पेशवा बालाजी बाजीराव के भाई रघुनाथ राव राघोवा के नेतृत्व में मराठों ने हिन्दुओं के महत्वपूर्ण पुनीत श्रद्धा केन्द्रों, पावन तीर्थ स्थलों जिन पर अब तक मुसलमानों का कब्जा था, 1758 ईस्वी तक ऐसे सभी स्थलो को मुक्त करवा लिया !
मुख्यधारा के कुत्सित इतिहासकार और कृतघ्न हिन्दू बुद्धिजीवी तथा संस्कृति-विश्लेषक मराठों की वास्तविक उपलब्धियों को ठीक से रेखंकित भी नहीं करते!
बल्कि मराठा आन्दोलन, हिन्दू पद पादशाही और हिन्दू स्वातंत्र्य के इस अति महत्त्वपूर्ण अभियान/कार्यक्रम के ऐतिहासिक अवदान को गंदले व भद्दे तरीके से प्रस्तुत करते हैं !
जिन महत्वपूर्ण सनातन आस्था केंद्रो को मराठों ने बर्बर मलेच्छों के हाथों मुक्त करवाया तथा वहां पर जातीय आत्मगौरव और धर्मज्योति की लौ अक्षुण्ण रखा, पहले उसकी सूची देखिए :
• कुरुक्षेत्र.
• गया.
• मथुरा.
• वृंदावन.
• गढ़मुक्तेश्वर.
• पुष्पवती.
• पुष्कर.
• काशी.
• प्रयाग.
• हरिद्वार.
• ऋषिकेश.
1745 ईस्वी से लेकर 1758 ईसवी तक जाते जाते पेशवा बालाजी बाजीराव के अप्रतिम सेनापतियों यथा ---- रघुनाथ राव, मल्हार राव होलकर, अन्ताजी मानिकेश्वर, बिट्ठल सदाशिव, रानोजी शिन्दे, दत्ताजी शिन्दे, जयप्पा जी शिन्दे, सखाराम भगवंत, गंगाधर यशवन्त द्वारा रुहेलो, पठानों, अफगानों, अवध के नवाबों तथा मुगल हरम की चुड़ैल मलिका जमानी और नजीबुद्दौला या नजीब खान व शाह वली उल्लाह के त्रिगुट संघ की कूटनीति, मिल्लत और जेहाद संबंधी रणनीतिक योजना को नेस्तनाबूद करते हुए मुगलिया सिंहासन को मुट्ठी में दबोचकर साथ ही दिल्ली के सत्ताकेंद्र में वजीर गाजीउद्दीन को पदस्थ करते हुए उन पावन तीर्थ केंद्रों का पुनर्वासन कराया गया, जिस पर अब तक म्लेच्छ शक्तियों का ध्वंस और अत्याचार कायम था....
मराठे अगर द्वारिका से जगन्नाथ पुरी तक तथा रामेश्वरम से मुल्तान तक के भारतीय भूभाग के भीतर 600 वर्ष बाद हिन्दुत्व और सनातन का जयघोष फहराने में कायम हुए थे, तो यह उनकी कितनी बड़ी उपलब्धि कही जायेगी ---- इन आत्महीन इतिहासकारों और लफंडर विश्लेषकों को इसका अंदाजा नहीं है...
अकेले रघुनाथ राव राघोवा ने पठानों, अफगानों को खुले मैदान में चार दफा कांडा था, यह बात लिखने में इनकी कलम कांखती है ! ये नीच आत्माएं केवल मुस्लिम जयगान और उनके ऐतिहासिक परिणाम पर दृष्टिपात करके घटिया निष्कर्ष किताबों में झोंकते हैं, छात्र और अध्येता वही पढ़ते हैं, उसी से हिन्दू प्रतिरोध और उसके दुर्दम्य पराक्रम की वास्तविकता को नकारते हुए मनमाफिक , ऊल जुलूल निष्कर्ष ठेलते हैं।
रघुनाथ राव राघोवा ने 1758 ईस्वी तक जाते जाते मराठा तलवार की चमचमाहट जिस तरह पंजाब, सरहिंद, मुल्तान, कटक, सिंधु सरिता से लेकर जगन्नाथ पुरी तक बिखेरी थी, उसका ऐतिहासिक आकलन ठीक से होना चाहिए.... आगे चलकर मराठों के पारिवारिक कलह और भ्रातृपरक झगड़ों के दौरान राघोवा का आत्मघाती कदम और मानवीय दुर्बलताएं बहुत घातक साबित हुई मराठा साम्राज्य विस्तार तथा हिन्दू पद पादशाही के लिए, लेकिन उनकी उपलब्धियों का ग्राफ एक समय बहुत बड़ा था !
सोचिए ---- अठारहवीं सदी के उस भीषणतर दौर में मुगलों, अफगानों, पठानों के इस्लामीकरण की नीति और धर्मांधता पर नकेल कसने के लिए मराठे इस अनुपमेय पुरुषार्थ के साथ प्रतिवाद और प्रतिकार करते हुए न उठ खड़े होते तो हम लोग किस स्थिति में होते....?
इतिहास में पूर्वजों के अतुलनीय, असाधारण अवदान को भूलिए मत हिन्दुओं !
बचाएगा यही आपको....
भयानक संकट के समय जब आप इन बर्बरों , दुराचारियों से जूझते हुए आत्मविश्वास और सामूहिक ऊर्जा समाकलन के लिए मध्यकाल के ऐतिहासिक पृष्ठों को पलटेंगे ---- तब समर्थ गुरु रामदास और छत्रपति शिवाजी के हाथों खड़ा किए गए हिन्दुत्व के इस अनुपम कर्म अध्याय से ही सीख लेते दिखेंगे !
इसलिए गर्व और सम्मान के साथ इनके योगदान को स्वीकारना तथा अर्थवान मूल्यांकन करना सीखिए।
साभार
कुमार शिव
अच्छा लेख है, धन्यवाद
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