जगतगुरु आदि शंकराचार्य जी की नेपाल यात्रा का प्रसंग भाग १३

 
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इस घटना के अन्तन्तर शंकराचार्य ने सुना कि नेपाल में पशुपतिनाथ की पूजा यथारूप से नही हो रही है । नेपाल तो बौद्ध धर्म का प्रधान केंद्र ही था । यहां के निवासी अधिकांश बौद्ध मत के माननेवाले थे , अंत पशुपतिनाथ की वैदिक पूजा की उपेक्षा करना नितांत स्वाभाविक था । पशुपतिनाथ का अष्ठमूर्ति शंकर में अन्यतम स्थान है । ये यजमान मूर्ति के प्रतिनिधि हैं । इसलिए उनकी मूर्ति मनुष्याकृति है । स्थान प्राचीनकाल से बड़ा पवित्र तथा गौरवशाली माना जाता था । यह पवित्रता आज भी अक्षुण्ण रुप से बनी हुई है । परन्तु शंकर 

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दृष्टव्य - माधव : शं० दि०। 
नारिमन शरीरे कृतकिल्यिषोऽहं जन्मप्रभभृत्यम्ब न संदेहऽहम । 
व्यधायि देहांतसंश्रयाद्यन्नतेन लिप्यते कर्मणाऽन्य ।।  

के समय में बौद्ध धर्म के बहुत प्रचार के कारण पशुपतिनाथ की पूजा शैथिल्य आ गया था वह इसी को दूर करने के लिए शंकर अपनी शिष्य मण्डली के साथ नेपाल में पहुंचे । 

उस समय नेपाल में ठाकुरी वंश के राजा राज्य करते थे। तत्कालीन राजा का नाम शिवदेव या वरदेव । ये नरेंद्रदेव वर्मा के पुत्र थे । उस समय नेपाल और चीन का घनिष्ठ राजनैतिक सम्बन्ध था । चीन के सम्राट ने नरेन्द्रदेव को नेपाल का राजा स्वीकृति किया था ‌। नेपाल नरेश ने शंकर की बड़ी अभ्यर्थना की और आचार्य चरण के आगमन से अपने देश को धन्य माना । आचार्य ने बौद्धो को परास्त कर उस स्थान को उनके प्रभाव से उन्मुक्त कर दिया । पशुपतिनाथ की वैदिक पूजा व्यवस्था उन्होंने ठीक ढ़ग से कर दी इस कार्य के लिए उन्होंने अपने सजातीय नम्बूदरी ब्राह्मण को इस कार्य के निमित्त रख दिया । यह प्रथा आज भी उसी अक्षुण्ण रुप से चल रही है । नम्बूदरी ब्राह्मण के कुछ कुटुम्ब नेपाल में ही बस गये है । ये आपस में विवाह शादी भी किया करते हैं । परन्तु इस विवाह की सन्तान पूजा के अधिकारी नहीं माने जाते हैं। खास मालाबार देश की कन्या से जो पुत्र उत्पन्न होता है वही यहां पूजा अधिकारी बनता है । आज भी पशुपतिनाथ के मन्दिर के पास ही शंकराचार्य का मठ है और थोड़ी दूर पर शंकर और दत्तात्रेय की मूर्तियां आज भी श्रद्धा तथा भक्ति से पूजी जाती है।


गौड़पाद का आशीर्वाद - इस घटनाक्रम के पहले ही आचार्य अपने परम गुरु गोड़पाद आचार्य का आशीर्वाद प्राप्त हो गया था । एक दिन यह विचित्र घटना घटी थी । गौड़पाद ने दर्शन देकर अपने प्रशिष्य को कृतार्थ किया । शंकर के गुरु थे भगवत गोविन्दपाद और उनके गुरु थे ये गौड़पाद इस प्रकार शंकर इनके प्रशिष्य लगते थे । आचार्य ने इनकी माण्डूक्यकारिका पर लिखे गये अपने भाष्य को पढ़ सुनाया । वे अत्यन्त प्रसन्न हुए और आशीर्वाद दिया कि शंकर का भाष्य सर्वत्र प्रसिद्ध होगा क्योंकि इसमें अद्वैत के सिद्धांतो का परिचय संप्रदाय के अनुकूल ही किया है । जिन रहस्यों को मैंने शुकदेव जी से सुनकर गोविंद मुनि को बतलाया था । उन्ही का यथार्थ उद्घाटन इन भाष्यो में भली भांति किया गया है । माण्डूक्यकारिका लिखने में जो मेरा अभिप्राय था उसकी अभिव्यक्ति कर तुमने मेरे हृदय को इस भाष्य में रख दिया है । मै आशीर्वाद देता हूं कि तुम्हारे भाष्य इस पृथ्वी तल पर अलौकिक प्रभा सम्पन्न होकर जगत का वास्तव में मंगल साधन करेंगे ।  

इस प्रकार सुनते हैं आचार्य शंकर के भाष्य को वेदव्यास तथा गौड़पाद जैसे ब्रहावेता मुनियों का आशीर्वाद प्राप्त हुआ ।  



जय श्रीकृष्ण 
 दीपक कुमार द्विवेदी 

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