क्या भारतीय सभ्यता का इतिहास यही मात्र 2000 वर्ष पुराना ही है?

क्या भारतीय सभ्यता का इतिहास यही मात्र 2000 वर्ष पुराना ही है? क्या हमारी सभ्यता मात्र 2000 वर्ष पूर्व ही विकसित हुई, जिसका पतन पिछले हजार वर्षों में बड़ी सहजता से कर दिया गया?
वास्तव में यह प्रश्न अपने आप में अत्यंत महत्वपूर्ण प्रश्न है।
क्योंकि अगर मैं अपनी संस्कृति को कल्प नहीं, मात्र चतुर्युगी भी मानती हूँ, तब भी मेरे पास एक बहुत बड़ा कालखंड है, जो हमारे गौरवगान और हमारी प्रखरता को ख्यापित करता है, हमारी वैज्ञानिक पद्धति और हमारी उज्जवलता और प्रकीर्णता को ख्यापित करता है। 
परन्तु यही मैं अपने वजूद को मात्र कुछ हजार वर्षों में समेट लेती हूँ, तब भी एक ऐसी उर्वर भूमि का ज्ञान होता है, जो विश्व की समस्त सभ्यताओं में सर्वश्रेष्ठ जानी गयी।
इन सब के बावजूद भी हमें किसी व्यक्ति या किसी तथ्य की #कॉपी की आवश्यकता क्यों पड़ रही? क्यों मैं अपने ही बीज को अपनी ही वैचारिक उर्वर भूमि में गाड़ एक प्रखरतम वृक्ष की उत्पत्ति नहीं कर लेते?
हमारी संस्कृति तो #जीवोत्पत्ति की उन सभी सम्भावित स्थितियों से बीजांकुर न केवल फूटते देखी है, बल्कि उन्हें पुष्पित और पल्लवित होते देखी है, जिनकी आज मात्र परिकल्पना ही देखी जा रही। 

जब स्वामी तेजोमय होता है, तो सेवक भी अनन्य तेज से परिपूर्ण हो जाते हैं। 
जिस प्रकार सूर्य का देदिव्यमान होना पृथ्वी को भी प्रकाशित कर देता है, उसी प्रकार स्वामी का उदित चरित्र सेवक के चरित्र को भी पुष्पित और पल्लवित बड़ी ही सहजता से कर देता है।
लेकिन इसका आशय यह नहीं कि स्वामी निज प्रभाव को सेवक के प्रभाव क्षेत्र में अनावश्यक चेष्टा के रूप में ख्यापित करे।
अगर मैं बात करूँ सूर्य और पृथ्वी के सम्बंध में तो,
सूर्य से आने वाली समस्त ऊर्जा का मात्र 0.47% ही पृथ्वी अपनी कक्षा में स्वीकारती है, शेष को वापस कर देती है। क्योंकि पृथ्वी को मात्र उतनी ही सामर्थ्य की आवश्यकता जो रहती है।
उसी प्रकार,
                जहाँ सेवक और स्वामी में एक अनन्य सम्बन्ध होने पर भी किसी प्रकार की अनिष्ट इच्छा का अभाव एक सहज विज्ञान के रूप में देखा जाता है, भला वह संस्कृति कभी भी क्षरित हो सकती है?
शांतिपर्व महाभारत में एक उल्लेख मिलता है-
ब्राह्मण राजा को समस्त प्रजा का अधिपति घोषित करता है, और राजा को भी धर्म के अधीन कर देता है। परन्तु उसी समय यह भी उद्घोषणा करता है कि मेरा स्वामी सोम है।

अर्थात,
          राजा जिस प्रकार के चरित्र का ख्यापन करेगा, उसकी प्रजा भी उसी चरित्र के अन्तर्गत राजा के विधि और विधान को स्वीकारने वाली होगी। राजा किसी प्रकार की #अनपेक्षित चेष्टा अपनी प्रजा से नहीं कर सकता।
अगर राजा नित्य सुरा सुन्दरी और विलास में आकण्ठ लिप्त है तो इसी प्रकार के व्यसन में लिप्त प्रजा के लिए "राजा का दण्ड" निःसहाय हो जाएगा।
परन्तु अगर राजा धर्मनिष्ठ और कर्त्तव्य परायणता की प्रतिमूर्ति है, तो प्रजा का व्यसन आदि में डूबना प्रजा के लिए कठोर अनुशासनात्मक कार्यवाही को भी सुनिश्चित करता है।

इस प्रकार 
              यह सहज देखने में आता है कि, निज चरित्र का अनुदर्शन ही हमारे समस्त निर्देशन का अनिवार्य अंग बनते हैं। 
परन्तु 
        एक प्रश्न यह भी उठता है कि, कर्त्तव्य परायणता और अनुशासन की व्याख्या कौन करेगा? कौन बताएगा कि अमुक राजा निज चरित्र से पतित हो चुका है, और जब राजा निज चरित्र से पतित हो जाय तो प्रजा का पतन सुनिश्चित हो जाने पर पुनः राज्य की व्यवस्था कौन करेगा?
है ना यह जटिल प्रश्न?
इसी प्रश्न का उत्तर पूर्व में दिया गया है,
एक ब्राह्मण राजा को न्यायदण्ड जब सौंपता है तभी वह राजा राजा के ऊपर धर्म का शासन कहता है, और अपना शासक #सोम(अनादि धर्म प्रणाली) को बताता है।

जब राजा पतित हो जाय, और प्रजा भी राजा के प्रभाव से पतन की ओर बढ़ने लगे तब ब्राह्मण ही निज चरित्र अनुदर्शन से प्रजा की रक्षा करता है, और पुनः धर्मच्युत राजा के विस्थापित होने पर योग्य अधिपति को स्थापित करता है।

अब तो समझ गए न, 
                           हमारी व्यवस्थाएँ #प्रभाव में नहीं बल्कि #स्वत्व में निष्ठित होती हैं। प्रभाव भी उतना ही स्वीकार्य होता है, जितना हमारी सभ्यता के उत्कर्ष के लिए बीज के रक्षण और उसके पुष्पन पल्लवन के लिए आवश्यक होता है। शेष प्रभाव को ठीक उसी प्रकार रिफ्लेक्ट कर दिया जाता है, जैसे- पृथ्वी सूर्य के तेज से ही अपने मध्य मण्डल में ओजोन रूपी सुरक्षा लेयर क्रिएट करके शेष ऊर्जा(प्रभाव) को रिफ्लेक्ट कर देती है।

अगर इस सनातन प्रणाली का अभाव होता गलती से भी भारतीय संस्कृति में तो आज भारतीय संस्कृति #पर्शिया की तरह ही #म्लेच्छ संस्कृति बन चुकी होती।

इसलिए कहती हूँ, 
                      अपने वजूद अपनी सभ्यता अपनी प्रणाली और अपने जीवन दर्शन के बारे में जानें, और जानकर ही अपने इतिहास का चिन्तन करें। भविष्य का निर्माण स्वतः हो जाएगा।

जय माँ भवानी


साभार
भरद्वाज नमिता 

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