स्पेन के धर्मयुद्ध हमारी प्रेरणा क्यों नहीं बने ?

                इस्लामिक शासन से सात सौ वर्षों के बाद ईसाई धर्मयोद्धाओं द्वारा स्पेन की आजादी भीषण धर्मयुद्धों का परिणाम थी.  70% स्पेन 20 पीढ़ियों से धर्मपरिवर्तित हो चुका था. जब विधर्मी सेनाओं का ग्रेनाडा का आखिरी किला गिरा तब अंतिम विजय हुई. फिर चर्च के आदेश से तीन माह में, जी हां मात्र तीन माह में सब के सब की घरवापसी हो गयी. जो बचे उन्हें देश छोड़कर चले जाने का विकल्प दिया गया. और हमारी ओर ? हमने क्या किया ? हम इस मुख्यभूमि से तो गांधार मद्र के सीमांत को उनके दो सौ साल चले भीषण संघर्ष में उनका साथ देने भी नहीं गये ...

             हम दोनों देशों पर विधर्मी आक्रमणों का दौर सन् 712 ई. से ही प्रारंभ होता है. उससे पहले आने वाले हूण कुषाण शक यवन सब हमारे रक्त में समाहित हो चुके है. लेकिन ये घोर हिंसक  निकृष्ट आक्रमणकारी अपने साथ अपना ईश्वर और मजहब लेकर आये थे. यह पहली बार हो रहा था. हम दोनों देश गुलाम हो गये थे. और लम्बे समय गुलाम रहे. धर्मयोद्धाओं ने स्पेन को 1492 में आजाद करा लिया. हम गुलाम बने रहे. अभी अंग्रेजों की भी गुलामी जो लिखी थी.

       'अहिंसक बने रह कर जब हम हिंसा का मुकाबला करेंगे तो आक्रांता विधर्मियों का ह्रदय हमारे त्याग बलिदान को देख कर परिवर्तित हो जाएगा.' कुछ ऐसा ही गांधी जी कहते सुने गये थे. गांधी जी को हमारे देश के रक्तप्लावित इतिहास का जैसे ज्ञान ही नहीं था. हमारा बहुत खून बहा पर किसी औरंगजेब का कोई ह्रदय नहीं बदला. गांधीजी 20 साल अफ्रीका में रह कर आये थे, भारत का प्राचीन इतिहास भला क्या जानते होंगे. लेकिन उनकी अहिंसा तो हमें आत्मरक्षा की स्वाभाविक प्रकृतिप्रदत्त वृत्ति के विरुद्ध जाकर भेड़ों की तरह शत्रुओं के हाथों कट जाने को प्रेरित करती थी. उन्हें तो यह ज्ञान भी नहीं था कि विधर्मियों के मजहब में तो हमें घेर कर वध करने, हमारी औरतों को लूट का माल बना लेने व शेष समाज को गुलाम बनाने निर्देश बहुत पहले से दिया जा चुका था. तुष्टीकरण का चरम तो तब आया जब वे स्वामी श्रद्धानंद व महाशय राजपाल के हत्यारों को अपना भाई बता रहे थे. जब मौलाना जौहर ने कहा, हमारा नीच से नीच व्यक्ति भी हमारे मजहबी ऐतबार से मिस्टर गांधी, आप से बेहतर है, तो भी गांधी की आंखें नहीं खुलीं. वे हिंदुस्तानी मेले में अहिंसा की अपनी इस नयी दुकान को अब बंद भी नहीं कर सकते थे. अहिंसक  आंदोलनों ने आम भारतीयों को राजनैतिक भागीदारी का पहली बार एक बड़ा अवसर तो दिया. लेकिन वह संगठित होकर शक्ति अर्जित नहीं कर सका. तुष्टीकरण की नीतियों ने शीघ्र ही इसे जिन्ना और ब्रिटिश सरकार की चालबाजियों का शिकार बना दिया.

          मैं जब स्पेन के धर्मयोद्धाओं उनके संघर्ष और विजय का हवाला देता हूं तो यह दरअसल गांधार से अब तक भागते आ रहे अपने लोगों को भागने से रोकने और शत्रुओं की ओर पलट कर उनपर प्रत्याक्रमण करने की कोशिश है. हम शत्रुओं से घिर रहे हैं. आप यह मान लें कि मैं अपने चारों ओर राष्ट्रशत्रुओं के विरुद्ध युद्ध की ललकार, उनका हाहाकार सुनना चाह रहा हूं.. युद्ध, गुलामी की जंजीरों को तोड़कर आजादी का प्रकाश ले आता है. स्पेन 700 साल से विधर्मियों का गुलाम था और हम 800 साल रहे. जैसा कि ऊपर कहा है, दोनों देशों की गुलामी का दौर 711-12 ई. से ही प्रारंभ होता है. 10 लाख से कम आक्रांताओं ने  350 वर्ष के संघर्ष के बाद 12 करोड़ के इस देश को अंततः गुलाम बना लिया, हम मरे, कटे, विद्रोह करते रहे पर समर्थ नेतृत्व के अभाव में विधर्मियों का नाश कर आजाद न हो सके. यह बात हमें शर्मसार करती है.. 

