वीर सावरकर जी छः स्वर्णिम पृष्ठ में बौद्ध मत की विकृतियो के विषय पर क्या लिखते हैं। भाग १



वीर सावरकर जी लिखते है १५६ तथापि अशोक ने बौद्ध धर्म की दीक्षा लेने के बाद उस धर्म के अहिंसा आदि कुछ सिद्धांतों और आचारों का जो अतिरेकी सम्मान किया उसका इतना हानिकारक परिणाम भारतीय राजनीति पर और भारत की स्वतंत्रता पर हुआ है कि सम्राट के नहीं अपितु मुख्यत: बौद्ध धर्म के संदर्भों में सिद्धांतो और प्रवृतियों का यहां पर तथा पुस्तक भाग में चर्चा करना आवश्यक है। 


नमो भगवते बुद्वाय- १५६ बौद्ध धर्म की ऐसी कुछ राष्ट्रविघातक प्रवृत्तियों और उनके परिणामों की चर्चा करने से पहले मेरे मत का विरोध न हो , इसलिए यहां आरंभ में ही बताना अपना कर्तव्य मानता हूं कि स्वयं बुद्धदेव के लिए तथा उनके बौद्ध धर्म के लिए मेरे मन में अत्यंत आदर भाव है । भारतीय इतिहास में महान् और जागतिक कीर्ति की विभूतियों में जो एक से एक बढ़कर एक उतुंग हिमालय शिखर है , उनमें एक उतुंग शिखर नाम है भगवान बुद्ध ! इसी आदर भाव से उनके शिष्यों की भांति उनकी मूर्ति के सम्मुख विनम्र होकर मै कहता हूं नमो भगवते बुद्वाय । जिस हिंदू राष्ट्र ने उन्हें जन्म दिया ,वह हिंदू राष्ट्र भी आज केवल इसी कारण उन्हें श्रीविष्णु का नवम अवतार मानता है । 

१५६ . बौद्ध धर्म भारत में नामशेष क्यो हुआ ? सम्राट अशोक ने न्यूनत: तीन सौ वर्ष पूर्व और उसके आस पास बौद्ध धर्म का अस्तित्व था तब तक उसका प्रचार प्रसार अधिकतर उपदेशों द्वारा मत परिवर्तन से होता था । इसलिए उसका प्रसार भी मंद गति से चलता था। परीक्षित १५ में हम बता चुके हैं कि सिकंदर सेल्युकस के काल तक पंचानंद , सिंध गांधार आदि प्रांतों में बौद्ध धर्म का नाम भी सुनाई नहीं देता था । यूनानियों को तो उसकी कुछ भी जानकारी नहीं थी । अधिकतर इतिहासकारों की यह मान्यता है कि बौद्ध धर्म वेद को प्रमाण ना मानने वाला और सम्यक रूप से निरीश्वरवादी धर्म होने के कारण तत्कालीन वैदिक धर्माभिमानी जनता ने उसका प्रवाल विरोध किया और इस कारण के अंत में वह धर्म भारत में नामशेष हो गया । परंतु आज तक किया है दृढ़ धारणा पूर्ण रूप से सत्य नहीं है, क्योंकि गौतम बुद्ध ने ही अबे अवैदिक निरीश्वरवादी या शून्यवादी धर्मपंथ का प्रवर्तन किया, यह विधान मूलतः तथ्यहीन है। 


