भूत प्रेतों के बहाने,,, गांव की बात



बचपन में अनेक कहानियां सुनते थे, पीपल वाला भूत, गांव के ताल वाला बुडुवा, इमली वाली चुड़ैल आदि आदि, गांव के इर्द गिर्द ऐसे अनेक स्थान होते थे जहां इनका साम्राज्य स्थापित था। गांव के लोग कुछ भी करें इनके साम्राज्य पर अतिक्रमण का साहस नहीं जुटाते थे।

ये भूत चुड़ैल बुडुआ आदि की बात थी इसके अलावा गांव में एक और सत्ता थी, वह डीह बाबा, काली माई, बरम बाबा, नटुआ वीर बाबा या अन्य बाबा माई की सत्ता थी, उनका भी साम्राज्य था, उनमें लोगों की अपनी श्रद्धा होती थी और लोग इनके क्षेत्र का सम्मान करते उसे पवित्र रखते और उसके अतिक्रमण से डरते थे।

इस प्रकार प्रत्येक गांव के साथ कुछ ऐसे सुरक्षित क्षेत्र हुआ करते थे। इन क्षेत्रों का सार्वजनिक उपयोग तो होता था पर व्यक्तिगत रूप से किसी के अधिकार क्षेत्र में नहीं होता था, सरकारी रिकार्ड में भले किसी का नाम दर्ज हो तब भी ऐसे स्थान सार्वजनिक उपयोग में लाए जाते उनके कुछ अघोषित नियम भी थे जिससे इनका उपयोग संतुलित तरीके से हो जिससे उसकी पवित्रता अथवा उसके प्राकृतिक स्वरुप में छेड़ छाड़ न हो सके।

एक प्रकार से ये शक्तियां गांव की संरक्षक हुआ करती थीं जिनमें गांव वालों के शुभ और अशुभ दोनों करने की सामर्थ्य मौजूद थी।

फिर विज्ञान आया और गांव गांव और घर घर तक पहुंच गया।
विज्ञान ने एक बड़ा सूत्र दिया वह विकास का सूत्र था और पूरा का पूरा ग्रामीण समाज विकास का सूत्र पकड़ अपने निजी विकास के लिए दौड़ पड़ा।

इस दौड़ में इन दोनों से मानव का संबंध विच्छेद हुआ भूतों से डर समाप्त हुआ और दूसरी तरफ सहायक शक्तियों से विश्वास कम हुआ। नतीजा उन स्थानों का भी अतिक्रमण शुरू हो गया जो पहले उपरोक्त कारणों से सुरक्षित क्षेत्र थे।
आज गांवो के कुंए, तालाब सब पाट दिए गए पेड़ों को काट दिया गया सारे भूत और चुडैलों को निष्कासित कर दिया गया, जो सहायक शक्तियां थीं उन्हें या तो उपेक्षित कर महत्वहीन कर दिया गया अथवा उनके लिए लक्ष्मण रेखा खींच दी गई कि इसके बाहर न निकलें।

दरअसल ग्रामीण व्यवस्था अपने आप में आत्मनिर्भर व्यवस्था थी, प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग करने के साथ उनके संरक्षण का भी खयाल रखती थीं, शायद इसके लिए ही इन्होंने कुछ अच्छी और कुछ बुरी शक्तियों को स्थापित कर रखा था, पर अब ऐसी बात नहीं रही।
आज किसी भी गांव में जल निकासी और कूड़ा निस्तारण की कोई व्यवस्था या योजना नहीं है। 

जिस ग्रामीण व्यवस्था में कृषि कार्य से कोई भी अनुपयोगी उत्पाद नहीं होता था आज हर जगह कृषि कार्य से बेकार उत्पादों के निस्तारण की समस्या है जेड अभी कुछ वर्षों पहले तक ही की बात है जब पराली जलाने जैसी कोई समस्या नहीं हुआ करती थीं, दिवाली पर पटाखे आज की तुलना में बीस गुना अधिक होते थे पर प्रदूषण का यह स्तर नहीं होता था।

आज दिल्ली की हवा हर वर्ष इस समय में इतनी जहरीली हो जाती है कि बाहर निकलना भी गंभीर स्वास्थ्य समस्या बन जाता है, TV पर अनेक विशेषज्ञ आते हैं अपनी बात रखते हैं, कुछ दिनों ऐसे चलता है फिर अगले साल और बुरे हालात से जूझने के लिए विवश हो सब चलते बनते हैं।
संभवत: हम विकास और अस्तित्व के संकट से जूझ रहे हैं और उससे उबरने का रास्ता नहीं बचा है।
गांवो में कुंए तालाब से लेकर खेत खलिहान तक अनेक पूजा के स्थल थे जो समाप्त कर दिए गए, गांवों की सामाजिकता और जनसंख्या दोनों घटी है, पर शहरी विकास वहां तक जरूर गया है।

अपने आप में आत्मनिर्भर सामाजिक ईकाई के रुप में स्थापित गांव आज पूरी तरह बाजार और शहर के भरोसे रह गया है, गांवो की आत्मनिर्भरता समाप्त हो चुकी है। 
आज गांवों और शहरों के बीच मिटती दूरी दोनों के ही अस्तित्व के लिए खतरा बन कर उभरी है।

हम चाहे जितने आजाद होने का दंभ भर लें सच यह है कि हम पुरी तरह से बाजार के गुलाम बन चुके हैं और प्रकृति को भी हमने जाने अनजाने बाजार के हवाले कर दिया है।

विज्ञान ने और कुछ भले किया या नहीं किया पर गांवों के सौंदर्य और प्राकृतिक सुरक्षा कवच को हटाने में भरपूर योगदान किया है। 
वास्तव में गांव के देवी देवता भूत पिशाच सभी मिलाकर गांवों को सुरक्षित रखे थे, फिर लोग बुद्धिमान होते गए और गांव मरते गए। आज किसी भी गांव में चले जाइए विकास की चकाचौंध चहुंओर दिख जाएगी पर गांव उजड़ सा गया है।

देखा जाए तो जैसे जैसे गांवों ने भूत प्रेत चुड़ैल पिशाच और गांव के लोक आस्था के देवी देवताओं को समाप्त किया स्वयं भी नष्ट होते गए हैं। 


Suraj Rai 

टिप्पणियाँ