भारत_के_सांस्कृतिक_मूल्य और उनकी डी-ब्रांडिंग भाग १



भारत को समझने के लिए भारत की संस्कृति के मूल, और संस्कृति को समझने के लिए भारत की सांस्कृतिक धरोहर के स्पर्श में आना बहुत अनिवार्य है । जो संतति भारत की सांस्कृतिक धरोहरों और पौराणिक कथाओं से दूरी पर बैठी है, वो सिर्फ अल्प ज्ञान के चलते उनका मजाक बना सकते है । इक्का दुक्का विकृति का उदाहरण उठाकर हमारे सांस्कृतिक मूल्यों का मजाक बनाना अब एक नया फैशन बन गया है ।

विकृतियां सत्य नहीं होती, सत्य होती है संस्कृति ।
विकार सत्य नहीं होते, सत्य होता है संस्कार ।।

इसीलिये उस सत्य को, उस मूल को, उस मर्म को, उस अर्थ को स्पर्श करना जरूरी है अगर भारत को समझना है तो । अन्यथा सब गलत दिशा में चल पड़ेंगे भारत को समझने के लिए । फर्जी रेटिंग्स, 31 दिस की रात के अपराध और स्लमडॉग मिलेनियर जैसी फिल्मों से भारत को समझने वाले लोग कभी भी भारत को नही जान पाएंगे । क्योकि ये भारत का सत्य नहीं है ।

भारत के मूल, भारत के मर्म, भारत की चिति को जानने के लिए उसके सांस्कृतिक मूल्यों तक जाना पड़ेगा क्योकि सभ्यता के परिष्कृत रूप से सभ्यता को जाना जाता । विदेश की परिष्कृत वस्तु और भारत की विकृत वस्तु की तुलना करके जो संतति भारतीय समाज की डी-ब्रांडिंग कर रही है वो या तो भ्रमित है या किसी विशेष खेमे के रणनीतिक योद्धा । रणनीतिक योद्धा पर ज्यादा जोर इसीलिये है क्योकि ये सभी लोग बुद्धिमान और स्किलफुल लोग है ।

भारत को जानने के लिए उसके परिष्कृत स्वरूप को जानना जरूरी है जो हमारी आत्मा में पलता है, हमारे संस्कारो में जीवित रहता है और हजारो लाखो गांवों में दिख जाता है । भारत की यही चिति, भारत के यही मूल्य आपको भारत के पुरुषों, महिलाओं, त्यौहारो, प्रक्रमो और उपक्रमो में दिख जाएंगे ।

आज से भारत के उन्ही सांस्कृतिक मूल्यों को हम उन चरित्रों के माध्यम से जानेंगे । और इस श्रंखला में "मनुवाद के प्रसार" के आरोप से बचने के लिए विजातीय हीरोज को पहले लिया जाएगा ।  

साभार 
निखिलेश शांडिल्य जी 

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