पृथ्वी का भौगोलिक स्वरूप और प्राचीन भारतवर्ष

पृथ्वी और भारतवर्ष के भौगोलिक स्वरूप के विषय हमारे ऋषि मनीषियों को आदि काल से जानकारी थी । 

शतपथ ब्राह्मण लिखा है 
 इयंं पृथिवी वै पुष्करपर्णम्।। ७।४।१।१।२।। 

महाभारत के शा़तिपर्व में पृथ्वी को पदमरूप कहा गया है

तस्यासन विधानाये पृथिवी पदममुच्यते।।१८०। ३८।।

वायु पुराण अध्याय ४१ में लिखा है 
चतुमहाद्वीपवती सेयमुवीं प्रकीर्तिता। ८३।। 
चत्वारो नैकवर्णाढ्या महाद्वीपा परिश्रुता: ।
भद्राक्ष भरतावैव केतुमालाश्र पश्चिमा : । 
उतरा कुरषश्रैव कृतपुण्यप्रतिश्रया ।।८५।। 
सैषा चतुर्महाद्वीपा नानाद्वीपामाकुला । 
पृथिवी कीर्तिता कृत्स्ना पदमाकारा मया द्विजा।।८६।। 
पदमेत्यमिहिता कृत्स्ना पृथिवी बहुविस्तरा।।८७।। 



वसुधा सर्वदा पद्माकारा रही है । यह स्थाई सत्य है जो वैदिक ऋषियों को अनादि काल से ज्ञात थी । मत्स्यपुराण में इस विषय पर अत्यंत स्पष्ट वर्णन मिलता है। 

अथ योगवता श्रेष्ठामस्रजद्र्रितेजसम । 
सष्टाऱ सर्वलोकाना ब्रह्राण सर्वतोमुस्रम् ।।९।।  
यस्मिन्हिरण्मये पदमे बहुयोजनविस्तृते। 
सर्बतेजोगुणमयं पार्थिवैलक्षणैवृतम ।।२।। 
तथा पदमं पुराणज्ञा पृथवीरूपमुमम । 
नारायण समुद्रभृतं प्रवदन्ति महर्षय:।।३।।

या पदमा सा रसा देवी पृथिवी परिचक्ष्यते ।।४।। अध्याय १६९।। 

भारतवर्ष भरतद्वीप ही कमी विस्तृत भारतवर्ष था संकुचित होते होते फिर यह बहुत छोटा हो गया । उसी संकुचिताकार भारतवर्ष का वर्णन हमारे इतिहास के अगले पृष्ठों में होगा । भारत का विस्तार पुराणों के निम्नलिखित श्लोकों से बहुत स्पष्ट हो जाता है।  

योजनानां सहस्र तु द्वीपोऽयं दक्षिणोतरम् ।।८०।। 
आयतो ह्राकुमारिक्यादागंगाप्रभवाश्व वै । 
तिर्यगुतरविस्तरविस्तीवर्ण सहस्राणि नवैव तु।।८९।। 

पुराण को लिखने वाले ऋषियों मनीषियों की दृष्टि अंत्यंत सूक्ष्म थी । उन्होंने दक्षिणोत्तर का पूरा विस्तार दे दिया । कुमारी दक्षिण की चरम सीमा है और गंगा का प्रभाव उतर का अन्तिम स्थान की दूरी एक सहस्त्र योजन है । इससे ज्ञात होता है कि उन दिनों का कोश और योजन का परिणाम वर्तमान काल से सदृश नहीं था । 

जलप्रलय और ब्रह्मा का प्रादुर्भाव इस पृथ्वी पर जल प्रलय आया था । उसके पश्चात पृथ्वी जल से बाहर निकलने लगी । तब योगियों में परमश्रेष्ठ भगवान ब्रह्मा का प्रादुर्भाव उस कमलाकारा पृथ्वी हुआ । ब्रह्मा जी ने वेद और संपूर्ण ज्ञान उपदेश इस सृष्टि के आरम्भ में कर दिया । वेदातिरिक्त सारा ज्ञान संस्कृत भाषा में दिया । उस संस्कृत भाषा का अपभ्रंश पृथ्वी की वर्तमान बोलियां हैं ।  

 हमारे देश के लिए भारतवर्ष शब्द का प्रयोग काश्मीर आनन्दवर्धन के ध्वन्यालोक में मिलता है 

रतिहि भारतवर्षोचितेनैव व्यवहारे दिव्यानामपि वर्णनीयेति स्थित। 
आनन्दवर्धन का पूर्वकालिक भट्ट बाण इस समूचे देश का नाम भारतवर्ष समझता है 
इतश्च नातिदूरे तस्पास्म्द् भारतवर्ष दुतरेणानत्तरे किम्पुरूषनाम्नि वर्षे वर्षे पर्वतों हेमकुट नाम निवास:  
 


जय श्री कृष्ण
सोर्स 
पंडित भगवद्दत्त 
भारतवर्ष का इतिहास
दीपक कुमार द्विवेदी

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