद्व है ही इसलिए उत्पत्ति सत से संगत नहीं है जिनकी उत्पत्ति स्थिति और प्रलय ही असिद्व है जिनका स्वयं अपने अधिष्ठान में ही अत्यंतभाव है ज्ञान के बिना जिनकी कल्पना ही नहीं हो सकती , ऐसे विषयों के द्वारा भी ज्ञान परिच्छिन्न नहीं हो सकता है।


जय श्री कृष्ण 


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