बुद्ध के जन्म से पहले भी कम पचास साठ अवैदिक एवं निरीश्वरवादी धर्म पंथ भारत में प्रचलित थे। यह बात बौद्ध ग्रंथ भी मान्य है । वैदिक और अवैदिक दर्शन तथा सिद्धांतों के विषय में उनके प्रचारकों में बौद्धिक वाद विवाद होते थे। मत परिवर्तन से जिसको जोधन पंथ श्रेष्ठ लगता था, उसका वह अनुसरण करता था। बौद्ध काल से शंकराचार्य तक के काल में बौद्धिक संघर्षों के आघात से कुछ आंसुओं में बौद्ध धर्म का पराभव हुआ यह सत्य है। तथापि वैदिक धर्माभिमानी ब्राह्मण छतरी आदि जनता के हृदय में बौद्ध धर्म के प्रति, और विशेष रूप से आई हुई विकृतियों का ही अनुसरण करने वाले बौद्ध धर्मियों के प्रति , जो घोर घृणा उत्पन्न हुई उसका मुख्य कारण केवल सैद्धांतिक और बौद्धिक ही नहीं राष्ट्रीय और राजनीतिक भी है। इस बात पर यथा प्रसंग इस पुस्तक की सीमाओं में जितना संभव हो सकेगा उतना प्रकाश डालेंगे । 

१५१. अशोक ने वैदिक धर्मियों पर बौद्ध धर्म बलपूर्वक लादा - बौद्ध धर्म सुव कार करने के बाद अपने राज्य काल के उत्तरार्ध मैं सम्राट अशोक के मन में बौद्ध धर्म का अभिनिवेश इतना अधिक संचारित हुआ की तब तक जो केवल उपदेश से उस धर्म मत का प्रचार हो रहा था, उसे अपर्याप्त समझ कर उसने अपने संपूर्ण साम्राज्य में बौद्ध धर्म के मूलभूत, परंतु बौद्ध धर्म में निषिद्ध माने गए धर्माचारों को किसी को किसी घोर अपराध की तरह दंडनीय घोषित किया। यहां स्थानाभाव के तो तीन उदाहरण देंगे, उसने यज्ञयाग को हिंसा प्रधान कहकर उनपर पूरे राज्य में रोक लगाई! यज्ञसंस्था वैदिक धर्म का आद्य केंद्र है । यज्ञसंस्था के केंद्र के आसपास ही , उसी की परिधि में वैदिक काल से भारतीयों की महान संस्कृति का विकास और उन्नति होती रहे । उन यज्ञों अकस्मात राजदंड के बल दंडनीय अपराध घोषित करने से अशोक के साम्राज्य में रहने वाले 80% ब्राह्मण क्षत्रिय आदि वैदिक धर्मियों में कितना  क्षोभ उत्पन्न हुआ होगा, की कल्पना ही करके देखें! वैदिक धर्म में मृगया या आखेट क्षत्रियों का एक कर्तव्य माना जाता रहा है। अशोक ने मृगया या आखेट को दंडनीय और निषिद्ध अपराध घोषित किया । उन पर लाखों लोगों का नित्य का जो मुख्य आहार मछली मुरगा था, उसे मारना भी निषिद्ध घोषित हुआ । छोड़ दीजिए परंतु प्राण हिंसा मत करो , इसके निरपवाद रूप से आचरण करने से अत्यंत दुर्बल और मनुष्याघातक सिद्ध होने वाले बौद्ध सिद्धांत के अनुसार अशोक ने सघन वनों में विचरण करने वाले और बार-बार मनुष्य बस्ती में आकर मनुष्यों का भक्षण करनेवाले सिंह व्याघ्रादि क्रूर पशुओं की मृगया और दंडनीय अपराध घोषित किया । अशोक एक और ब्राह्मण क्षत्रिय आदि वैदिक धर्मियों के धर्माचरण पर इस प्रकार अत्याचारी पाबंदियां लगा रहा था दूसरी ओर बड़े-बड़े स्तंभो तथा स्तूपों पर उपदेश उत्कीर्ण करवाता था कि सर्वधार्मियो के साथ सहिष्णुता व्यवहार करो ! श्रमणो और ब्राह्मणो का सत्कार करो! उसके इस कृत्य की स्पष्ट विसंगति उसके जैसे संयमशील ,विवेकी महान सम्राट के भी ध्यान में नहीं आई थी , यह एक आश्चर्य है ।

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