पंजाबी हिंदू नरसंहार के क्रम में: 17 मई 1988 खरड़ (पँजाब) नरंसहार (ग्राम मजत खरड़)


"अगर मुझे इसी उम्र में मरना है तो अपने रिश्तेदारों के बीच अपने गाँव मे मरना पसंद करूँगा, "मेरे लिए रोने वाला कोई तो होगा, कोई तो मेरी तेहरवीं पर ऐसी बाते करते हुए आएगा कि "प्यारा ऐसा था प्यारा वैसा था ।" "मुझे इस मृत्युभूमि (80 के दशक का पँजाब) पर सड़ती हुई अंजान लाश नही बनना ", और ऐसा कहकर 26 वर्षीय प्यारा राम पँजाब से दिल्ली के लिए बस पकड़ लेता है पूर्वांचल की ट्रेन लेने के लिए । 

ये मई 1988 का तीसरा सप्ताह था, जिसमे लगभग 65 प्रवासी मजदूरों की हत्या हो चुकी थी । ये हमले 17 मई को शुरू हुए जब सतलज-यमुना लिंक नहर पर काम कर रहे 31 पुरुषों और महिलाओं को चंडीगढ़ में राज्य की राजधानी से 30 मील उत्तर-पश्चिम में मजत के पास उनके शिविर में आतंकियों ने गोली मार दी। और इसके बाद बंदूकधारियों ने शवों को जला दिया।

ये वो समय था जब हिंदी पट्टी का इस्तेमाल नेता लोग सिर्फ वोट बटोरने के लिए करते थे । उपर से कोढ़ में खाज की तरह जेपी के लम्पट चेले भी इस पट्टी पर हावी होते जा रहे थे और धीरे धीरे यहाँ की अर्थव्यवस्था बर्बाद होना शुरू हो गयी थी । जो थोड़ा बहुत रोजगार था अब उसकी भी उम्मीद खत्म हो रही थी तो धीरे धीरे पूर्वांचली जनता ने पलायन अपने जीवन का हिस्सा मान लिया था । अकेले पँजाब में उस वक्त लगभग 7 लाख प्रवासी मजदूर काम करते थे और पूरा दिन सा_ले भैये, बिहारी आदि शब्दो से अपमान भी सहते थे । दूसरे राज्यो महाराष्ट्र और गुजरात मे तो ये सँख्या कई गुणा थी । 

17 मई को हुए इस ताबड़तोड़ हमले से बचकर भागते हुए कुछ लोग खेतो में भी छिप गए । एक दिन बाद, उन्होंने सरकार से बिहार और उड़ीसा राज्यों में उनकी वापसी की व्यवस्था करने की विनती भी की, पर अंत मे स्वयं सब करना पड़ा ।

हमले की जिम्मेदारी उस वक्त एक दर्जन चरमपंथी संगठनों में से एक ने ले ली और शवों के साथ छोड़े गए एक नोट में, समूह ने कहा कि वो ऑपेरशन ब्लू स्टार बदला ले रहा है और आगे इससे ज्यादा बुरे नतीजे भुगतने की धमकी दी ।

31 मजदूरों के जले हुए शव सुनसान कैंपसाइट में पड़े थे, और उनके तंबुओं की ओर जाने वाले कीचड़ भरे रास्तों पर कई दिनों तक भी खून के धब्बे देखे जा सकते हैं। जिसको देखकर राम प्यारा जैसे हजारो मजदूरों ने पँजाब छोड़ने का निर्णय लिया ।

चंडीगढ़ में नहर मुख्यालय द्वारा प्रदान किए गए आंकड़ों के अनुसार, जिस नहर परियोजना पर वे काम कर रहे थे, उसके 10,000 श्रमिकों में से लगभग 7,500 अपने घर चले गए थे।

अब सवाल आता है कि इन प्रवासी मजदूरों का क्या लेना देना अलग राज्य की माँग से । ये बेचारे तो इसे पँजाब के अंदर की लड़ाई समझते थे सरकार और चरमपंथीयो के बीच की । पर उन्हें नही मालूम था कि ये उग्रवादी समूह का लक्ष्य स्पष्ट था कि ये रूदन क्रंदन, ये खौफ, ये गोलियों की आवाज दूर तक जाएगी तो देश ज्यादा डरेगा ।

ऊपर से उन्हें लगता था कि अगर इंदिरा का ये प्रोजेक्ट अगर पूरा हो गया तो पँजाब का सारा पानी हरयाणा और राजस्थान चला जायेगा । हालांकि ये पानी उनको भी हिमाचल से आता है पर उन्हें उनके राज्य को "रोटी की टोकरी" कहे जाने पर अत्यधिक गर्व/घमण्ड था । ये ब्राण्ड इमेज नही जानी चाहिए, इसलिए इस मुद्दे पर चरमपंथी और नरमपंथी दोनो एकमत ही थे ।

1988 के समय पंजाब में औसत प्रवासी कर्मचारी प्रति माह 500-700 रुपये कमा लेता था और उनमें से अधिकांश अपने परिवारों को मदद करने के लिए घर पैसे भेजते हैं। रिक्शा चालक लुभया ने जिले की राजधानी लुधियाना में सात साल तक काम किया, लेकिन इस हफ्ते रेलवे स्टेशन पर ट्रेन का इंतजार कर रहा था। उसने भी स्टेशन पर खड़े होकर ये ही कहा कि वह 'पंजाब की मृत्यु भूमि' को अच्छे के लिए छोड़ रहे हैं।

चंडीगढ़ के ठीक उत्तर में रोपड़ जिले में एक ईंट भट्ठे के मालिक राम कुमार शर्मा के 35 प्रवासी कर्मचारियों में से 30 घर चले गए थे । एक अन्य भट्ठा मालिक चमन लाल ने अनुमान से बताया कि जिले के लगभग 1,700 प्रवासी भट्ठा श्रमिकों में से 1200-1300 भाग गए हैं। बस वो ही नहीं गए जिन्हें अपना गाँव का जीवन मृत्यु से भी बदतर लगता था या मालिक ने टिकट के पैसे भी नही दिए थे । और इस बात का फायदा उठाकर पँजाब एडमिनिस्ट्रेशन के अधिकारी अक्सर मजदूरों से ये कहते थे कि "यदि आप यहाँ काम नहीं करेंगे, तो आप और आपके परिवार के सदस्य क्या खाएँगे ?" पर वो उन मजदूरों के सवालों के जवाब नही देते थे जो कि ये था .... "सरकार को नहर चाहिए, कम्पनी के मालिक को उत्पादन और जमीदारों को समय हाड़तोड़ काम पर हमे भी तो रोटी के साथ साथ जीवन की सुरक्षा चाहिए । वो आप कब दोगे ? "



✒️ निखिलेश शांडिल्य

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