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सर्व खल्विदं ब्रह्म तत्वमसि
यह समस्त (भासमान द्वैतप्रपत्र ) वास्तव में ब्रह्म ही है । वही ब्रह्म तू है
यह उपनिषदों तत्वज्ञान तत्वज्ञानोपदेशका सारांश है । इसमें निष्ठा न होना ही अज्ञान ही । जीव ब्रह्म से अभिन्न होते हुए भी अविद्या के कारण अपने वास्तविक अजन्मा अविनाशी शुद्ध बुद्ध मुक्त सच्चिदानंद मय आत्मस्वरूपको विस्मृत कर अपने को जन्म मरण धर्मा , कर्ता, भोक्ता , सुखदु : खवान् मान बैठा है और मिथ्या जगत में सत्यबुद्वि करके स्व निर्मित कर्म पाश में स्वयं बंधकर जन्म मरण संसृतिमो फंसा हुआ अनन्त दु:ख भोग रहा रहा है। जीवन के सकल दु: खोके कारण इस अविद्या की निवृत्ति के लिए उपनिषदों में जीव ब्रह्म की एकता के प्लतिपादक के साथ साथ जगत के मिथ्या त्वका। उपदेश भी हुआ है जिसे पूर्वाचार्योन
ब्रह्म सत्य जगत मिथ्या
इन सरल शब्दों में स्पष्ट कर दिया है । ब्रह्म सत्य है जगत मिथ्या है । जिस प्रकार मन्दान्धकार में रज्जु ही सर्परूप दिखलायी देती है , उसी प्रकार अवि विद्या में निर्गुण निराकार ब्रह्म - सत्ता ही सगुण साकार जगद्रूप दिखलायी देती है । जिस प्रकार मन्दान्धकार के कारण वास्तविक रज्जु नहीं दिखलाई पड़ती , पत्युत वास्तविक सत्ताहीन सर्प ही प्रतिभासित होता ,और वास्तविक उसी प्रकार अविद्या के कारण वास्तविक ( पारमार्थिक) सतामय ब्रह्म नहीं प्रतीत होता है और वास्तविक सत्ताहीन व्यावहारिक जगत ही प्रत्यक्ष प्रतीत होता है। वस्तु एक ही है जो रज्जु है , वही भ्रमावस्था में सर्परूप है । उसी प्रकार ज्ञानावस्थान में जगद्रूप है । जगत की सत्य प्रतीत और ब्रह्म की अप्रतिति तबतक होती रहती है , अन्धद्यान्धकार की निवृत्ति नहीं होती है । विद्यारुपी प्रकाश द्वारा अधिष्ठान का निश्चय होते ही स्पष्ट हो जाता है कि सर्वाधिष्ठान ब्रह्मसत्ता ही ( पारमार्थिक) सत्य है और रज्जु में अध्यस्त सर्प के समान ब्रहा में अध्यस्त जगत मिथ्या है ।
इस प्रकार सद्रुओसे दृष्टान्तादिको द्वारा औपनिषदज्ञान भली प्रकार श्रवण कर जिज्ञासु उसपर मनन करते हुए वैराग्यदि साधन सप्ततिके सहयोग से जगत के मिथ्यात्वकी पुष्टि और निदिध्यासनादि अन्तरंग साधनो के सहयोग से जीव ब्रह्रौक्यनिष्ठा सप्पादनद्वारा स्वात्मानुभूतिमय ज्ञान दीपक पदीप्त कर अनादिकाल अविद्यान्धकार की निवृत्ति द्वारा निश्चय कर लेता कि कि एकमात्र अद्वितीय स्वगत सजातीय विजातीय भेद शून्य त्रिकालाबाधित बह्रासत्ता ही सत्य है । उसके अतिरिक्त अन्य कुछ भी पारमार्थिक सत्य नहीं है । इस प्रकार दृढ़ बोध वान् ज्ञानी के लिए अन्य कुछ ज्ञातव्य एवं प्राप्तव्य शेष नहीं रह जाता । कृतकृत्य होकर वह नित्य बोध मय निजस्व रूप में जीवन्मुक्ति का परमानन्द लाभ कर ब्रह्म की अद्वितीय चिन्मय सत्ता में प्रवेश कर जाता है । ऐसे ब्रह्रा स्वरूप विज्ञानी के लिए उपनिषद का निश्चय है कि
न तस्य प्राणा उत्क्रामन्ति ब्रह्रौव सन ब्रह्मप्योति
( वृहद ० ४।४।६)
जीव ब्रहौक्य ज्ञान निष्ठा की यह चरम सीमा ही औपनिषदज्ञान की पराकाष्ठा है ।
उपनिषद निर्गुण निराकार ब्रह्म अवाड्मनसगोचर है । श्रुति उसके लिए कहती हैं
मतों वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह।
इसी अवाड्म़नसगोचर परमाद्वितीय निर्गुण परम तत्व का बोध कराने के लिए उपनिषदच्छुतियां
यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते ।
इत्यादिके द्वारा इस नानागुणधर्मवान इन्द्रयग्राह शब्द स्पर्श रूप रस गंध आदिमय जगतत्पचका बह्रा में अध्यारोप करती है और फिर इन्हीं इन्द्रयग्राह एवं निर्गुण निवर्यपदेश्य निर्विशेषा ब्रह्मा सत्ता का परिचय कराती है। उदाहरणार्थ कठश्रुति उसे अशब्द ,अस्पर्श ,अरूप , अव्यम , अरस आदि कहकर उसका उपदेश करती है
अशब्दमस्पर्शमरुपव्यं
तथारसं नित्यमगन्धच्च यत
इसी प्रकार माण्डूक्य श्रुति उसके सम्बन्ध में कहती हैं
नान्त: प्रज्ञं न बहि प्रज्ञ नोभयते : प्रज्ञं न प्रज्ञानघन न प्रज्ञं नाप्रज्ञम।
अदृष्टमव्यवहार्यमग्राह्रामलक्षणमचित्यमव्यदेश्य _ मेकात्मप्रत्ययसारं प्रपचोपशमं शान्त शिवमद्वैत चतुर्थ मन्यते स आत्मा स विज्ञेय: ।
इसी प्रकार अन्यत्र भी उपनिषदो में निषेध रूप में ही उस निर्गुण निरज्जनके सम्बन्धमे उपदेश हुआ है और अन्तमे श्रुति नेति नेति ( यह नहीं , यह नहीं) कहकर उसके सम्बन्ध में समस्त उक्ति योका खण्डन कर उसे सर्वथा निर्गुण निर्विशेष अवाडमनगोचर प्रतिपादन करती है । इस प्रकार अध्यारोपके सहारे ब्रहाका परिचय कराती हुई श्रुतिया अध्यरोपित समस्त जगत की वास्तविक सत्ताके निरासार्थ ही बार बार उपदेश करती है ।
जय श्री कृष्ण
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