समाजिक समानता के नाम सनातन संस्कृति सभ्यता पर कैसे प्रहार किया जा रहा है जानने के लिए पढ़ें पूरा लेख

20वीं सदी का सबसे बड़ा प्रश्न जो अभी तक अनुत्तरित है।
दलित मशीहा समझे जाने वाले बाबा भीमराव अंबेडकर से लेकर विनोबा भावे पण्डित मदनमोहन मालवीय और गायत्री परिवार के संस्थापक आचार्य श्री राम शर्मा जी जैसे महान सामाजिक कार्यकर्ताओं के अथक प्रयास और पूर्ण समर्पण के पश्चात भी यथेष्ट "लक्ष्य"की प्राप्ति नहीं कि जा सकी।
परन्तु इन सद्प्रयासों से एक अलग समस्या और सामने आती गयी। कहीं आरक्षण के नाम पर अलग-अलग राजनीतिक पार्टियों का जन्म हुआ तो कहीं, समता के नाम पर सर्वहारा जैसी भावनाओं का पोषण आरम्भ हुआ। जिसका परिणाम समाज अत्यन्त भ्रष्टाचार और अन्यायपूर्ण सामाजिक स्थिति से घिरता चला गया।
 
बाबा अम्बेडकर और विनोबाजी की मान्यता जहाँ पूर्णतः आर्थिक/भौतिक विकाशवाद के सम्पोषण निमित्त देखी जा रही थी, वही आचार्य श्री राम शर्मा, और पण्डित मदनमोहन मालवीय जी जैसे विचारकों को भौतिक सह आध्यात्मिक उन्नति के सम्पोषण निमित्त देखा जा रहा था।



अम्बेडकरवादी नीतियों में आर्थिक समृद्धि ही एकमात्र सामाजिक न्याय और समानता को सुनिश्चित कर सकती थी, वही श्रीराम शर्मा जैसे प्रबुद्ध विचारकों की मान्यता रही है कि आर्थिक समृद्धि कभी भी मनोवैज्ञानिक कारणों को संतुलित नहीं कर सकती। और जब तक मनोवैज्ञानिक कारकों को साधने का समुचित विकास नहीं होगा, किसी भी प्रकार से समाज में सामाजिकता और न्याय की स्थापना सम्भव नहीं।
 

धर्म साधन है, साध्य नहीं। ऐसी मान्यता जहाँ अम्बेडकर जी की रही है, वही इसी मान्यता के अनुसार उन्होंने यह मुहिम भी चलाया की, "जो धर्म तुम्हें समानता का अधिकार देता हो, उसे सहर्ष स्वीकार कर लें" क्योंकि वह धर्म कभी धर्म ही नहीं, जो किसी व्यक्ति को हीन और किसी को उच्च बतलाए।"
धर्म साधन है, साध्य नहीं। यह मान्यता सब अध्यात्मविद् जानता है, परन्तु "समानता की बात सांस्कृतिक होती है" न कि आध्यात्मिक।

क्योंकि अध्यात्म दर्शन में हीन और उच्च जैसे द्वंद्वात्मक विशेषणों का पूर्ण अभाव पाया जाता है। इसलिए अध्यात्म दर्शन में किसी भी प्रकार की "सांस्कृतिक विरासत" का कोई अस्तित्व देखा जा सके, खोज का प्रयास भी व्यर्थ ही है। यह मान्यता श्रीराम शर्मा और अन्य अध्यात्मविद् महात्माओं की रही है।
अब बाबा अम्बेडकर के सामने उनका स्पष्ट दर्शन था। अर्थात, आध्यात्मिक उन्नति जैसी कोई अवधारणा है ही नहीं, बल्कि अगर समाज में कोई अवधारणा है तो वह मात्र आर्थिक और सामाजिक समानता की।
जब लक्ष्य सुस्पष्ट हो, तो मार्ग चयन में परेशानी नहीं आती। जिसका परिणाम यह हुआ कि, 
बाबा अम्बेडकर ने जहाँ कथित तौर पर 5 लाख या 10 लाख दलितों के साथ बौद्ध धर्म में धर्म परिवर्तन कर लिया।
चूँकि सभी धर्म की एक सामाजिक सांस्कृतिक दृष्टिकोण भी रहा है। इसलिए बौद्ध धर्म में भी एक सामाजिकी का सांस्कृतिक दृष्टिकोण देखने में आता है।

