पेशवा बाजीराव बल्लाड भट्ट जी की पुण्य तिथि पर कोटिशः नमन🌹🙏🌹

                   वैसे तो हमारे इतिहास की यह विशेषता रही है कि मुझे वही पढ़ाया जाय, जो "इश्लामिक सत्ता" को स्वीकारने और उनकी सामर्थ्य के आगे झुकने पर विवश करता रहे। मैं कभी भी इश्लामिक सत्ता और उसके चरित्र के बारे में जानने का प्रयास मात्र भी न करूँ। 
उसी क्रम में हमारे सभी क्षेत्रीय, राज्यवार और राष्ट्रीय सहित जातीय और सांस्कृतिक प्रतिमानों से मुझे दूर रखा गया। मुझे अपने किसी भी प्रतिमान को जानने समझने और उनके पदचिन्हों को पुनः जीने को लेकर सदैव मनाही का ही सामना करना पड़ा है। 

         बात इतनी ही कहाँ है? मैं इन "अष्ट प्रतिमानों" के प्रति विचार तक न कर पाऊँ, इसलिए मेरे संस्कार से इस प्रतिमान शब्द के बीज मात्र को नष्ट किया जा सके, इसलिए मुझे अपने ही कुल के बारे में मुश्किल से तीसरी पीढ़ी का श्रुत ज्ञान ही उपलब्ध हो पाता है, वह भी इस दोयम व्यवहार के साथ "क्या करोगी जानकर ये सब पुरानी बातें"। फिर मेरे संस्कार कैसे होंगे? यह अपने आप में बहुत बड़ा प्रश्न है।

इसके विपरीत, 
                    जब भी मुझे पढ़ने जानने को मिला, तब अपनी सभ्यता और अपने वजूद से परे, एक नई दुनिया एक नए वजूद के बारे में उनके प्रतिमानों और उनकी संस्कृतिय निष्ठा के साथ-साथ उनके गौरवशाली इतिहास को ही पढ़ने को मिला। जैसे लगता है कि मैं किसी वटवृक्ष की कलिका होकर भी मुझे बार-बार या कहें निरन्तर बबूल के रूप में विकसित होना होगा, यही सिखाया गया। शायद मेरा अस्तित्व वटवृक्ष की कलिका नहीं, बल्कि एक "बबूल के पेड़" के रूप में ही है। 

आज जब मैं बड़ी हो गई, जब इस दोहरे चरित्र को नकारकर अपने मूल अस्तित्व अर्थात वटवृक्ष के कलिका के रूप में अपनी पहचान रखना चाहती हूँ तो मुझे नित्य "अपराध बोध" करवाया जा रहा। नित्य मुझे बताया जा रहा कि मेरे ही "अष्ट प्रतिमानों" के मध्य किस प्रकार की सीमाएँ और किस प्रकार के द्वंद्व खींचे गए थे? 
"मुझे यह बताया जा रहा कि मेरे ही एक प्रतिमान के द्वारा मेरे ही दूसरे प्रतिमान को नकारा गया था। इसलिए मुझे अपने दोनों ही प्रतिमान से अनभिज्ञ रखा गया।"
है ना बहुत बड़ा आश्चर्य?

मैं कुल प्रतिष्ठा से अनजान, जातीय प्रतिष्ठा से अनजान, क्षेत्रीय प्रतिष्ठा से भी अनजान यहाँ तक कि मुझे राष्ट्रीय प्रतिष्ठा के प्रतिमानों से भी पूर्णतः अनजान रखा गया है, और मुझे ही बताया जा रहा, की मेरे "कुल प्रतिष्ठा" के प्रतिमानों ने अपनी ही राष्ट्रीय प्रतिष्ठा को कुचलने का न केवल प्रयास किया, बल्कि उसे नष्ट भी कर दिया। अरे वाह!
कितना बड़ा दिव्य ज्ञान दिया गया है न मुझे?

अरे निरामूढ़ निराधमों!
                             मैं अपराधबोध से ग्रस्त होऊँ, इसके पहले मुझे यह तो बता की मेरे वे कौन से प्रतिमान थे, जो मेरे ही राष्ट्रीय पहचान(प्रतिमानों) को कुचलने का उद्यम किया?
जब मुझे यह ज्ञात ही नहीं, तो किस प्रकार मुझे अपराधबोध दिला रहे हो बे?
और यह भी जरा मुझे बता, कि घर में लाख झगड़ा हो, लाख विवाद हो, परंतु मुझे अपनी प्रतिष्ठा से अनजान बनाकर एक म्लेच्छ संस्कृति की प्रतिष्ठा अर्थात, #वटवृक्ष के ऐश्वर्य का त्यागकर एक #बबूल या कहें #कीकर के ऐश्वर्य या कहें #दरिद्रता को ग्रहण करने और उसे ही धारणीय बनाने का कुत्सित प्रयास क्यों हुआ?

महाविद्वानों, 
                पेशवा बाजीराव की पुण्यतिथि पर भी तुम्हारी कुण्ठा का कोई विकल्प न मिल पाया, और आ गए अपना विष-वमन करने? 
अरे पातक चाण्डाल वॄत्ति के नराधमों,
                           जितना दुःख मुझे म्लेच्छों की छद्मवादी नीतियों से संतप्त होकर मुझे नहीं हुआ, जिनके कारण मैं अपने समस्त प्रतिमानों से आज भी अनभिज्ञ रही। उससे कहीं अधिक तुम्हारे इस चाण्डालवत व्यवहार से हो रहा।

विचार करना नहीं भूलना............

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