पिछले कुछ दिनों में मुझे 2 महत्वपूर्ण घटनाएँ देखने को मिली:

तो पिछले कुछ दिनों में मुझे 2 महत्वपूर्ण घटनाएँ देखने को मिली:

पहला तब जब एक प्रसिद्ध शायर और गीतकार पड़ोसी देश जाकर वहाँ की सरकार को एक तरह से भला-बुरा कहते हैं। इसके बाद उनके अतीत को एक झटके में दरकिनार कर हमारे इधर का एक वर्ग उन्हें सर-आँखों पर बिठा लेता है। उनके तारीफ़ो के पुल बाँधने लगता है। 

दूसरी घटना थी जब एक प्रसिद्ध कवि जिन्हें बड़ा सम्मानित वक्ता माना जाता है, जिनके ‘ज्ञान’ की भूरि-भूरि प्रशंसा होती है, जिन्हें अपने इतिहास का जानकार माना जाता है उन्होंने एक सम्मानित राष्ट्रीय संगठन के बारे अत्यंत ही अशोभनीय बात कही। 

लेकिन इन दोनों घटनाओं में मुझे एक समानता दिखी!

वो समानता थी ‘मित्रबोध’ का ‘न’ होना। कोई हमारी भावनाओं के हिसाब से गाली-गलौज कर देता है, वो हमारा hero बन जाता है। कोई हमारी भावनाओं के हिसाब से जोशीले नारे लगा देता है, वो हमारा hero बन जाता है। कोई कानों को मधुर लगने वाली चार पंक्तियाँ ‘शुद्ध भाषा’ में बोल देता है, वो हमारा hero बन जाता है। 

मतलब कितना सरल है हमारी भावनाओं को manipulate करना! क्या आपने कभी इस पर सोचा है? 

कोई हमारे पसंदीदा रंग के कपड़े डाल ले, हमारी मनपसंद जगहों पर जाकर फोटो खिंचवा ले, हमारी पसंद की चार लाइनें सुना दे - बस इतना पर्याप्त होता है उसे ‘समाज’ का hero मान लेने में।

आत्मा को परमात्मा का अंश बतलाने वाली सभ्यता इतनी superficial बातों पर कब से धोखा खाने लगी? ये पतन कब हुआ? किसके कारण हुआ? 

उत्तर मुझे आज तक नहीं प्राप्त हुआ लेकिन अभी मैं थका नहीं हूँ…

शेष किसी और माध्यम से…

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