हिंदू श्रमिक की मजदूरी

 

इस पटल पर अक्सर पढ़ने को मिलता है कि हिंदू श्रमिक मजदूरी अधिक मांगता है और कामचोर है। विधर्मी सस्ता है और बढ़िया काम करता है. दबे छुपे रूप में लोग अपने घर, दुकान या व्यापार में "ट2ओ" को रोजगार देने को justify करते हैं, क्योंकि वो "सस्ते" हैं!

मैं सोचता हूं कि दशकों ही नही अपितु शताब्दियों से हिंदुओ में एक बड़ी संख्या सूदखोरी के दलदल में फंस कर बंधुआ मजदूरी भी करती रही है तो आज कैसे बदल गए? ग्रामीण अंचल और शहरी क्षेत्र के मजदूर वर्षों और दशकों के अनुभव के बाद भी 200-700 रुपए की दिहाड़ी पर कार्य कर रहे हैं. जबकि औसत कालेज से इंजीनियरिंग/एम ए /एमबीए/Aptech पास; जिनको इंडस्ट्री का क, ख, ग नही पता होता; उन्हे 15,000 से 70,000 प्रति माह दे कर काम सिखाना भी पड़ता है और फिर भी उन पढ़े लिखे मजदूरों को लगता है कि उनका "शोषण" हो रहा है.

दस में से 8 कॉलेज पासआउट को लगता है कि *लाख रुपया महीना* के नीचे सैलरी में तो जिंदगी *झंड* है.. भले मैकाले की पढ़ाई की बदौलत रिंच स्पैनर और Allen Key type टूल्स का घंटा पता ना हो.. स्वयं मेरे साथ भी ऐसा होता रहा होगा.

सबल/सफल/धनाढ्य/अभिजात्य वर्ग स्वयं के लिए तो अंबानी के #Antalya का स्वप्न देखता है; परंतु अपने से कमजोर अन्य हिंदुओ की गैर वाजिब (न्यूनतम से भी कम) मजदूरी को भी "अधिक" समझता है और सतत रूप से निचोड़ने का प्रयास करता है. यह दोहरी मानसिकता ही श्रमिकों के साथ *विवाद* की जड़ है..

हमें समझना होगा कि प्रत्येक व्यक्ति "जीवन में आगे बढ़ना" चाहता है. प्रगति चाहता है और इसका मार्ग उसे सिर्फ पैसे से भी बनता दिखाई देता है. 

अपनी  उन्नति चाहना कोई अपराध है?

पिछले बीस वर्षों में इंडस्ट्रियल रिक्रूटमेंट को नजदीक से देखा है. व्यापारियों से लगातार बात होती रहती है. सारे SME से जुड़े व्यापारी कुशल (skilled/हुनरमंद) कर्मचारियों की सतत तलाश में रहते हैं. अच्छे कर्मचारी मिलते ही नही.. सच्चाई ये है कि व्यापारी वर्ग स्वीकार ही नही कर पता है कि *अच्छे कर्मचारी* की मजदूरी भी "अच्छी" होनी चाहिए.

Simply - "If you pay Peanut; U get Monkeys ONLY."

मैने पिछले 4 वर्षों में भारत प्रवास के दौरान बहुत से कंस्ट्रक्शन, रिपेयर, प्लंबिंग, टाइल्स, बिजली इत्यादि के कार्य कराएं हैं। व्यक्तिगत अनुभव रहा है कि #Skilled मजदूर के पास इतना काम है कि वह कर ही नही पाता है और ओवर कमिटमेंट mode में ही रहता है. मानव स्वभाव और हमारा आग्रह भी होता है कि करना ही पड़ेगा.. और वो कुछ दबाव या कुछ लालच में काम ले लेता है.

हर किसी हिंदू श्रमिक ने अपना दाम मांगा और जब भी मैंने बाजार से कम दाम का काउंटर प्रपोजल दिया; कुशल श्रमिक चले गए.. पूरी तरह समझता हूं कि वो मेरा काम अस्वीकार कर इसलिए चले गए क्योंकि उन्हे किसी अन्य जगह उनके श्रम का दाम मुझसे अधिक मिल रहा था. 

स्वाभाविक सी बात है कि जब  आवश्यकता अधिक और पूर्ति कम होगी तो दाम बढ़ेंगे. मानव स्वभाव है..

किसी किसी ने काम लिया और देर से पूरा किया; किसी ने चार दिन बाद आरंभ करने का वादा किया पर आठ दिन लगा दिए कारण मुझे तब समझ में आया जब मैं स्वयं मैटेरियल लाने में देर की. ऐसा अन्य जगह भी होता ही होगा..

ठीक वैसे ही जैसे आप विवाह में न्योता खाने जाते हैं और थाली में उतना भर लेते हैं जितना आपको अंदाज भी होता है कि खा नही पाएंगे! फिर रायता फैलने लगता है । 😀

एक बात और - जब आप हिंदू मजदूर/कांट्रेक्टर को अपनापन देते हैं। भाई/बेटा/चाचा कह कर सम्मान और अपनेपन के साथ चाय पानी भी पूछते हैं तो उसका मोटिवेशन लेवल अलग स्तर पर होता है और जब आप "रे़, ते, तू तड़ाक" से संबोधित करते हैं तो उसके कार्य की उत्पादकता और गुणवत्ता दोनो घट जाती है...

#हिंदू श्रमिक को सम्मान और उचित मजदूरी दीजिए; उसे जीवन में आगे बढ़ने का अवसर दीजिए। वो किसी भी विधर्मी से बेहतर कार्य करेगा। 

सिर्फ इतना ही नहीं - आपका दिया पैसा "जखात" के मध्यम से आपके परिवार के ही विरुद्ध खर्च नही होगा।

हिंदू_इकोनॉमी जब मजबूत होगी, तभी हिंदुस्तान शक्तिशाली बनेगा 🙂

जय श्रीराम 🚩

संतोष तिवारी जी 

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