मनुस्मृति: स्वयंभू मनु के राज्य की उत्पत्ति एवं स्वरूप सम्बंधित विचारो को समझने के लिए पढ़ें पूरा आलेख

मनुस्मृति के सातवें अध्याय में राज - धर्म का प्रतिपादन करते हुए राज्य या राजा की उत्पत्ति के दैवीय सिद्धांत का विवेचन किया गया है । इसके अनुसार सृष्टि की प्रारम्भिक अवस्था बड़ी भयंकर थी । उस समय न कोई राज्य था न कोई राजा तथा इसके अभाव में दण्ड व्यवस्था ही नहीं थी । राज्य और अर्थव्यवस्था के अभाव में मनुष्यों की आसुरी प्रवृत्तियां को खुलकर खेलने का अवसर मिलता है , जिनके परिणामस्वरूप चतुर्दिक अराजकता का अखण्ड साम्राज्य था , चारो ओर भय का वातावरण था और सभी लोग दुखी अवस्था में थे । कोई व्यक्ति अपने कर्तव्यों का पालन करने की स्थिति में नहीं था । ऐसी स्थिति में ईश्वर ने सृष्टि की रक्षा के लिए राज्यपति ( राजा) की व्यवस्था की । कौटिल्य ने भी इसका प्रतिपादन किया है कि जनता ने जब देखा कि अराजकता की स्थिति में आर्थिक संघों के फलस्वरूप ही लोग नष्ट हो जाएंगे ,तब स्वयंभू मनु ने अपना राजा बनाया और उन्हें अपने अन्न का छठा भाग तथा अपने व्यापार के लाभ का दसवां भाग देने का वादा किया ‌। 









स्वयंभू मनु के अनुसार ,राजा ,यम कुबेर , इन्द्र वरूण पवन और अग्नि सृष्टि की इन आठ सर्वाधिक महत्वपूर्ण शक्तियां और तत्वों से समन्वित होता है। इन आठ श्रेष्ठ तत्वों से समन्वित होने के कारण राजा विश्व का रक्षक ,पोषक एवं समृद्धिकारक होता है। जिस प्रकार ये विशिष्ट शक्तियां अपने गुण विशेषो से समस्त सृष्टि पर शासन करती है ,उसी प्रकार राजा अपनी शक्ति से लोक पर शासन करता है। मनुस्मृति के अनुसार ,ऐसा राजा इंद्र अथवा विद्युत के समान ऐश्वर्याकर्ता ,पवन के समान सबसे प्राणवत प्रिय और हृदय की बात जानने वाला ,यम के समान पक्षपात रहित न्यायधीश , सूर्य के समान न्याय , धर्म विद्या का प्रकाश अग्नि के समान के समान दुष्टों को भस्म करने वाला , वरुण के समान दुष्टों को अनेक प्रकार से बांधने वाला , चंद्र के समान श्रेष्ठ पुरषों को आनन्द देने वाला कुबेर के समान कोषो को भरने वाला होता है । 










स्वयंभू मनु का विचार है कि राजा की रचना इन आठ देवताओं के उत्कृष्ट अंशों को लेकर की गई । कारण राजा न केवल एक देवता वरन् इनमें से प्रत्येक देवता से महान है। वह इन आठ प्रमुख देवताओं के तत्वों को धारण करने वाला विशिष्ट देवता हैं। अतः राजा पद परम पवित्र है । ईश्वर द्वारा उत्पन्न ऐसा राजा भले ही बाधक हो , लेकिन उसे मरणशील प्राणी समझकर उसकी अवज्ञा या अपमान नहीं करना चाहिए ‌। राजा अपने उद्देश्यो की सिद्धि के लिए विविध रूप धारण करता है, इसलिए भूल से राजा का विरोध नहीं किया जाना चाहिए । धर्म के अनुकूल राजा जो भी व्यवस्था निश्चित करे ,उनका कभी अतिक्रमण नहीं किया जाना चाहिए । प्रजा को अनिवार्य रूप से शासक की इच्छाओं को पालन करना चाहिए । क्योंकि उसकी इच्छा ईश्वरीय इच्छा पर आधारित है और राजा अपने कार्यो के लिए ईश्वर के प्रति ही उतरदायी है न कि राजा के प्रति । 

क्या राजा निरंकुश है? 


स्वयंभू मनु द्वारा प्रतिपादित राज्य की उत्पत्ति के दैवीय सिद्धांत की तुलना प्रायः पाश्चात्य विद्वानों द्वारा प्रतिपादित सिद्धांतो की जाती है है किंतु दोनों में बहुत अधिक अन्तर है। पाश्चात्य विद्वानों ने राज्य की उत्पत्ति के दैवी सिद्धांत प्रतिपादित करते हुए राजा को निरंकुश सत्ता प्रदान की है । उदाहरण के लिए ,इस सिद्धांत के आधार पर ही फ्रांस का राजा लुई चौदहवां कहा करता था कि मै ही राज्य हूं मेरी इच्छा ही कानून हैं । मै इस धरती पर ईश्वर का प्रतिनिधि बनकर शासन करता हूं । 







स्वयंभू मनु ने राजा को ऐसी निरंकुश सत्ता प्रदान नहीं की है। मनु ने राजा को धर्म के अधीन रखा है और इस बात पर बल दिया है कि राजा सदा प्रजा का पालन तथा उसकी रक्षा करे राजा को दैवी देवांश बताया गया है किन्तु बल उसके दैवत्व पर है न कि उसके अधिकार चाहे जिस प्रकार शासन करने पर और दैवत्व पर बलि देने का तात्पर्य यह है कि  राजा के द्वारा दैवीय गुणों के आधार पर प्रजा पालन किया जाना चाहिए । मोटवानी के शब्दों में,राजा को समझाना चाहिए कि वह धर्म के नियमों के अधीन है । कोई भी राजा धर्म के विरूद्ध व्यवहार नहीं कर सकता , धर्म राजाओं और मनुष्य पर समान ही शासन करता है । इसके अतिरिक्त राजा राजनीतिक प्रभु जनता के अधीन है । वह अपनी शक्तियों के प्रयोग में जनता की आज्ञा पालन की क्षमता से सीमित है इसी प्रकार सालेटोर ने लिखा है कि स्वयंभू मनु ने ने नि: सन्देह यह कहा है कि जनता राजा को गद्दी से उतार सकती है और उसे मार भी सकती है यदि वह अपनी मुर्खता से प्रजा को सताता है। स्वयंभू का राजा विशिष्ट दैव होकर भी साधारण प्राणियों की भांति दण्ड दिया जाता है उसी में राजा को अधिक ज्ञानी होने के कारण सशस्त्र एक सौ गण दण्ड मिलता है । इसके अतिरिक्त राजा का प्रशिक्षण और उसकी दिनचर्या भी उसे स्वेच्छाचारिता या निरंकुशता की ओर नहीं जाने दे सकते । वास्तव में स्वयंभू मनु ने राज्य की उत्पत्ति के दैवी सिद्धांत का प्रतिपादन करने के साथ कुछ स्थानों पर संविदा सिद्धांत को अपनाया है । अतः यह कहा जा सकता है कि राज्य की उत्पत्ति के दैवी सिद्धांत को अपनाने पर भी स्वयंभू मनु ने राजा को वैसी निरंकुश सत्ता प्रदान नहीं की है जैसी इस सिद्धांत के पाश्चात्य प्रतिपादकों द्वारा राजा को प्रदान की गयी है । 

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