वाल्मीकि ने राम के गुण का अद्भुत व्याख्यान लिखा।
गौतम बुद्ध ने भी अपने आप को राम का पुनर्जन्म बताया और दशरथ जातक की कथा सुनाई।
कबीर ने राम के निराकार रूप को ग्रहण किया और जीवात्मा के पति स्वरूप स्वीकार कर लिया।
गुरुनानक ने राम की चिड़िया, राम का खेत कह कर राम में ख़ुद को समाहित कर लिया।
गुरु गोविंद सिंह ने राम के सगुण रूप का बखान लिखा।
वनवासियों ने अपने शरीर पर राम नाम का गोदना गोदवा लिया।
तुलसीदास के राम शबरी के झूठे बेर भी खाते हैं और केवट को गले भी लगाते हैं।
राम पर तो मेरा अपना इतना अधिकार है कि मैं बिना बहुत पढ़े भी जानता हूँ कि मेरे राम कभी किसी के साथ ग़लत नहीं कर सकते। राम मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। और यदि मुझे लगेगा कि मेरे राम ने कुछ ग़लत किया है तो मैं उनसे कह भी दूँगा। जवाब देना, न देना उनका काम।
रामचरित मानस में बहुत कुछ लिखा है। रामचरित मानस राम के आदर्श का लोकतांत्रिककरण था। राम का सरलीकरण था। राम को जन सामान्य तक पहुँचने के उद्देश्य से था।
मैं न तो गुणहीन विप्र के पूजा करने पर सफ़ाई दूँगा और ना ही शूद्रों और स्त्रियों के ताड़ना पर, क्यूँकि रामचरित मानस से आम जनमानस ने यह सब नहीं सीखा है। उसने सीखा है कि एक आदर्श भाई, पुत्र, पिता, पत्नी, माता, राजा आदि कैसे होने चाहिए। राम भारत की आत्मा हैं।
हर रचनाकार अपने सामाजिक परिवेश से प्रभावित होता है। तुलसीदास भी रहे होंगे।
मैं इस बात के बिलकुल विरोध में हूँ कि रामचरित मानस में बदलाव करना चाहिए। रामचरित मानस तुलसीदास की इंटलेक्चुअल प्रॉपर्टी है। आपको पढ़ना है पढ़िए, न पढ़ना है न पढ़िए, लेकिन किसी रचनाकार के रचना से छेड़छाड़ का अधिकार किसी को नहीं है।
क्या गौतम बुद्ध अपने परिवेश से प्रभावित नहीं थे?
थे, तभी तो कहा कि बुद्ध का जन्म हीन कुल में नहीं होता।
तो क्या लोग त्रिपिटक जलाते हैं? क्या बुद्ध के करुणा और समता का ज्ञान कमतर हो जाता है??
रामचरित मानस पर जो लोग सफ़ाई दे रहे हैं कि वहाँ शूद्र नहीं छुद्र लिखा है अथवा छुब्ध लिखा है, वह लोग और इस विवाद को गहरा कर रहे हैं। वह एक सामाजिक परिस्थिति थी और आज दूसरा समय है। वह तब मान्य था, आज नहीं है।
बीस साल में समय ऐसा बदल जा रहा है कि पुरानी बातें असम्भव लगने लगती हैं और आज के समय के हिसाब से पाँच सौ साल पुरानी बात तौल रहे हैं। वैसे भी जो राम का है, उसे सफ़ाई की ज़रूरत नहीं है और जो राम के विरोध में है उसे सफ़ाई से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा।
हिंदू धर्म समय के साथ सकारात्मक बदलाव की तरफ़ है। रामचरित मानस अपने समय में इस बदलाव में सबसे अग्रणी भूमिका में था। जिस समय तुलसी ने संस्कृत से अवधी में इसे परिवर्तित किया, वहीं उनका पंडा गिरोह से सबसे बड़ा विद्रोह था। शबरी के जूठे बेर खिलाना और केवट को गले लगते बताना उस विद्रोह की पराकाष्ठा।
कोई भी रचनाकार सामाजिक परिस्थिति से अलग नहीं होता, तुलसीदास भी नहीं थे। लेकिन उनकी नीयत, हिम्मत और रचनात्मकताहिंदू समाज के हित में थी। मैं उनको बारंबार प्रणाम करता हूँ।
डॉ भूपेन्द्र सिंह
लोकसंस्कृति विज्ञानी
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें