एकम् सत् विप्रा बहुधा वदन्ति

हमारे लचीले धर्म के स्वरूप की जो प्रथम नैसर्गिक विशेषता बाहरी व्यक्ति की दृष्टि में आती है, वह है पन्थ एवं उपपन्थों की आश्चर्यजनक विविधता यथा-शैव, वैष्णव, शाक्त, वैदिक, बौद्ध, जैन, सिख, लिंगायत, आर्य समाज आदि। इन सभी उपासनाओं के महान आचार्यों एवं प्रवर्तकों ने उपासना के विचित्र रूपों की स्थापना हमारे लोक-मस्तिष्क की विविध योग्यताओं की अनुकूलता का ध्यान रखकर ही की है। किन्तु अन्तिम निष्कर्ष के रूप में सभी ने उस एक चरम सत्य को लक्ष्य के रूप में प्राप्त करने के लिए कहा है, जिसे ब्रह्म, आत्मा, शिव, विष्णु, ईश्वर अथवा शून्य या महाशून्य तक के विविध नामों से पुकारा जाता है। 
देखिए यह निम्नांकित श्लोक किस सुन्दरता से हिन्दू-दर्शन के विविध पन्थों में स्वरैक्य एवं
एकत्व का समावेश करता है-
यं शैवाः समुपासते शिव इति ब्रह्मेति वेदान्तिनो
बौद्धा बुद्ध इति प्रमाणपटवः कर्तति नैयायिकाः । अर्हन्त्रित्यथ जैनशासनरताः कर्मेति मीमांसकाः
सोऽयं यो विदधातु वांछित फलं त्रैलोक्यनाथो हरिः ।
(हनुमन्नाटकम् अंक १:३) 
( वह जिसकी उपासना शैव शिव मानकर करते हैं, वेदान्ती जिसे ब्रह्म मानकर उपासते हैं, बौद्ध जिसे बुद्ध और तर्क-पटु नैयायिक कर्त्ता मानकर आराधना करते हैं एवं जैन लोग जिसे अर्हत मानकर तथा मीमांसक जिसे कर्म बताकर उपासना करते हैं वही त्रिलोकीनाथ हरि हमारी इच्छाओं को पूरा करें)।
व्यक्ति को उपासना स्वातन्त्र्य का यह अधिकार इसलिए प्राप्त था कि प्रत्येक के लिए अपनी विशिष्ट आध्यात्मिक प्रकृति के अनुकूल आध्यात्मिक जीवन चुनने का स्वातंत्र्य हो। किन्तु उपासना मार्ग की विविधताओं का अर्थ समाज का विभाजन नहीं था। एक ही धर्म के ये सभी अविभाज्य अंग समाज की धारणा करते थे। हमारे समाज के इन सभी अंगों में वही जीवन-दर्शन, वही लक्ष्य, वही बाह्य स्थूल पर आन्तरिक आत्मा का प्रभुत्व, वही पुनर्जन्म में विश्वास, वही ब्रह्मचर्य, सत्य आदि कतिपय गुणों की पूजा, वही पवित्र संस्कार संक्षेप में वही जीवन-रस हमारे समाज के इन अंगों में प्रवाहित होता रहा। वे शुद्ध अद्वैत के संस्थापक श्री शंकराचार्य ही थे, जिन्होंने पंचायतन पूजा का निर्देश किया। ईश्वर के साक्षात्कार हेतु विभिन्न पन्थों के स्वरैक्य का यह कितना भव्य उदाहरण है। पन्थ विभेद के कारण हमारे देश में भूतकाल में कभी रक्तपात अथवा अपवित्र प्रतिस्पर्धा नहीं हुई। यहाँ तक कि जब किसी ने अपने मत का मण्डन अथवा दूसरों के मतों के खण्डन का प्रयास किया, तब भी सिर फुटव्वल नहीं हुई। 
इस आन्तरिक एकत्व की गम्भीर धारा का शिवमहिम्नः स्तोत्र में अत्यन्त सुन्दर चित्रण हुआ है-
त्रयी सांख्यं योगः पशुपतिमतं वैष्णवमिति
प्रभिनो प्रस्थाने परमिदमदः पथ्यमिति च ।
रुचीनां वैचित्र्यादृजुकुटिलनानापथजुषां
नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इवा।।
(शिवमहिम्न स्तोत्रम् ७ )
(जिस प्रकार सभी जलों का गंतव्य समुद्र होता है, वैसे ही है भगवान् शिव सभी मनुष्यों के तुम एक मात्र लक्ष्य हो। मनुष्य अपनी रुचि के अनुसार तुम्हारी पूजा के लिए भिन्न-भिन्न मार्गों का अनुसरण करते हैं। चाहे वह रास्ता सीधा हो या टेढ़ा। यह विचार करते हुए कि जिन विभिन्न मार्गों जैसे वेद, सांख्य योग, सेव और वैष्णव के विश्वासों में वही मार्ग श्रेष्ठ या पूर्ण है)। प्राचीन वैदिक काल से लेकर आज तक हमारी यही परम्परा रही है। हमारे सभी आध्यात्मिक आचार्यों ने धर्म के इसी सर्वव्यापी अद्वितीय स्वरूप को ग्रहण किया है। रामकृष्ण परमहंस ने कहा है- 'जितने दृष्टिकोण, उतने मार्ग' व्यक्तियों की विविध वृत्तियों एवं रुचि के अनुसार अनेक पंथ और मत हो सकते हैं। इनमें से अनेक पन्थों एवं दर्शनों के निर्माण से एक अन्य लाभदायक उद्देश्य की भी सिद्धि हुई है। वे हमारे समाज की अखण्डता को बनाए रखने के लिए तथा उसकी रक्षा के लिए भी सहायक सिद्ध हुए । उदाहरण के लिए सिख पन्थ का उदय पंजाब में इस्लाम के प्रसार को रोकने के लिए हुआ। आगे चलकर समय की आवश्यकता को समझते हुए दशम गुरु गोविन्दसिंह ने अपने शिष्यों को सशस्त्र किया तथा उन्हें राष्ट्रीय योद्धाओं के एक दल में परिवर्तित कर दिया। जब ईसाई धर्म-प्रचारक हमारे पश्चिमी समुद्र तट पर लोगों को अपने सम्प्रदाय में सम्मिलित करने के लिए अपने निज के दयामय ईश्वर के नाम पर लोगों का अनुनय कर रहे थे, उस समय इस विदेशी विष को विफल करने के लिए हमारे धर्म के भक्ति के एक स्वरूप को लेकर श्री मध्वाचार्य का उदय हुआ। रामानुजाचार्य एवं बसवेश्वर के प्रयत्न भी समाज में प्रवेश कर रहे ऊँच-नीच के भेद को मिटाकर ईश्वर भक्ति के सामान्य बन्ध में सभी लोगों को बाँधने के लक्ष्य से प्रेरित थे।


श्री गुरुजी का सामाजिक दर्शन: पृष्ठ-16

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