मनुस्मृति: अन्तर्राज्यीय सम्बन्धों ( विदेश नीति) पर स्वयंभू मनु के विचारों को जानने के लिए पढ़ें पूरा आलेख


स्वयंभू मनु ने अन्तर्राज्यीय सम्बन्धों  विदेश नीति पर विचार करते हुए दो प्रमुख सिद्धांतो का प्रतिपादन किया है । 


मण्डल सिद्धांत 

स्वयंभू मनु के अनुसार राजा को महत्वकांक्षी होना चाहिए तथा क्षेत्र विस्तार के लिए निरन्तर रहना चाहिए । इस दृष्टि से राजा को मण्डल सिद्धांत के आधार पर दूसरे राज्यों के साथ सम्बन्ध स्थापित करने चाहिए । मण्डल सिद्धांत से अभिप्राय है राज्य का प्रभाव क्षेत्र । इसका केंद्र बिन्दु विजिगीषु राजा ( विजय प्राप्ति की इच्छा रखने वाला राजा) होता है । 

मनु ने राज्य मण्डल की चार मूल प्रकृतियां है - माध्यम विजिगीषु उदासीन और शत्रु । जो राजा विजिगीषु राजा की सीमा के पास रहता हो , विजिगीषु और उसके विरोधियों में सन्धि होने पर अनुग्रह करने में तथा विरोध होने पर दण्डित करने में समर्थ हो , यह राजा मध्यम है । जो विजिगीषु तथा मध्यम राजाओं के एकमत होने पर अनुग्रह करने में तथा विरोध होने पर निग्रह करने में समर्थ हो वह राजा उदासीन है । शत्रु राजा 3 प्रकार के होते हैं - सहजशत्रु कृत्रिम शत्रु और भूमि का पार्श्ववर्ती शत्रु । राजमण्डल की कुल मिलाकर 12 प्रकृतियां है 1 से 4 उपर वर्णित मूल प्रकृतियां और (5) मित्र ( 6) अरिमित्र (7) मित्र का मित्र (8) अर का मित्र का मित्र (9) पार्ष्णिग्राह (10) आनन्द (11)  पार्ष्णिग्राहासार और (12) आक्रांदासार। 

विजिगीषु राजा को चाहिए कि वह शत्रु राजाओं से अलग अलग या मिलकर साम दाम , दण्ड और भेद आदि उपायों पुरूषार्थ नीति से उन सबको अपने वश में करें । राजा को ऐसा प्रयत्न करना चाहिए कि शत्रु उसकी कमियों को न जाने , परन्तु शत्रु की कमियों को वह जान सकें । 


षाडगुण नीति 

साम दाम दण्ड और भेद नामक चारो उपायों से सम्बन्ध रखने वाली नीति को मनु षाडगुण्य मंत्र की संज्ञा देते हैं । मनु इस मंत्र के छः गुण मानते हैं । ये गुण सन्धि विग्रह , आसन ,मान द्वैधीभाव और संश्रय है जिनके उचित एवं समयानुकूल प्रयोग पर राजा की सफलता एवं विजय निर्भर करती है ।


(1) सन्धि - मनु सन्धि के स्वरूप पर मौन है उन्होंने इस विषय पर अपना मत प्रकट नहीं किया है। किंतु सन्धि के भेद किए हैं जो दो प्रकार के होते हैं - समानयान -कर्मा सन्धि और असमानयान - कर्मा सन्धि । इससे स्पष्ट होता है कि समानमानकर्मा सन्धि सन्धि से तात्पर्य दो राजाओं के मध्य उस समझौते से है जिसके अनुसार दोनों राजा एक साथ ही शत्रु पर आक्रमण करेंगे , किंतु असमानयान -कर्मा सन्धि से तात्पर्य है कि दोनों ही गठबंधन से युक्त राजाओं में करेंगे किंतु असमानयान -कर्मा सन्धि से तात्पर्य है कि दोनों ही गठबंधन से युक्त राजाओं में इस प्रकार की सन्धि होती है कि शत्रु पर एक ओर राजा आक्रमण करे तथा दूसरी ओर से दूसरा । उन परिस्थितियों का वर्णन स्वयंभू मनु ने किया है जबकि राजा को सन्धि को गुण का आश्रय लेना चाहिए 

