एक समय था जब जैन और बुद्ध मत हिंदू धर्म के द्वेष में सारी हद पार गए थे।

 
जैन समाज का विरोध जहां केवल सैद्धांतिक स्तर पर था वहीं बुद्ध मत हमसे घृणा में हिंदू मूर्तियों के भंजन से लेकर एथेंस को सत्ता केंद्र बनाने तक की जुगत में लग गया था। इनके मठाधीशों के अंदर से राष्ट्रीय चेतना इतनी लुप्त हो गई थी कि ये कहना शुरू कर दिए थे कि क्या हुआ अगर भारतवर्ष की राजधानी पाटलिपुत्र से एथेंस चला जायेगा तो? बल्कि ये तो हमारे लिए एक अवसर होगा कि बुद्ध के संदेश को यूनान तक ले जा सकेंगे।


समय के साथ दोनों मतों के अनुयायियों को समझ आ गया कि "मातृ छाया" से अधिक सुरक्षित आश्रय कोई भी नहीं है। यहां जन्मा बुद्ध मत यहीं की भूमि से उखड़ गया और यहां उसके बस नामलेवा भर बचे रह गए। जैन मत के ऐसे लोगों की मानसिकता में भी परिवर्तन आया और फिर हिंदू समाज ने भी उस मत को, उनके तीर्थों और तीर्थांकरों को इतना आदर दिया कि अब उन्हें पृथक कर देखने का भाव दोनों ओर से समाप्त हो गया। 



आजकल इसी तरह एक नव जन्में पंथ को भी हमसे और भारत वर्ष से अलगाव की हवा लगी है।



इतिहास से सबक लेकर इन्हें सीखना चाहिए कि सनातन का विरोध किया तो जो भी थोड़ी बहुत आईडेंटिटी और सम्मान बची है, कुछ भी नहीं बचेगा और उनकी कुंठा उन्हें कहीं का भी नहीं छोड़ेगी।


    साभार
अभिजीत सिंह 


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