     सात सौ साल की गुलामी में स्पेन के ईसाई भी लगातार विद्रोह करते रहे, मरते रहे, कटते रहे, बलिदान होते रहे. चर्च ने आवाहन दिया, वे धर्मयोद्धा बने. फिर 1492 में वे आजादी की मंजिल तक पहुंच ही गये. उन्होंने गुलामी के एक एक निशान मिटा दिये. न विधर्मियों के धर्मस्थल बचे, न विधर्मी. सब के सब की घर वापसी हो गयी, सब धर्मस्थल वापस चर्च हो गये.  क्या स्पेन की आजादी हमारे लिए शौर्य का उदाहरण नहीं है ..? क्या इतिहास की किसी किताब ने हमारे स्कूलों में हमें स्पेन की आजादी के इस युद्ध के बारे में कभी बताया ?

  1492 में जब स्पेन आजाद हुआ तब दिल्ली में सिकंदर लोदी का राज था. राजपुताने में राणा रायमल का शासन था. राजनैतिक अस्थिरता के वातावरण में दूर फरगाना में बैठा बाबर भारत के साम्राज्य की कल्पना कर लेता है लेकिन यहीं सरहदों पर बैठे राजस्थान मालवा के राजा यह नहीं सोच पाये. बाबर दिल्ली आते ही यहां गद्दार खोज लेता है. शीलादित्य तोमर ने राणा सांगा से खानवा युद्ध के मैदान में गद्दारी न की होती तो आज भारत का इतिहास ही दूसरी कहानी कहता. शीलादित्य से बड़ा दूसरा गद्दार नहीं. महाराज जयचंद तो अनायास बदनाम हैं. 

            बाबर से मुक्ति के बाद फिर पंजाब सिंध की मुक्ति का अभियान चला होता. लेकिन ऐसा नहीं हो पाया. राणा सांगा तत्कालीन इतिहास में एक मात्र चरित्र हैं जिनमें राष्ट्रीय नेतृत्व की क्षमता थी. लेकिन एक गद्दार ने भारत का इतिहास लिख दिया. क्या यह जानते हैं आप 712 से अब तक विधर्मी आक्रांताओं के हाथों कितने हिंदू मारे जा चुके हैं ? विल डूरंट अमेरिकन इतिहासकार की किताब कहती है, 8.5 करोड़ ! दूसरा आकलन 10 करोड़ से ऊपर जाता है. इतना वध हुआ था कि देश की आबादी कम हो गयी थी. इतनी मौतों, बलिदानों के बाद भी देश के राजाओं, धर्माधिकारियों में एक साथ होकर विधर्मियों को खदेड़ने की सोच नहीं विकसित हुई. कोई नाम भी नहीं जानता कि उन कठिन काल में हमारे धर्मगुरू शंकराचार्यगण, अखाड़ों के महंतगण भला कौन रहे होंगे ? आदिशंकराचार्य से अधिक धर्म विस्तार व धर्मरक्षा के लिए भला कौन सजग था ? उन्होंने ही तो भारतपर्यंत चार शंकराचार्य पीठों व अखाड़ों के रूप में धर्मरक्षक सेनाओं की स्थापना की थी. सब कहां विलीन हो गये ? किसी ने बख्तियार खिलजी जैसे आततायी का रास्ता रोकने का भी प्रयास नहीं किया. सनातन हिंदू धर्मरक्षा के एकमात्र प्रतीक, वह भी बहुत बाद में दशम गुरू गुरु गोविंद सिंह जी बने. उन्हीं का ही संदेश देश भर में प्रसारित हो जाता तो इस आयतित धर्म का नाश हो जाता. लेकिन आदिशंकर की रक्षक प्रेरणा किन षड़यंत्रों के कारण ऐतिहासिक परिदृश्य से ओझल हो गयी, यह अपने में ही गहन शोध का विषय है. लेकिन परिणाम यह है कि  इसी विश्व में एक जगह धर्म प्रतिरोध में उठ खड़ा होता है, प्रेरणा देता है, सेनाएं जोड़ता है और इसके विपरीत अपने यहां कोई धर्माधिकारियों के नाम तक नहीं जानता ! 

