जो शक्तिशाली होता है वह फिर किसी दूसरे कमजोर की ऐसी तैसी कर ही डालता है।

जो शक्तिशाली होता है वह फिर किसी दूसरे कमजोर की ऐसी तैसी कर ही डालता है। 

मुगल शासक अकबर, शाहजहां और औरंगजेब के समय अपनी शक्ति का डंका चारों ओर बजाते फिर रहे थे, ये फारस और अफगानिस्तान वाले जब ताकतवर हुए, इन्होंने मुगलों के उत्तराधिकारियों को कान पकड़ कर उठवाया बैठवाया और सिद्ध कर दिया कि शक्ति और सत्ता पार्टीकुलर तुम्हारी बपौती नहीं है। 

इतिहास का एक एक पृष्ठ औरंगजेब के बाद उसके मुगल उत्तराधिकारियों की नामर्दी, खोखलेपन और तमाशबीनी से भरा पड़ा है।

मुस्लिम जगत में मुगल साम्राज्य, सफावी साम्राज्य और तुर्की का आटोमन साम्राज्य एक दूसरे के साथ रुतबे के रूप में गिने जाते थे। 

ऐसे में नादिरशाह और अब्दाली ने मुगलों को मुर्गा बनवाया तो उन्हे इस्लामी संसार में मनोवैज्ञानिक सामाजिक बढ़त, अपने अहं की पूर्ति और प्रतिष्ठा मिली ही, लेकिन अगर हिन्दू क्षेत्रीय शक्तियां मराठे, जाट, सिक्ख और राजपूत एक प्रबल हिन्दू महासंघ बनाकर इन मुगलों की बहिन बेटियों को अपने सरदारों, सैनिकों में बांटते या हरम में रखते जैसे कि तुर्कों मुगलों ने बिन कासिम, गोरी, अलाउद्दीन, अकबर, शाहजहां, औरंगजेब आदि के समय हिन्दू स्त्रियों की गरिमा के साथ खिलवाड़ किया था तब वास्तविक प्रतिकार और प्रतिशोध होता !!

हिन्दू शासकों के पास अठारहवीं सदी के दूसरे दशक तक जाते जाते यह पूरा मौका था कि अगर उनमें कोई दूरदर्शी शासक, जो उपलब्ध भी थे उस दौरान, जैसे बाजीराव प्रथम, बालाजी बाजीराव, रघुनाथ राव, सदाशिव राव भाऊ, बंदा बहादुर, जाट नेता सूरजमल, बदनसिंह, जवाहरसिंह आदि मिलकर एक संयुक्त सैन्य गठबंधन बना लेते तो भारत की भूमि का जो 900 वर्षों का इस्लामीकरण होता आया था, खतम कर दिया गया होता।

शिवाजी, बाजीराव, गुरू गोविंदसिंह के पास ऐसी रणनीति और विचार योजना भी थी, लेकिन दुर्भाग्य से विधाता ने उन्हें उम्र ही कम दी ! 

अपने जीवनकाल में बर्बर और अत्यंत शक्तिशाली मुगल इस्लामी सत्ता से जूझने तथा हिंदू संस्कृति और अपने नवोदित राज्य को मजबूती देने में ही उनकी शक्ति निचुड़ गई, लेकिन उन्होंने वह सब हासिल भी करवा दिया था अपने उत्तराधिकारियों के लिए, जिसके बलबूते अगर हिन्दू शासक संगठित और एकताबद्ध होते तो समस्त मुस्लिम शक्तियां पराभूत कर दी जाती !

तब हम सबके मनोवैज्ञानिक अहं और ऐतिहासिक सैन्य जीवन का उल्लास और ठोस तथा वास्तविक होता...। 

मुस्लिमों में देखिए एक रुहेला नजीबुद्दौला ही इस्लामी मजहब की रक्षा का नारा देकर मिल्लत और उम्मत बनवा ले गया।

 यहां तक कि अवध के शिया नवाबों जिन पर मराठों का असीम उपकार था, वह सब भी दो मिनट में काफूर हो गया।

14 जनवरी कल ही बीती है।

वह युद्ध हिन्दू जीतते तो यह भी सुदृढ ऐतिहासिक प्रस्थापना कायम होती कि ---- इस्लाम में बंधुता, उम्मत और मिल्लत की सामाजिक धारणाएं कुछ खास नहीं हैं, हिंदू प्रतिरोध ने खड़े खड़े इस उम्मा की पुंगी बजा दी.... आदि आदि । 

मेरे इस निष्कर्ष की पुष्टि ब्रिटिशर्स करते हैं ! 

उन्होंने खड़े खड़े एक एक मुस्लिम क्षेत्रीय शक्ति को हतवीर्य कर डाला। चाहे अपने उत्तम सैन्य राजनीतिक रणनीतिक कौशल से या आधुनिक राष्ट्रवाद के उपकरणों से। 

हिन्दू तो हारे ही ये उम्मत और मिल्लत वाले शेर भी मिमियाए...

खैर अभी बात 900 वर्षों के उन दो भिन्न सभ्यता धर्म, मजहब वाली संस्कृतियों के बीच जारी ऐतिहासिक महायुद्ध की...

 हिन्दू बहुत से मौके पर जीते और तुरकों मुगलों को उन्होंने धूल चटाया लेकिन तरायन, खानवा, देवगिरी, पानीपत , तालीकोटा या कई निर्णायक ऐतिहासिक युद्ध जिन्होंने इतिहास की दिशा निर्धारित की, हृदय में धंसे शूल हैं जो हरदम चुभते गड़ते रहते हैं !


       साभार 
     कुमार शिव 

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