हिंदी भाषा और हिंदी साहित्य के पतन का कारण

         
   भारतवर्ष में लगभग 43% व्यक्तियों की मातृभाषा जहाँ हिन्दी है, वही लगभग 10% लोग ऐसे भी हैं, जिनकी मातृभाषा हिंदी सम्बद्ध है। इसके बाद भी लगभग 12% लोगों की दूसरी सबसे प्रधान भाषा हिन्दी होने के पश्चात भी "हिन्दी भाषा जहाँ अपनी पहचान स्थापित करने में अक्षम हो रही, वही सबसे उपेक्षित भाषा का तमगा लगाए भी सहज ही देखी जाती है। विश्व मण्डल की समूची आबादी का लगभग 10% अकेले भाषायी आधार पर #प्रतिनिधित्व करने वाली भाषा की प्रतिष्ठा की बात की जाय तो,
"पहिले दुबर, दूजे दू गो असाढ़" की लोकोक्ति को यथार्थ रूप में चरितार्थ करती हुई देखी जाती है।
या दूसरे शब्दों में कहूँ तो "हिन्दी भाषा भारत के उस चरित्र का प्रतिनिधित्व करती है, जो विश्व मण्डल में अकेले सोलहवें हिस्से को धारण करके भी पश्चिम देशों के सामने हीन-भाव से कुपोषितों के पर्चे बांटता दिखता था।

ऐसा क्यों? और ऐसे कौन से कारण रहे हैं, जो दसवें भाग को धारण करने वाली भाषा इतनी पतित रूप से देखी जाती रही है?
जब इस विषय पर पर्याप्त चिंतन मनन करती हूँ तब मुझे एक मूलभूत कारण और दूसरा सह कारण कुछ इस प्रकार ज्ञात होता है:-
मूलभूत कारण जो हिन्दी भाषा के पतन के रूप में जाना जाता है, वह है "हिन्दी भाषा और साहित्य के प्रतिमानों में लगातार की जाने वाली गिरावट"।

भाषा की महत्ता "सूचनाओं के आदान-प्रदान तक ही निहित नहीं होती। बल्कि एक भाषा, एक विशिष्ट परिक्षेत्र का 'आर्थिक, सामाजिक और चारित्रिक' स्थिति का प्रतिनिधित्व करती है। भाषा की उपादेयता अगर सूचना के आदान-प्रदान तक निहित होता, तो कभी भी भाषा और भाषायी व्याकरण विज्ञान आदि का कोई अस्तित्व नहीं होता। क्योंकि सूचनाओं का आदान-प्रदान तो मूक पशु-पक्षी भी करते ही हैं। एक शिशु भी अपनी अभीष्ट सूचनाओं को अभीष्ट के पास प्रेषित करने में पूर्ण समर्थ होता ही है। उन्हें किसी भाषायी विज्ञान या व्याकरणिक गूढ़ता की आवश्यकता नहीं पड़ती।

इसलिए यह परिकल्पना बेमानी हो जाती है कि, भाषा की महत्ता "सूचना के आदान-प्रदान में ही निहित है"।

परन्तु भारतवर्ष में, 
                        भारतीयों के भीतर #हीनताबोध भरने के लिए जिस प्रकार के नए-नए षडयंत्र रचे गए, उसमें भाषायी पतन प्रमुख स्थान रखता है।
प्रसिद्धि का जो मानक स्थापित किया गया, वह यह था कि, जो अति विरल है, वह #नोबल है, वह विशिष्ट है, और बेशकीमती भी।
भले ही इस परिभाषा का प्रयोग करके "सघनता के सापेक्ष विरलता को उत्पन्न कर, उस रिक्ति में किसी भी कारक को स्थापित क्यों न कर दिया जाय, वह अमूल्य ही जानी जाएगी।
जैसे- भारत में चाय और चीनी बहुतायत में पैदा होता है। जबकि कॉफी(कहवा) न के बराबर।

अब कोई व्यक्ति आये और चाय और चीनी सर्वत्र उपलब्ध है, उसे उपेक्षित दर्शाते हुए कॉफ़ी को "स्टेटस सिंबल" की भाँति प्रयोग करने लगे।