 यहां विधर्मी आक्रांताओं के विरुद्ध धर्मयुद्ध की घोषणा क्यों नहीं हो सकी, समझ में नहीं आता. स्पेन में धर्मगुरुओं ने धर्मयुद्ध का आह्वान दिया था और यहां ? धर्मनियंता, धर्मगुरू पूर्णतया परिदृश्य से ही अनुपस्थित हैं. वे कहीं भी देश को विधर्मियों से मुक्त करने का आवाहन करते नहीं देखे जाते. जो सभ्यता पुनर्जन्म में विश्वास करती है उसे भला युद्ध से, मरने से डरते क्यों लगता है ? कायरों की अहिंसकों की मौत नहीं आयी क्या ? गांधी का अहिंसावाद क्या विभाजन के दौरान हुई 15 लाख मौतों, लाखों बलात्कारों को रोक सका ?

        कोई शंकराचार्य, कोई राजा उस दौर में देश को अनुप्राणित करता नहीं दिखाई देता. तो इस धर्मप्राण देश के नेतृत्वविहीन ग्रामों नगरों ने अपने अपने स्तरों पर गांव गांव मोर्चे लगाये. देश गुलामी अत्याचार, शोषण, प्रताड़ना का शिकार बना. ऐसा बुरा समय इस देश के हजारों वर्ष के इतिहास में कदाचित कभी आया न था.  लोग कहते हैं कि उस समय देश मजबूर था. युद्ध के लिए तैयार न था. तैयारी ? 1857 की तैयारी हुई थी क्या ? कौन देता है तैयारी का समय ? कौन सा देश है दुनिया का जो पूरी तैयारी से आजादी का युद्ध लड़ सका है...? जब राष्ट्र पर संकटकाल मंडराता है तो सामान्य लोगों में से ही नेतृत्व उभरता है, आम जनता युद्ध करती है. बलिदान होती है. इतना बड़ा बलिदान विश्व इतिहास में किसी और ने नहीं दिया है हमारे सिवा. हमें हमारी शक्ति के अनुरूप नेतृत्व नहीं मिला. हमें कायरता का पाठ पढ़ाया जा रहा है ? युद्ध भी एक बड़ा सत्य है जो स्थायी समाधान करता है, इसे स्वीकार कीजिए. रेत में सर देने और किसी तारनहार की प्रतीक्षा से समस्याओं का समाधान नहीं होने वाला.

          गांधी की सम्पूर्ण राजनीति तुष्टीकरण की रही है. उन्होंने मुस्लिम तुष्टीकरण के लिए ही खलीफत जैसे गैरमुल्की मुद्दे की वकालत कर मुस्लिम नेतृत्व हथिया लिया. जब कुछ दिनों बाद उन्होंने लंगोटी भी पहन ली, रामभक्त महात्मा बन गये तो देश की धर्मप्राण हिंदू जनता ने उनको देश के नेतृत्व की कमान पकड़ा दी. वे तुष्टीकरण की नीति के महात्मा बन गये. यही तुष्टीकरणवाद देश के विभाजन का कारण बना. गांधी का अहिंसक प्रयोग देश के अंदर समाज की एकता, आंतरिक समरसता में अपनी भूमिका निभा सकता है. अहिंसा के सिद्धांत का उपयोग हमारे अपने लोगों में अपनी आंतरिक एकता, सहयोग की स्थापना के लिए तो ठीक है. लेकिन राष्ट्रशक्ति के बगैर देश कैसे बनेगा ? आजादी के बाद अहिंसा व तुष्टीकरण का उपयोग देश के मूर्ख राजनीतिज्ञों ने भारत की विदेश व रक्षा नीति को चलाने के लिए भी किया है. वे चीन पाकिस्तान को दुष्ट करते रहे. परिणामस्वरूप हम 85 हजार वर्ग किमी पाकिस्तान को और 38 हजार वर्ग किमी चीन को गवां हम कर संतोष किये बैठे हैं.

     आज पहली बार है कि कोई राष्ट्रदृष्टि की, राष्ट्रीय हितों की रक्षा का वातावरण बना है. आने के साथ ही बड़े बड़े षड़यन्त्रों से मुकाबला चल रहा है. पीएफआई की युद्ध की तैयारियां हमने देखी हैं. देश को समझ में आ जाना चाहिए कि युद्ध ही हमारी समस्याओं का समाधान है. पहली बार ऐसी संभावना बन रही है कि राष्ट्र एवं धर्म में साम्य स्थापित हो जाए. हमारे धर्म के नियंतागण ईश्वर करे कि उनमें दायित्वबोध विकसित हो, वे जाग्रत हो जाएं.  सनातन हिंदू समाज में अभी आंतरिक धार्मिक-सामाजिक एकीकरण के बहुत बड़े बड़े कार्य होने हैं. राजनीति तो राष्ट्रवादी नेता मोदीजी के नेतृत्व में अपने लक्ष्यों की ओर उन्मुख है  लेकिन धर्माधिकारीगण ? वे कहां हैं ? वह उच्च स्थान लम्बे समय से रिक्त है. वहां तो राष्ट्रधर्म की हुंकार देने वाला, भारतीय समाज को जाग्रत करने वाला व धर्मयुद्ध का शंखनाद करने वाला कोई भी नहीं है ...!


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