जातीय व्यवस्था क्या है?

      
                      साभार प्रतिकात्मक चित्र



 अक्सर लोगों को कहते हुए सुनती हूँ कि जाति प्रथा का कोई उल्लेख नहीं, बल्कि सनातन संस्कृति में वर्ण की व्यवस्था है।
परन्तु जब शास्त्रों के आलोक में देखती हूँ तो पाती हूँ कि,
सनातन संस्कृति जहाँ वर्ण रूपी प्राथमिक चार चरणों में विभाजित होती है, वही चारों वर्ण अनेक वर्गों और उपवर्गों में विभाजित हो जाते हैं।
जैसे- ब्राह्मण वर्ण का वर्ग 10 होता है, वही क्षत्रिय का 06 वर्ग।वैश्य का चार और शूद्र का दो होता है।(भिन्न-भिन्न स्मृतियों में भिन्न मत भी देखा जाता है)
वही जब कभी यह देखती हूँ कि, लोग ब्राह्मणों के कर्म की बात करते हुए कहते हैं कि ब्राह्मण को ज्ञान लेना और ज्ञान देना ही उपदेशित है।
तो पुनः शास्त्रीय आलोक में इस बात की पड़ताल करती हूँ, पुनः ज्ञात होता है कि, ब्राह्मण के जो 10 वर्ग बतलाये गए हैं वे अपने कर्मों के आधार पर ही विभाजित हैं। अर्थात ब्राह्मण वर्ण का स्वयं का एक सामाजिक तन्त्र है, और इन्हीं वर्गों और इन वर्गों के उपवर्ग ब्राह्मणों द्वारा अन्य कार्य निष्पादित किये जाने की बात देखी जाती है।
शास्त्रीय आलोक से बाहर जब इसकी पड़ताल की तो,
गाँव घरों में ऐसे अनेक परिवार मिले, जिनके ज्ञात पुरखे कभी भी पण्डिताई नहीं करवाई। उनके यहाँ स्वयं अन्य ब्राह्मण आते थे पूजा-पाठ के लिए।
प्राचीन इतिहास पढ़ते समय आचार्य चाणक्य के काल का जब अध्ययन कर रही थी तो एक प्रसङ्ग मिला,
जहाँ पाटलिपुत्र के "#कृषक_क्षत्रियों" की सैन्य भर्ती #पदेति सैनिकों की अग्रिम पंक्ति में किया जा रहा था, जिससे कोई भी योग्य क्षत्रिय जीवित ही न बचे, जो घनानन्द के साम्राज्य को चुनौती दे सके। यहाँ यह सन्दर्भ ठीक उसी प्रकार था जैसा कि शास्त्र मत था, अर्थात क्षत्रिय वर्ण में भी सभी कर्म करने वालों का वर्ग और उपवर्ग जाना जाता है।

ये दो प्रसङ्ग ही इस मत के खण्डन के लिए पर्याप्त हैं कि "वर्ण व्यवस्था से इतर जातीय व्यवस्था होती है"।

अब अगला प्रश्न होता है कि, जब एक ही आत्मा है तो उसका चार वर्ण में विभाग क्यों?
और पुनः चार वर्ण के बाद "अनेक वर्ग" तत्पश्चात "अनेक उपवर्ग" क्यों?
ऐसे प्रश्न करने से पहले यह समझना होगा कि,
ब्रह्म का तीन पाद अमृत, और एक पाद जगत है। इस एक पाद का दो भाग अमृत और एक ही भाग स्थूल और सूक्ष्म जगत के रूप में प्रसिद्ध है।
जो स्थूल जगत है, वह सूक्ष्म का भी अत्यल्प भाग ही अहङ्कार से भाषित होता है।
जो अपने मूल सूत्र, #एकोहं_बहुस्याम: की धारणा को परिभाषित करता है।
आगे अब इसी तथ्य को लोकार्थ से समझें,

धर्म अन्तर्गत कर्म का विवेक करते हुए कहा जाता है कि, एक कर्मरूप धर्म वह है, जब समस्त स्थितियाँ धर्म सम्मत हैं। वही एक कर्मरूप धर्म वह है, जब समस्त स्थितियाँ धर्म विपरीत हैं। धर्म विपरीत स्थिति में जो कर्त्तव्य कर्म धर्म अंतर्गत जाना जाता है, उसे #आपद्धर्म कहते हैं।
अर्थात, जब एकमात्र विकल्प स्वयं की जीवन रक्षा ही हो, तब जो कर्म किये जाते हैं, वे समस्त कर्म आपद्धर्म के अन्तर्गत आते हैं।

इस आपद्धर्म में वर्ण वा जाति का कोई मान नहीं रहता। सब कुछ स्वीकार्य हो जाता है, जिससे जीवन रक्षा सम्भव हो।
इसके पश्चात भी अगर कोई एक वर्ण सामाजिकी में पराभूत हो जाय, या समाप्त ही हो जाय, तो भी संस्कृति का पतन नहीं होना चाहिए। इस बात को सुनिश्चित करने के लिए प्रत्येक वर्ण में जहाँ अनेक वर्ग मिलते हैं वही अनेक उपवर्ग भी जाने जाते हैं।
इस प्रकार देखने पर ज्ञात होता है कि, 
प्रत्येक वर्ण जहाँ स्वयं में पूर्ण होते हैं, वही प्रत्येक वर्ग भी स्वयं में पूर्ण होते हैं।
यह पूर्णता की अन्तिम सिद्धि परिवार रूपी इकाई तक जाती है।

परन्तु दुर्भाग्य वस अगर किसी संस्कृति/परम्परा में,
किसी एक वर्ण का ह्रास हो जाय, तो उस संस्कृति या परम्परा में "ह्रास कारण" को निर्मूल्य करके ऊपर के वर्ण से निम्न वर्गों को हरासित वर्ण के रूप में स्थान प्रदान कर दिया जाता है।
इस पक्ष में श्रुति का प्रमाण ही मान्य जाना जाता है, जो सभी वर्णों की योनि के रूप में ब्राह्मण को बताती है।

आपद् काल के पश्चात पुनः वर्णों की सामाजिक प्रतिष्ठा और अस्तित्व में होने वाले क्षय को पूर्ण करने के लिए संस्कृति का उच्चवर्ग ही उस रिक्ति को पूर्ण करता है।
इसलिए जब कभी भी आपद्काल आता है, तब संस्कृति/परम्परा अपने बीज रूप ब्राह्मण की रक्षा को प्रथम प्राथमिकता देता है। क्योंकि जहाँ ब्राह्मण बीज है, वही अन्य वर्णों की योनि भी। 
अर्थात अगर कोई एक ब्राह्मण भी जीवित रहा तो सभी वर्णों का विकास स्वतः हो जाएगा।
और सामाजिक न्याय व्यवस्था भी सदैव स्थिर बनी रहेगी।

इस प्रकार, ऋषियों की अनादिकालीन सनातन संस्कृतिय व्यवस्था का निर्माण सुनिश्चित होता है।


साभार
भारद्वाज नमिता 

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