हिंसा की ओर कैसे ले जाती पश्चिमी शिक्षाविदों की काल्पनिक कथाएं ?

                         साभार प्रतिकात्मक चित्र 


पिछली पांच शताब्दियों में यूरोपीयो राष्ट्रो ने एशिया , अफ्रीका और अमरीका के अनेक क्षेत्रों को अपना उपनिवेश बनाया । इन पश्चिमी शक्तियों ने जिन सभ्यताओ को अपना उपनिवेश बनाया उन पर तरह तरह से एक यूरोकेन्द्रित वैश्विक दृष्टिकोण थोपा । उपनिवेशीय को सही ठहराने के लिए स्थानीय सभ्यताओं के इतिहास का , और अनेक पूर्वाग्रहों की पोल खोल दी गई है  , शिक्षा और सामाजिक आर्थिक विमर्शों में उनका आज भी बहुत प्रभाव है। 

यहूदियों के नरसंहार के पीछे क्या कारण थे?

अट्ठारहवीं शताब्दी में, जब यूरोप के पारम्परिक धार्मिक किले पर ज्ञानोदय का खतरा मण्डराने लगा तब यूरोपिय लोग अपने स्वर्णिम अतीत की खोज करने लगे । बहुतों को आशा थी कि वे इसे भारत से पा सकते हैं , जो शताब्दियों से यूरोप के आयत का एक के बड़ा स्रोत रहा था । पहचान की खोज में उन्होंने भारतीय ग्रंथों के विकृत अध्ययन के माध्यम से एक आदर्श के रूप में आर्य नस्ल की धारणा बनायी और उसका सृजन शुरू कर दिया । विषाक्त जर्मन राष्ट्रवाद , यहूदी विरोध और नस्ल सम्बन्धी विज्ञान  द्वारा पोषित इस तिकड़म ने अन्ततः नाजीवाद और यहूदियों के नरसंहार का रास्ता खोल दिया । 

भारत में इसाई मिशनरियों ने कैसे नस्लीय विभाजन को बढ़ावा दिया ?

अट्ठारहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में भारतविद मैक्स मूलर ने आर्यो को एक भाषिक कोटि में रखने का प्रस्ताव रखा, लेकिन औपनिवेशिक प्रशासकों द्वारा, जिन्होंने नस्ली विज्ञान का उपयोग पारम्परिक भारतीय समुदायों को वर्गीकृत के लिए किया था , इसे शीघ्र ही आर्य नस्ल में बदल दिया । जिन जातियों को अनार्य घोषित किया गया उनको या हाशिए पर धकेल दिया गया या फिर हिंदू समाज की खानबन्दियो से बाहर रखा गया । इसके समानांतर दक्षिण भारत में सक्रिय ईसाई मत के प्रचारकों ने द्रविड़ नस्ल की पहचान खड़ी की । उन्होंने तमिल संस्कृत को इसके अखिल भारतीय सांस्कृतिक ताने बाने को छिन्न भिन्न कर दिया , और दावा किया कि इसकी आध्यात्मिक उतर भारतीय आर्य संस्कृति की तुलना में ईसाईयत के अधिक निकट है ।

श्रीलंका में वर्षों चले ग्रह  युद्ध के पीछे के प्रमुख कारण क्या थे ?

श्रीलंका में थियोसाफिकल (Theosophical society) द्वारा प्रोत्साहित बौद्ध पुनरूत्थान ने भी आर्य नस्ल केइ सिद्धांत की परिकल्पना को विस्तार दिया । विशप राबर्ट काल्डवेल  ( (Robert Caldwell) और मैक्स मूलर ने तमिलो को द्रविड़ के रूप में सिहंलियो को आर्य के रूप में श्रेणीबद्ध किया । औपनिवेशिक प्रशासकों ने इस विभाजन को प्रोत्साहित किया धीरे धीरे अनेक दक्षिण भारतीयो ने जिन्होंने द्रविड़ पहचान को
स्वीकार कर लिया था, इस विभाजन को आत्मसात कर लिया और फिर तथाकथित आर्यो के प्रति विद्वेष से भर गये । इसके परिणामस्वरूप विनाशकारी नस्ली गृह युद्ध शुरू हुआ जो श्री लंका में कई वर्षों चलता रहा 


आफ्रीका के रवाण्डा में हुए नरसंहार के पीछे ईसाई मिशनरियों क्या हाथ था ?

गुलामों के व्यापारिक और मालिकों ने गुलामी को सही ठहराने के लिए बाइबल की हैमिटिक पुराणकथा का उपयोग किया, जिसमें नूह के पुत्र हैम के वंशजों को शाप दिया  गया था । हैमटिक भाषायी समूहों की पहचान की गयी और उन्हें अन्य अफ्रीकियों से अलग कर दिया गया ।  अफ्रीकी सभ्यता के योगदान की व्याख्या इस रूप में की गई कि गोरे की एक काल्पनिक नस्ल ने अफ्रीका पर हमला करके उसे सभ्य बनाया था । पारंपरिक अफ्रीकी समुदायों को नस्लो के रूप में वर्गीकृत करने की पश्चिमी करतूत ने कटु और हिंसक संघर्षों को जन्म दिया , जिनमें जनसंहार भी शामिल हैं, जैसा कि रवाण्डा में हो रहा है । 


जय श्री कृष्ण 
दीपक कुमार द्विवेदी 
प्रधान संपादक
जय सनातन भारत 

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