जिससे क्षुब्ध होकर बाबा अम्बेडकर ने बौद्ध धर्म के अंतर्गत ही एक अलग पंथ बनाया जिसका नाम रखा "नवबौद्ध"।
और नवबौद्ध बनने की शर्त जो बतायी वह "हिन्दू संस्कृति" की मान्यताओं को तिलांजलि देने के रूप में, "कथित तौर पर 22 प्रतिज्ञाओं के रूप" में जानी जाती है।

सैद्धांतिक रूप से नवबौद्ध न हिन्दू हैं, और न ही बौद्ध। परन्तु संवैधानिक व्यवस्था के अंतर्गत चूँकि बौद्ध धर्मियों को भी समूल रूप से दलित या अल्पसंख्यक वर्ग में रखा गया था इसलिए इन्हें संविधान अन्तर्गत "हिन्दू" धर्म में ही नियोजित किया गया।
जब मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के गठन के पश्चात हिन्दू पर्सनल लॉ बोर्ड जैसी किसी संस्था की आवश्यकता प्रतीत हुई।
जिसे 1772 के "आंग्ल हिन्दू कानून" के माध्यमसे अमलीजामा पहनाया गया।
इसमें मुख्यतः उन सभी समुदायों को समाहित किया गया, जो मुस्लिम और क्रिश्चियन से अलग थे। अर्थात कहीं न कहीं उनकी जड़ें हिन्दू संस्कृति से सम्बद्ध थी।
हाँ इसके साथ ही इस बात का भी सदैव ध्यान रखा गया कि, विशेषकर हिन्दू इस तथाकथित बोर्ड में शामिल न हो।
इस प्रकार अनेक सम्प्रदाय में विभक्त हिन्दू संस्कृति को कानूनी रूप से विभक्त करने और दिखावे के लिए ऐक्यता दर्शाने का प्रयास सफल रहा।

जिसका परिणाम जातीय पार्टियों का परचम 20वीं शताब्दी बीतते बीतते सभी ने देखा। 
"आंग्ल हिंदू बिल" के संसोधित रूप में भारतीय संस्कृति में मुख्यतः तीन संस्कृतियों को मान्यता प्रदान की गई।
प्रथम हिन्दू संस्कृति जो अघोषित रूप से अनेक प्रकार के विखण्डनो और विशिष्ट विपरीत विचारधाराओं का समुच्चय रूप थी। द्वितीय मुस्लिम और तृतीय क्रिश्चियन।

इस विभाजन में छद्म रूप को देखने पर समझ आता है कि, हिंदुओं को मेजॉरिटी(बहुल) में सिद्ध करने के लिए यह तथाकथित उपकरणों को प्रयोग किया गया।
क्योंकि, इस प्रकार हिंदुओं को बहुसंख्यक समुदाय घोषित करके एक अलग संवैधानिक व्यवस्था "अल्पसंख्यक वाद" का विकास किया जा सकता था।

और इस प्रकार अल्पसंख्यकवाद का विकास होता है।
जिसके लिए पुनः "पंथ निरपेक्षता" की कानूनी व्यवस्था द्वारा यह अधिकार प्रदान कर दिया जाता है कि, अल्पसंख्यक वर्ग द्वारा अगर किसी का धर्म परिवर्तन कराया जाता है, तो उसके पुनः धर्म वापसी कराने की चेष्टा नहीं की जा सकती।
अगर यथार्थ में देखा जाय तो इसका छद्म रूप महात्मा गांधी के काल में घटित हुआ।
"एक प्रसिद्ध आर्य समाजी आचार्य की हत्या और हत्यारे को तथाकथित महात्मा द्वारा अपना बेटा" घोषित करके की गई।

