ब्राह्मण जन्म से होते या कर्म से इस विषय पर शास्त्र क्या कहते हैं ?

श्रीमद्भागवत गीता महाभारत के पंचरत्नों में से एक है। महाभारत के वनपर्व में एक श्लोक आता है 
ब्रह्माण्यां ब्रह्मणज्जातो ब्राह्मण: स्यान्न संशय:
 
जिसका अर्थ होता है की ब्राह्मण के वीर्य से जिसका जन्म होता है वह ब्राह्मण होता है इसमें संशय नहीं है। गीता जी के चौथे अध्याय वाले गुणकर्म वाले श्लोक का अर्थ जन्मना वर्ण को नकारना नहीं बल्कि ये बताना है की गुण और कर्म के अनुसार उन्होंने चारो जन्मना वर्णों को रचा है। 
ये तो जन्मना वर्ण की बात हुई आगे उसी वनपर्व में
ब्राह्मण को गुणवाचक भी बताया गया है। 

सत्यं दानं क्षमा शीलम नृशंस्य तपो घृणा 
दृश्यंते यत्र नागेन्द्र स ब्राह्मण इति स्मृत: ।।

इस श्लोक में सत्य,दान और क्षमा आदि गुणों से ब्राह्मणत्व को प्रतिष्ठित किया गया है। अर्थात ये की ब्राह्मण वर्ण और ब्राह्मणत्व होने में बड़ा अंतर है। ब्राह्मण वर्ण में जन्म लेने मात्र से ब्राह्मणत्व का दैवीय गुण विकसित नहीं होता। और इस गुण को विकसित कोई भी कर सकता है। क्योंकि सनातन धर्म में फल से कोई भी वंचित नहीं है। जाति और वर्ण समाज के सामाजिक विकास और आध्यात्मिक उत्थान के लिए हैं। इसमें किसी भी तरह का अहंकार और कुंठा धर्म व विवेक सम्मत नहीं है। 

यदि पहला श्लोक न पढ़ेंगे तो अर्थ का अनर्थ ही निकालेंगे। वैसे आज कल के ज्ञानी लोग जब जैसा चाहें शास्त्रों की मनमानी व्याख्या कर लेते हैं। बहुत दिनों से लोग रायता फैला रहे थे सोचा थोड़ा रायता समेट भी दूं।


ज्योतिषर्विद प. शैलेन्द्र सिंह तिवारी 

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