ध्यातव्य हो, अगर चाय से व्यक्ति को कोई लाभ नहीं होता, तो कॉफी से भी उसे लाभ कुछ भी नहीं होने वाला। परन्तु कॉफी को स्टेटस सिंबल की भाँति प्रयोग करके समाज में अपनी एक अलग पहचान ख्यापित करने का प्रयास भारतवर्ष में कॉफी की उपलब्धता न होने के बाद भी, कॉफी के प्रति आकर्षित अवश्य करेगा। और पुनः कॉफी को न चाहते हुए भी लोग पीने के लिए विवश होते सहज देखे जायेंगे।

यथार्थ में हिंदी भाषा के साथ भी यही हुआ,
अंग्रेजों ने अंग्रेजी और फ़ारसी भाषा को "स्टेटस सिंबल" बनाकर पेश किया, अंग्रेजी पढ़ने और बोलने वाले के लिए सरकारी पद-प्रतिष्ठान में सहर्ष स्वीकृति दी गयी। परिणामस्वरूप हिन्दी और अन्य मातृभाषा जिनका सम्बन्ध "आर्थिक विकास" से कट चुका था, धीरे-धीरे दोयम दर्जे पर स्थान पाने लगीं। जिसमें सबसे बुरी स्थिति हिंदी की जानी गयी।
क्योंकि यह भाषा तत्कालीन भारत में 70% से अधिक का प्रतिनिधित्व करती थी।

आर्थिक उन्नति से हटाए जाने के पश्चात हिन्दी भाषा की प्रतिष्ठा समाज में अपने आप ही क्षीण होने लगी।
क्योंकि समस्त प्रतिष्ठा का मूल #अर्थ ही जाना जाता है। और अर्थ जगत से विस्थापित हुई मातृभाषा जब अपनी प्रतिष्ठा के लिए संघर्षरत होती है, तब उसका अन्तिम अस्त्र एकमात्र #साहित्य ही होता है।

क्योंकि एक साहित्यकार के रूप में ही "हिन्दी-भाषी" अपनी आर्थिक स्थिति को बनाये रखने में समर्थ हो सकता था। और एक मजबूत आर्थिक स्थिति पुनः समाज में प्रतिष्ठा का साधन बनती।

परन्तु ऐसा हो नहीं पाया। क्योंकि गुलामी काल का सबसे विकट प्रभाव जहाँ हिन्दी पट्टी पर पड़ रहा था, वही गुलामी के प्रभाव से लोगों की #क्रयशक्ति भी पूरी तरह से चरमरा चुकी थी। ऐसे में क्षीण हो चुकी क्रयशक्ति के परिणामस्वरूप किसी साहित्यकार का समाज में प्रतिष्ठा प्राप्त करना अपने आप में विचारणीय था। क्योंकि "जब क्षुधा के लिए भोजन न हो, तब चिंतन के लिए किताबें कौन ढूढता है?" 

एक ओर अंग्रेजी शिक्षा की प्रतिष्ठा, दूसरी ओर हिंदी साहित्यकारों का सामाजिक प्रतिष्ठा में नगण्यता, हिंदी साहित्य को "सूचना के आदान-प्रदान का अंग मात्र" बनाकर रख दिया। 

जिसके साथ पुनः छद्म का आरंभ होता है, ठीक उसी प्रकार जैसे "द्वापर में विप्र सुदामा के साथ हुआ था"।
अर्थात, अगर तुम्हें एक प्रतिष्ठित साहित्यकार बनना है तो, जो शाशन सत्ता कहेगी, उसी के अनुसार "अपने साहित्य की रचना करनी होगी" जिसके एवज में तुम्हें "अर्थ और पद" दोनों की प्राप्ति होगी।

हिन्दी साहित्य के लिए यह काल सबसे बुरा काल रहा, वही उससे भी बुरा तत्कालीन साहित्यकारों का शासन सत्ता से हाथ मिलाना भी जाना गया। 

जिसके माध्यम से "जहाँ हिंदी भाषा के समस्त प्रतिमानों का ध्वस्तीकरण किया गया, और बाद में अंग्रेजी परस्त आख्याएँ ऐसी छापी जाने लगी, कि अनेक पीढ़ियाँ आज तक उस विध्वंसित मानसिकता के प्रभाव से उबर तक नहीं पाया।
ऐसे समझौता करने वाले लेखकों के नाम पूछकर शर्मिंदा नहीं करें। क्योंकि जब समूचे कुएँ में ही भाँग घुली हो, तब उसे पीकर झूमता कौन है? यह पूछने के बजाय यह जानने की बात है कि उस पानी से बचा कौन है?
शेष आगे.....


साभार
भरद्वाज नमिता 

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