सामाजिकी में यह विश्लेषण सर्वव्यापक रूप से देखने को मिलता है कि,
धर्म परिवर्तन की प्रथम सीढ़ी हिन्दू मूल समुदायों को दलित वर्ग में नियोजित करना। पुनः द्वितीय पायदान पर उन्हें "बौद्ध अनुयायी" बनाना और अंत में वे स्वयं ही मुस्लिम या क्रिश्चियन बन जायेंगे।
द्वितीय से तृतीय पायदान स्वायत्त सिद्ध इसलिए हो जाती है क्योंकि, मूल से कटकर भला कौन विकास कर पाता है?
अर्थात, कथित दलित समाज हिन्दू भी नहीं रहता, और बौद्ध में स्वीकृति नहीं मिलती। अब उनके पास एकमात्र विकल्प धार्मिक पहचान के लिए "मुस्लिम या क्रिश्चियन" ही शेष रहती है।

किसी ने मुझसे पूछा था, "आख़िर धार्मिक पहचान इतनी आवश्यक क्यों है? क्यों कोई भी व्यक्ति बिना धार्मिक पहचान के रहने का विचार मात्र नहीं करता?"
उसके लिए मैं अब उत्तर बस इतने ही शब्दों में देती हूँ -
व्यक्ति की जन्मना पहचान जिस प्रकार व्यक्ति के चारित्रिक उत्कर्ष के लिए अनिवार्य है, ठीक उसी प्रकार व्यक्ति की "धार्मिक पहचान" व्यक्ति के सामाजिक उत्कर्ष के लिए अत्यावश्यक है।"
क्योंकि "सामाजिकी की मूल अवधारणा में ही 'मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है' होता है। और समाज का निर्माण तत्त्व "संस्कृति" इसलिए मनुष्य की धार्मिक पहचान व्यक्ति के जीवन का अभिन्न अंग होता है"।
इसलिए नवबौद्ध बन चुके तथाकथित दलित वर्ग के व्यक्तियों का मुस्लिम और क्रिश्चियन में धर्म परिवर्तन बड़ी सहजता से हो जाता है।

सामाजिक समानता की अवधारणा का पुनः अवलोकन करने पर ज्ञात होता है कि, 
व्यक्ति निज समाज में ही "समानता के अधिकार" की स्वायत्त दावेदारी रखता है। किसी भी अन्य समाज में नहीं।
किसी अन्य समाज में समानता की अपेक्षा के बजाय, व्यक्तिवाच्य संज्ञा का लोप करके जब "किसी समाज के समानता" की बात आती है, तभी सार्वभौमिक समानता का सृजन हो पाता है।

अर्थात, व्यक्ति जिस समाज का अभिन्न अंग है, वह निज समाज में ही समानता का स्वायत्त अधिकार रखता है। उसे किसी भी प्रकार के अधिकार की अपेक्षा करने या माँगने की आवश्यकता नहीं।
वही जब किसी अन्य समाज के किसी व्यक्ति से समानता की अपेक्षा रखता है, तो वह "निहायत मूर्ख व्यक्ति" कहलाता है।
क्योंकि किसी अन्य समाज से समानता की बात समाजिक स्तर पर निज समाज द्वारा ही सिद्ध की जा सकती है। व्यक्ति विशेष से नहीं।

हिंदुओं की मूल भावना के विपरीत, "सामाजिक अवसंरचना के कथित एकीकरण" का प्रादुर्भाव न केवल सामाजिक विद्वेष का कारण बन रहा, बल्कि आपसी प्रेम और सौहार्द में हानि का भी कारण बन रहा।

जिसमें तत्कालीन रूप से विचारकों द्वारा सामन्जस्य की बात भी देखी जा रही।
परन्तु इस सामंजस्य को कब तक बनाये रखा जा सकता है? यह कहना बहुत कठिन है।
क्योंकि इस अवधारणा में, "एक वर्ग का नित्य त्याग और दूसरे वर्ग का नित्य भोग" भावना ही देखने को मिल रहा है।
दाता वर्ग जिस दिन साम्यता को प्राप्त कर लेगा, उस दिन अगर भोक्ता वर्ग दाता की साम्यता को स्वीकार नहीं पाया तो, एक भयानक विद्रोह का कारण भी बनेगा।

फिर कहना सभी का व्यर्थ हो जाएगा कि, हमारे पूर्वज लाखों साल की गुलामी झेले, हमें लुटा और सताया गया।
ख़ैर!
         भविष्य के गर्त में क्या है? यह तो भविष्य ही जानेगा।

टिप्पणियाँ