विचार की महत्ता(विवेक)

लोकार्थ में विवेक का आशय, वैचारिक चिंतना के द्वन्द्व में उचित वा अनुचित के भेद को समझने और किसी एक पहलू पर आरूढ़ होने से ही होता है।
क्योंकि विचार सदैव द्वंद्वात्मक प्रकृति के होते हैं। जब भी मैं कोई बात कहती हूँ, तब उसके विपरीत स्थिति का भी तत्क्षण बोध अवश्य ही प्रकट हो जाता है।
यथार्थ में, 
             एक तत्त्व का एक ही तत्त्वार्थ होता है, और जो इसके विपरीत, अर्थात द्वंद्वात्मकता में सहज रूप से बोध होता है, वह निश्चय ही भास-ज्ञान होता है।
जैसे- मैं बोली कि मैं उत्तर दिशा को मुँह करके खड़ी हूँ। यह मेरी स्थिति का यथार्थ ज्ञान है। परन्तु मेरी इस स्थिति के सापेक्ष एक और बोध ज्ञान होता है कि, मेरे पीछे दक्षिण दिशा है।
अब यही से संशय का पुनः आरम्भ ठीक उसी प्रकार हो जाता है, जैसे- दो समान्तर काँच के टुकड़ों के मध्य खड़े होकर अपने आप को निहारना।(अर्थात एक छवि के बजाय अनन्त छवि का उपस्थित हो जाना)

अब इस स्थिति में, मैं उत्तर की ओर मुँह करके खड़ी हूँ, या दक्षिण की ओर? कहीं ऐसा तो नहीं कि मैं दक्षिण को ही उत्तर समझ बैठी हूँ।
यह साधारण मतिभ्रम है, जो संशय के रूप में प्रकट होता है। वही द्वितीय स्तर पर,
मेरा अभीष्ट उत्तर दिशा की ओर था, कहीं पीछे ही मेरे उत्तर दिशा तो नहीं, जो मेरा अभीष्ट छूट जाएगा? क्योंकि जैसे-जैसे मैं अपने बोध के अनुसार उत्तर दिशा की ओर बढूंगी, मेरा ज्ञान उचित न होने पर मेरी स्थिति अभीष्ट से दूर होती जाएगी।
और तृतीय स्तर पर जो सबसे अधिक घातक स्थिति उत्पन्न होती है वह यह कि, 
मैं निश्चित दिशा ज्ञान से भी भटक चुकी हूँ, मुझे यह भी समझ नहीं आ रहा कि, मैं आगे जाऊं या नहीं, मेरा अभीष्ट मेरे सम्मुख है या मेरे पीछे।
कहीं ऐसा तो नहीं कि मैं आगे जाऊं और मेरे पीछे कोई भयानक स्थिति उत्पन्न हो जाये, और मैं न आगे जा पाऊँ, और न ही पीछे लौट पाऊँ। क्योंकि अगर मैं आगे जाती हूँ, तो पीछे जो स्थान रिक्त होता है, उस स्थान पर भी कोई न कोई आ सकता है। वह सहायक होगा, या विनाशक?

इस प्रकार, वैचारिक चिंतना में सदैव तीन स्तर का भयानक विभ्रम उत्पन्न हो जाता है। और किसी भी स्थिति में हमारी सहज गतियमाण स्थिति "किंकर्तव्यविमूढ़" की काल्पनिक अवस्था को प्राप्त कर लेती है।

इस स्थिति से उबारने के लिए और ऐसे द्वंद्वात्मक भेदज्ञान में उचितानुचित का निर्णय बोध प्राप्त करने के लिए यह आवश्यक हो जाता है कि, हमारे पास एक ऐसी तीक्ष्ण दृष्टि हो, जो मेरे किसी भी निर्णय की गति के परिणाम को वर्त्तमान में ख्यापित कर पाए।
क्या ऐसा सम्भव है?
                    लोकार्थ में ऐसा होना अत्यन्त कठिन होता है, परन्तु जब पूर्व के समस्त विचारों का व्यापक मन्थन किया जाय, और उनके परिणाम का बोध सम्मुख रखते हुए(स्मृतिबोध) उक्त बोध की गति के अनुसार जब मैं किसी "निर्णय का चयन" करती हूँ। तो एक सतत और निर्बाध गति का सहज बोध प्राप्त हो जाता है।
जिससे मैं वर्त्तमान में उत्तर दिशा की ओर मुँह करके खड़ी हूँ, या नहीं, न केवल इसका सम्यक बोध होता है, बल्कि यह भी भलीविधि ज्ञात हो जाता है कि मेरा आगे का अभीष्ट क्या है?

इसलिए जहाँ संशय के त्राण के लिए निरन्तर विचार करने की आवश्यकता का सहज ज्ञान होता है, वही इस चिंतना से उत्पन्न स्मृति बोध के माध्यम से जो "धर्माधर्म" सत्यासत्य का बोध होता है, उसे ही #विवेक कहा जाता है।

और इसी "विवेक" के लिए कहा गया है कि, जिसका स्वयं का विवेक कल्याण करने में अक्षम है, उसका कल्याण स्वयं भगवान भी नहीं कर सकते। 
अगर दूसरे शब्दों में कहा जाय तो- 
विचार से स्मृति-बोध, स्मृतिबोध के मन्थन से प्राप्त होने वाला द्रव्य ही विवेक है। और इसी विवेक से प्रकाशित हुई बुद्धि #निश्चयात्मिका बुद्धि बनकर परम कल्याण को देने वाली है।


साभार
भारद्वाज नमिता जी 

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