(1) भविष्य में अपना अधिपत्य हो जाने की संभावना हो 
(2) वर्तमान समय में अपनी दुर्बलता एवं पीड़ा का भान हो जाय । 

(2) विग्रह 

विग्रह से स्वयंभू मनु का तात्पर्य अपकार करने से है । राजा को किस परिस्थिति में विग्रह गुण का आश्रय लेना चाहिए ,इस विषय में स्वयंभू मनु कहते हैं कि राजा को ऐसा अनुभव हो कि उसकी संपूर्ण प्रकृतियां हष्ट पुष्ट है और स्वयं उत्साहपूर्ण है तो विग्रह गुण का आश्रय लेना उचित होगा । मनु के अनुसार विग्रह दो होते हैं - स्वयंकृत विग्रह तथा मित्रकृत विग्रह । स्वयंकृत विग्रह है , जिसमें अपने शत्रु पर विजय प्राप्ति हेतु समय असमय किसी भी समय स्वयं किया जाता है । विग्रह का दूसरा प्रकार वह है जिसमें अपने मित्र के उपकार से निर्मित उसके अपकारी शत्रु से विग्रह किया जाता है। 


(3) आसन 

आसन का अर्थ है मौन बैठे रहना । स्वयंभू मनु ने उसे भी दो भागों में विभक्त किया है 

(1) जब राजा अपने पूर्व कर्म के कारण क्षीण होकर बैठ जाता है । 
(2) मित्र के अनुरोध पर राजा का मौन बैठे रहना । स्वयंभू मनु का विचार है जब राजा अपनी सेना एवं वाहन से क्षीण हो जाये तब धीरे धीरे प्रयत्न पूर्वक शत्रु को शान्त करता हुआ आसन गुण को ग्रहण कर ले 


(4) यान 

षाडगुण्य मन्त्र का तीसरा गुण यान है। स्वयंभू मनु के अनुसार एकाकीयान तथा मित्रसंतयान दो प्रकार के होते हैं । यान का अर्थ शत्रु पर आक्रमण करना है ये आक्रमण दो प्रकार के होते हैं

(1) राजा बिना मित्र की सहायता से शत्रु पर विजय की अभिलाषा से आक्रमण करता है । 

(2) वह अपने मित्र से सहायता से शत्रु पर विजय की अभिलाषा से आक्रमण करता है। स्वयंभू मनु की यह धारणा है कि राजा को यान गुण आश्रम उस परिस्थिति में लेना उचित होता जबकि राजा अपनी सेना को हष्ट पुष्ट और शत्रु सेना को इसके विपरीत पाता है । 


(5) संश्रय 

संश्रय का अर्थ है अपने को दूसरे के आश्रय में समर्पित कर देना । स्वयंभू मनु कहते हैं जब शत्रु सेना का प्रबल आक्रमण हो और स्वयं दुर्ग में रहते हुए भी सुरक्षित न हो तो ऐसी परिस्थिति में किसी धार्मिक बलवान राजा का आश्रय लेना चाहिए । स्वयंभू मनु ने इसे भी दो भागों में विभाजित किया है । 

(1) संश्रय उस स्थिति को बताया गया है जब शत्रु से पीड़ित राजा अपने प्रयोजन सिद्धि के लिए किसी अन्य राजा की शरण लेता है । 

(2) जिसके अनुसार कि पीड़ित राजा सज्जनों के साथ व्ययदेशार्थ अन्य राजा की शरण लेता है । 

(6) द्वैधी भाव 

 अर्थ सिद्वि के लिए सेना के कुछ अंश को किसी स्थान पर सेनापति के अधीन रखकर स्वयं अन्यत्र वास करना द्वैधीभाव गुण होता है। स्वयंभू मनु ने इस गुण को दो भागों में रखा है । राजा को किन परिस्थितियों में इस गुण का आश्रय लेना चाहिए इसकी परिभाषा मनु ने इस प्रकार की है कि जब राजा शत्रु को अति बलवान पाता है तो ऐसी परिस्थिति में उसे अपनी सेना को दो भागों में विभक्त कर अपना कार्य साधन करना चाहिए । इस प्रकार एक स्थान पर युद्ध करके और दूसरे स्थान पर शांत रहे । सेना को इस प्रकार दो भागों में विभक्त कर युद्ध संचालन करने को षाडगुण्य मन्त्र द्वैधीभाव कहते हैं। 

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